विश्व आदिवासी दिवस: रामराज्य के ‘ठेकेदारों’ को जल जंगल ज़मीन में दिख रही ‘सोने की लंका’

niyamgiri girls @ Workers Unity

By आशीष आनंद

जहां भी आदिवासी हैं, वह जगह माफिया और कारपोरेट समूहों की नजर में ‘सोने की लंका’ है, जिसे वे लूटने और बर्बाद करने पर तुले हैं।

उन्हें न पर्यावरण से लेना देना है, न जैव विविधता से और न ही प्राकृतिक संपदा के अति दोहन से।

इसके साथ ही एक खास बात ये भी है कि राज करने वाले गैर आदिवासी समाज की मानसिक बनावट भी ऐसी है कि उन्हें आदिवासियों में इंसानों के पुरखे नहीं, बल्कि ‘राक्षस’ दिखाई देते हैं, जिनके वध की कहानियों को पौराणिक कथाओं के जरिए सच माना जाता है।

कुदरती खजाने पर कारपोरेट की गिद्धदृष्टि

भारत सरकार की ऊर्जा सांख्यिकी रिपोर्ट बताती है कि झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र में देश का 98।26 प्रतिशत कोयला है।

इसमें अकेले झारखंड में 26.06 प्रतिशत झारखंड का हिस्सा है।

इसके बाद उड़ीसा के हिस्से में लगभग 25 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में तकरीबन 18 प्रतिशत कोयले का खजाना है।

देश के पास कुल लगभग 320 बिलियन टन कोयले का रिज़र्व है। अब तक इस कोयले से संबंधी पूरे काम में सरकारी कंपनी कोल इंडिया ही सरताज थी, लेकिन अब इस क्षेत्र को मोदी सरकार ने निजी कंपनियों को खोल दिया है।

जिसका विरोध कोयला खदानों के मजदूरों ने बीती जुलाई में तीन दिन की हड़ताल करके किया और इस महीने भी 18 अगस्त को कोयला खदानों में हड़ताल रहेगी।

यही कारण है कि मोदी सरकार ने पर्यावरण मंज़ूरी के क़ानूनों को लगभग रद्दी बना देने की ठान ली है और हाल ही में पर्यावरण मंत्री ने ऐसे क़ानून का मसविदा पेश किया है जिसके तहत अब कंपनियों को अपना काम शुरू करने से पहले पर्यावरण पर असर का आंकलन करने और फिर मंज़ूरी देने की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी।

यानी काम शुरू होने के बाद अगर पर्यावरण पर असर की रिपोर्ट आती है तो कुछ मुआवज़ा निर्धारित करके खनन का काम अबाध गति से जारी रह सकेगा।

इसी तरह कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस भंडार असम, आंध्रप्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, राजस्थान समेत कुल 575 मिलियन टन है, जिसमें अकेले असम के हिस्से में 27 फीसद आता है।

दंडकारण्य में आदिवासियों का शिकार

अब इन राज्यों पर नजर डालिए। यहीं सबसे ज्यादा आदिवासी रहते हैं, जिन्होंने इस संपदा को पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजकर रखा। संपदा को सहेजने के लिए वे जंगल, पेड़-पौधे, नदी-पहाड़ को देवता मानकर रक्षा करते हैं।

इसी वजह से आदिवासी कारपोरेट समूहों की राह में रोड़ा बन जाते हैं। आदिवासियों के विरोध को रोकने को देश के सुरक्षाबल बड़ी संख्या में इन्हीं जगहों पर तैनात हैं और अघोषित-अनवरत युद्ध जारी है।

Niyamgiri Tribal
नियमगिरी में वन उपज बाज़ार ले जातीं आदिवासी महिलाएं। फ़ोटोः वर्कर्स यूनिटी

ऐसा होने की बड़ी वजह भारत के शासकों की पौराणिक समझ भी है। सभी कथाओं में उनके देवता जिन असुरों से लड़े हैं, वे इन्हीं जंगलों में पाए जाते हैं।

रामचरित मानस में दंडकारण्य के जंगल में राम और लक्ष्मण जिन असुरों के वध करते दर्शाए गए हैं, वे असल में यही समुदाय हैं और जंगल का क्षेत्र भी वही है-‘दंडकारण्य’।

ऐसा नहीं है कि ये काम भाजपा सरकार ही कर रही है। यही काम कांग्रेस सरकार ने ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ का अभियान चलाकर आदिवासियों का शिकार किया।

कुख्यात सुरक्षबलों के अफसरों को भाजपा ने पाला तो कभी कांग्रेस ने। उनके दमन के तरीकों में रत्तीभर फर्क नहीं है।

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