देश और दुनिया में बढ़ती असमानता और मानवाधिकार का संघर्ष

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By कमल सिंह

अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस की शुरुआत 10 दिसंबर, 1950 को हुई। इससे 2 साल पहले 10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने मानव अधिकार घोषणा पत्र जारी किया था जिसकी 30 अनुच्छेद हैं। ये अधिकार सभी देश जहां किसी भी राजनीतिक विचारधारा या समाज व्यवस्था हो ये अधिकार लागू होते हैं।

इन मानवाधिकारों की आधारशिला सामंतवाद के विरोध में लोकतंत्र क्रांति की परचम महान फ्रांसीसी क्रांति 1789 द्वारा घोषित “स्वतंत्रता, समानता,भाईचारा” है। 1939-45 छह साल तक चले दूसरे विश्व युद्ध में सात करोड़ से अधिक लोग मारे गए थे। मानव इतिहास का यह सबसे खूनी संघर्ष माना जाता है। इससे पहले 1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्वयुद्ध में लगभग 1 करोड़ लोगों के मारे जाने का अनुमान है।

इन दोनों युद्धों मे 1.6 लाख से अधिक भारतीय सैनिक मरे, युद्धों के कारण बीमारियों और कुपोषण के कारण लाखों लोग मारे गए। युद्ध के बाद, उपनिवेशवादी गुलामी के खिलाफ आजादी के संघर्षों की नयी लहर आयी। दूसरी ओर “वैश्विक तनाव” और तीसरे विश्वयुद्ध की संभावना, “वैश्विक शांति” अंदोलन की शुरूआत ये वे परिस्थितियां थीं, जब 10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने मानव अधिकार घोषणा पत्र जारी किया गया था।

हर वर्ष मावाधिकार दिवस का एक थीम घोषित किया जाता है। इस साल मानवाधिकार की थीम समानता : “असमानता कम करना और मानवाधिकारों को आगे बढ़ाना” है। विश्व बैंक ने संभावना व्यक्त की है करोना महामारी के बाद 2021 तक दुनिया में 15 करोड़ लोगों के गरीबी की चपेट में होंगे। क्रेडिट सुईस की ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट 2018 में तो कहा गया था कि देश की सबसे अमीर एक फीसदी आबादी के पास 51.5 फीसदी संपत्ति है। संयुक्त राष्ट्र द्वरा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया भर की लगभग विषमता बढ़ रही है जिससे समाजों में दरारें पड़ने और आर्थिक व सामाजिक विकास के बाधित हो तहा है और साज में टकराव बढ़ रहा है।

यह “विश्व सामाजिक रिपोर्ट-2020 संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक व सामाजिक मामलों के विभाग (डेसा) ने प्रकाशित की है। संयुक्त महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने इस रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा है, “दुनिया गहरे और विषम वैश्विक आर्थिक संकट से गुजर रही है। विकसित व विकासशील देशों में विषमता और रोज़गार असुरक्षा के कारणों से व्यापक प्रदर्शन हो रहे हैं। आय में असमानता और रोज़गार के अवसरों की कमी के कारण विषमताओं का कुचक्र बन गया है और लोगों में हताशा और निराशा है।” 2019 में वैश्विक स्तर पर अरबपतियों की कुल संपत्ति में गिरावट के बावजूद, पिछले दशक में अरबपतियों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। फोर्ब्स मैगजीन दुनिया के अरबपतियों की सूची जारी करता है उसके अनुसार दुनिया में सबसे अधिक अरबपति अमेरिका में 724, चीन में 626 के बाद तीसरा नंबर पर भारत में 140 अरबपति हैं।

ऑक्सफैम के अनुसार, 18 मार्च से 31 दिसंबर, 2020 तक दुनिया के 10 पहले अरबपतियों की संपत्ति में 540 अरब डॉलर का इज़ाफा हुआ है। जबकि इस दौरान दो करोड़ से 50 करोड़ लोग गरीब हो गए हैं। भारत की गिनती अब दुनिया के गरीब और उन देशों में होती है जहां सर्वाधिक असमानता है। असमानता पर वेैश्विक रिपोर्ट (‘World Inequality Report) 2022 में बताया गया है देश कि कुल राष्ट्रीय आय के पांचवां हिस्से पर (22 प्रतिशत) 1 प्रतिशत “सुपर रिच” का कब्जा है और इसमें निचले स्तर पर जी रही लगभग आधी आबादी के हिस्से को कुल जमा 13 प्रतिशत ही मिल पाता है।

भारत में एक वयस्क की औसत आय 2 लाख 4200 रूपए है वहीं आम 50 प्रतिशत लोग 53,610 रुपए सालाना कमा पाते हैं जबकि ऊपरी तबके के 10 प्रतिशत लोगों की अमदनी 11 लाख 66.520 रुपए है। यह रिपोर्ट पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की विश्व असमानता लैब में सहनिर्देशक जाने-माने अर्थशास्त्री लुकास चैनेल, थॉमस पिकेटी सहित दुनिया के प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों ने तैयार की है।

ऑक्सफैम इंटरनेशनल द्वारा जारी की गई असमानता वायरस रिपोर्ट (The Inequality Virus Report) में कहा गया है, “कोविड-19 ने भारत और दुनिया भर में मौजूदा असमानताओं में अत्यधिक वृद्धि की है।” कोरोना के कारण दुनिया में 16 लाख लोगों की मौत हो चुकी है और आर्थिक संकट के चलते कई कारोबार बंद हो गए और लाखों नौकरियां चली गईं। लेकिन दुनिया के 60 प्रतिशत से ज़्यादा अरबपति साल 2020 में और अमीर हो गए हैं और इनमें से पांच अरबपतियों की कुल दौलत 310.5 अरब डॉलर हो गई है।

भारत में जिस समय करोना और लाॅकडाउन के कारण बेरोजगार-बेघर होकर हजारों लोग मीलों पैदल पलायन कर रहे थे, अरबपतियों की सूची में नए 40 लोग शामिल हो रहे थे। इस सूची में उन लोगों को जगह मिलती है, जिनकी दौलत 1 अरब डाॅलर (करीब 7,300 करोड़ रुपये) से अधिक होती है। इनमें सबसे अधिक दौलतममंद मुकेश अंबानी और सबसे तेज गति से अमीर बने अरबपति गौतम अडानी तो हैं ही। ‘‘देश के दस फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का करीब 80.7 फीसदी है जबकि 90 फीसदी आबादी के पास कुल संपत्ति का महज 19.3 फीसदी है।’’ रिपोर्ट का संपादन प्रोफेसर टी. हक और डी. एन. रेड्डी ने किया है और इसमें 22 अध्याय हैं जिन्हें विख्यात अर्थशास्त्रियों और अन्य सामाजिक विज्ञानियों ने लिखा है।

मानवाधिकारों पर हमला

बढ़ते आर्थिक-राजनीतिक संकट, भूख, गरीबी. बेरोजगारी, महंगाई और अभाव के कारण जन विक्षोभ और आक्रोष तेज हो रहा है। इसे कुचलने के लिए सत्ता निरंतर निरंकुश और दमनकारी हो रही है। ऐसे में नागरिक व मानवाधिकारों की हिफ़ाजत के लिए नई चुनौतियां सामने हैं।

“द इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट” की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत 2019 के लोकतंत्र सूचकांक की वैश्विक सूची में 10 स्थान लुढ़क कर 51वें स्थान पर आ गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद द्वारा मोदी सरकार के शासन में भारत में लोकतंत्र, नागरिक व मानवाधिकारों के हनन पर रिपोर्ट जारी की गई है।

ग्लोबल स्टेट ऑफ डेमोक्रेसी रिपोर्ट के अनुसार “दुनिया में लोकतंत्र का सबसे अधिक हनन एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हो रहा है और इसमें भारत, इंडोनेशिया और श्रीलंका सबसे आगे हैं। इन देशों में बहुलवाद और धार्मिक-जातीय विविधता को तेजी से खत्म करने की कोशिश हो रही है। धार्मिक उन्माद को राष्ट्रवाद का जामा पहना कर पेश किया‌ जा रहा है, सत्ता का केन्द्रीकरण हो गया है और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा भड़काई जा रही है।”

इस रिपोर्ट की प्रस्तावना भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी ने लिखी है। रिपोर्ट में कहा गया है “पिछले वर्ष कोविड 19 वैश्विक महामारी ने सरकारों को लोकतंत्र कुचलने का एक नया हथियार दिया है। सामान्य कानून प्रणाली को खोखला करना और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक सरकारें कर रहीं हैं। जिन देशों में तथाकथित लोकतंत्र है, वहां पर सरकारें इससे पीछा छुड़ाने में व्यस्त हैं, अब तो भारत, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका जैसी वैश्विक आर्थिक और राजनैतिक शक्तियां भी इसी राह पर चल पड़ी हैं।”

देश में सरकार मावाधिकारों को नए सिरे से परिभाषित करने का प्रयास कर रही है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने 12 अक्टूबर, 2021 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के 28वें स्थापना दिवस कहा, “मानवाधिकारों के नाम पर कुछ लोग देश की छवि खराब करने की कोशिश करते हैं।” राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने कहा, “बाहरी ताकतों के इशारे पर भारत पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाना नया नियम बन गया है।” उन्होंने इस अवसर पर गृह मंत्री अमित शाह का यशगान इन शब्दों में किया “आपके प्रयासों से जम्मू-कश्मीर और देश के उत्तर-पूर्वी हिस्से में अब ‘शांति और कानून व्यवस्था’ का एक नया युग शुरू हो गया है।” इस “नए युग” की एक झलक हाल ही में नागालैंड में 6 निर्दोष कोयला मजदूरों की सुरक्षा बलों द्वारा कि गई हत्या में देखी जा सकती है।

राजद्रोह, यूएपीए, रासुका जैसे दमनकारी कानून और अफस्पा जैसे कानून जो सुरक्षा बलों को देश के प्रचलित कानून से उन्मुक्त करते हैं, अविलम्ब समाप्त किए जाने चाहिए। मानवधिकारों के प्रति सरकार के नज़रिए की गम्भीरता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के वक्तव्य से और अधिक स्पष्ट होती है। प्रशिक्षु आईपीएस अधिकारियों के 73वें बैच के दीक्षांत समारोह में डोभाल ने नागरिक अधिकार संगठनों के दमन का एजेण्डा पेश करते हुए इन्हें राष्द्रोही दुश्मन की तरह बरतने की नसीहत देते हुए कि नौकरशाहों से कहा,” पारंपरिक युद्ध जिस राजनीतिक या सैन्य मकसद को हासिल करने के लिए लड़े जाते थे उसकी जगह सिविल सोसाइटी जंग का मैदान और हथियार बनेंगे इसे फोर्थ जनरेशन ऑफ वॉरफेयर कह सकते हैं।.. एक पुलिस अधिकारी की भूमिका अब कानून की रक्षा, हिफाजत या अमल तक ही नहीं बल्कि ‘राष्ट्र निर्माण’ में भी है।”

गुजरात के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अब उत्तर प्रदेश को हिंदुत्व की राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में चुना है। योगी आदित्यनाथ को इसकी कमान सौंपी गई है। ‘लव जेहाद’ के नाम पर जीवन साथी चुनने के महिला अधिकारों पर पहरेदारी, शत्रु संपत्ति के नाम पर अलपसंख्यकों का दमन, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए मथुरा-काशी का मुद्दा उछालना आदि इसी कड़ी के अंग हैं। 2021 में ईसाइयों पर सबसे अधिक हमले (66) उत्तर प्रदेश में हुए हैं (पूरे देश में 305 हमलों की रिपोर्ट है)। मार्च 2017 में भाजपा केे सत्तारूढ़ होने के बाद प्रदेश में “ठोको राज” के नाम पुलसिया कहर बरपा रखा है। 8,472 कथित मुठभेड़ की 3,200फायरिंग वारदातों में 146 लोग मर चुके हैं और 3,302 विकलांग हो गए हैं। इसके बावजूद तथ्य यह है कि उत्तर प्रदेश अपराध, खासकर हत्या के अपराध के मामलों में सबसे आगे है।

पुलिस राज का एक उदाहरण गोरखपुर में कानपुर के व्यवसायी मनीष गुप्ता की अवैद्य वसूली के लिए हत्या का मामला है। महिलाओं एवं दलितों के खिलाफ अपराध की स्थिति हाल ही में प्रकाशित राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2019 में महिलाओं एवं दलितों के खिलाफ अपराध के कुल 405,861 दर्ज मामलों में से सर्वाधिक 14.7 फीसदी (59,853) उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए थे। हाथरस में दलित युवती के साथ सामुहिक बलात्कार के बाद मृतका की लाश को पुलिस द्वारा जबरन जलाने की विभत्स घटना के बाद भी बलात्कार की घटनाएं रुकी नहीं हैं।

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट 2020 में बताया गया है “यूपी में हर 2 घंटे में एक महिला के साथ बलात्कार और हर 90 मिनट में बच्चों के बलात्कार मामला दर्ज किया जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला जा रहा है, सत्ता समर्थक गोदी मीडिया है तो सवाल उठाने वालों पर राजद्रोह व यूएपीए जैसे दमनकारी कानूनों के इस्तेमाल की हालिया घटनाओं में पत्रकार विनोद दुआ का मामला है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट 2020 के अनुसार यूएपीए के तहत सबसे अधिक (361) गिरफ्तारियां उत्तर प्रदेश में हुई हैं, जबकि जम्मू कश्मीर में 346 को गिफ्तार किया गया है। प्रधानमंत्री “राजनीति से प्रेरित और मावाधिकार कर्मियों पर “सलेक्टिव” होने का आरोप लगा रहे हैं। “रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स” की एक रिपोर्ट में कहा गया है, “भारत पत्रकारिता के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में शामिल है। इसी संस्था द्वारा जारी 2021 की वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत को 180 देशों में 142वां स्थान पर रखा गया था। वर्षों के संघर्ष से हासिल मजदूरों के अधिकार छीने जा रहे हैं। 44 श्रम कानूनों को कतर कर चार कानूनों में समेटा जा रहा है। संगठित होने, आंदोलन और हड़ताल करने के अधिकारों को रौंदा जा रहा है।

किसान आंदोलन पर योगी सरकार का नजरिया माफिया डाॅन केन्दीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र ‘टेनी’ के उन्मादी बयान और उसके बेटे द्वारा किसानों को गाड़ी से कुचलने के वहशी कारनामे से समझा जा सकता है। दरअसल, किसान आंदोलन ने आरएसएस/भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेन्डे की हवा निकाल दी है। मोदी सरकार को झुकना पड़ा है। कारपोरेट परस्त सरकार इस सरकार ने संसद में चर्चा‌ किए बगैर किसान विरोधी तीन कृषि कानून पारित किए, जिस तरह इस एेतिहासिक किसान अंदोलन का दमन, उसे खालिस्तानी और अनेक दुष्प्रचार किया गया था, लोकतंत्र के लिए शर्मनाक. लोकतांत्रिक व मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। दमनकारी राजसत्ता के विरोध में उभरते जन आंदोलन के साथ नागरिक व मानवाधिकारों के संघर्ष का नया दौर शुरू हो रहा है। जेएनयू, जामिया मिलिया समेत विश्वविद्यालयों के छात्र आंदोलन, नागरिकता संशोधन (सीएए/एनआरसी) विरोधी आंदोलन, काॅरपोरेट परस्त तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का एतिहासिक किसान आंदोलन इसकी मिसाल है।

दमन का बढ़ता दायरा

भूख, मुफ़लिसी, बेरोजगारी, अभाव के कारण बढ़ते जन विक्षोभ के साथ सत्ता अधिकाधिक स्वैच्छाचारी, दमनकारी और निरंकुश हो रही है। 1971 में बने “आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम” (MISA) और आपातकाल में “भारत सुरक्ष अधिनियम” (DIR) का दुरुपयोग सबने देख‌ा। 1980 में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून- रासुका (NSA), 1985 से 1995 तक दस साल “आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम” (TADA) के तहत सैकड़ों निर्दोषों को बरसों बिना आरोपपत्र पेश किए जेलों में सड़ाया गया। टाडा खत्म हुआ तो उसकी जगह 2002 में नया “आतंकवाद निरोधी अधिनियम” (POTA) आ गया। ये दोनों काले कानून समाप्त हुए तो ‘राजद्रोह” नाम से धारा 124ए और गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधनियम (UAPA) का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है। यूएपीए कानून 1967 में इंदिरागांधी के काल में बनाया गया था, नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल के दौरान यूएपीए संशोधन अधिनियम 2019 के जरिए इसे और अधिक सख्त व दमनकारी बना दिया गया है।

रासुका (NSA)

आपातकाल के बाद सत्ता से अपदस्थ इंदिरागांधी ने 1980 में फिर सत्ता में आने के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम से दमनकारी कानून बनाया। वर्तमान मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार इस कानून का जम करे दुरुपयोग कर रही है। रासुका के दुरुपयोग के ताजा मामलों में डाॅ. कफील खान और भीम आर्मी के नेता चन्द्र शेखर की गिरफ्तारियों के मामले खास चर्चा में रहे हैं। देश में 2017 और 2018 के दौरान रासुका के तहत करीब 1200 लोगों को हिरासत में लिया गया थ। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में रासुका के अंतर्गत सबसे अधिक गिरफ्तारियां हुई हैं। अल्पसंख्यकों और दलितों के खिलाफ इस कानून के तहत दमन के आरोप हैं। नागरिकता के लिए सीएए/एनआरसी आंदोलन के दौरान शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलने के लिए रासुका का जम कर बेजा इस्तेमाल हुआ।

फादर स्टेन स्वामी की मौत या न्यायिक हत्या

“राजद्रोह” के आरोप में बंद फादर स्टेन स्वामी की मौत के विरोध में पीयूसीएल राष्ट्रव्यापी अभियान चला रही है। झारखंड की खूंटी पुलिस ने स्टेन स्वामी समेत 20 लोगों पर राजद्रोह का मामले में आरोपी बनाया था। उनपर “अर्बन नक्सल” होने का भी आरोप था‌। वे रांची में पत्थलगढ़ी और विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के संस्थापक सदस्य थे। उनकी आयु 84 वर्ष थी, पार्किंसन रोग से ग्रसित थे। बीमारी के आधार पर भी उन्हें जमानत तक नहीं निली। ऐसी ही स्थिति में 90 प्रतिशत विकलांग और दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर जी. एन. साईंबाबा भी राजद्रेोह व अर्बन नक्सल आरोप में वर्षों से बंद हैं, उन्हें भी जमानत तक नहीं दी जा रही है।

ह्रदय रोग व अन्य बीमारियों से ग्रसित उच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता पीयूसीएल की राष्ट्रीय सचिव सुधा भारद्वाज को तीन साल जेल में विचाराधीन बंदी के रूप में बंद रखने के बाद न्यायालय ने इस आधार पर जमानत पर रिहा किया है कि उनके खिलाफ आरोप पत्र समय पर दाखिल नहीं हुआ था और इसके लिए अभियोजन को जिस अदालत से मोहलत दी थी वह उसके लिए वह अदालत अधिकृत नहीं थी। आईआईटी, खड़गपुर के प्रोफेसर व दलित चिंतक आनन्द तेलतुम्ड़े, नागरिक अधिकार कर्मी गौतम नौलखा. रोमा विल्सन,सोमासेन. प्रोफेसर हेनी बाबू आदि भी इसी तरह 16 समाजिक कार्यकर्ता व नागरिक अधिकारकर्मी राजद्रोह व अर्बन नक्सल के रूप में आरोपित हैं और बिना आरोपत्र, बिना जमानत जेलों में बंद हैं।

अफस्पा (AFSPA)

कानून ही नहीं दमनकारी तंत्र के दंत-नख भी तीक्ष्ण किए जा रहे हैं। इसका एक ज्वलंत उदाहरण अफस्पा (AFSPA) है। 1958 में अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय मिजोरम,नगालैंड को “अशांत क्षेत्र”घोषित करके वहां तैनात सैन्‍य बलों को इस कानून मातहत बेलगाम अधिकार दिए गए। 1972 में कुछ संशोधनों के बाद असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैंड सहित समस्त पूर्वोत्तर भारत में लागू किया गया था।1983 से 1997 तक 14 बरस तक यह कानून पंजाब और चंडीगढ़ में लागू कर दिया गया।1990 में जम्मू- कश्मीर को भी “अशांत क्षेत्र घोषित करके वहां भी इसे लागू किया गया है। इस कानून के तहत सशस्त्र बलों को मिली अत्यधिक शक्तियां उन्हें असंवेदनशील और गैर-पेशेवर बनाती हैं। उन पर फ़र्ज़ी एनकाउंटर, यौन उत्पीड़न आदि के भी आरोप हैं।

यह कानून मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के साथ नागरिकों के मूल अधिकारों का निलंबन करता है जिससे लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं। अफस्पा की समीक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में गठित पांच सदस्यीय समिति ने 6 जून 2005 को अपनी 147 पन्नों की रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी, ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून, 1958 को निरस्त करना चाहिये। यह कानून दमन का प्रतीक बन गया है’।”मणिपुर की मानवाधिकार कर्मी इरोम शर्मिला ने इस के विरोध में 16 साल तक अनशन किया था।

ऑपरेशन ग्रीन हंट

अर्द्ध सैन्य बलों का अभियान आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, और पश्चिम बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अत्यधिक पिछड़े, जनजाति बाहुल्य “लाल गलियारा” कहे जाने वाले इलाकों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उग्रवादी (नक्सलवादी) हिस्से के गैर संसदीय आंदोलन का दमन का अभियान है। सितम्बर 2009 से जारी इस दमन चक्र को 12 बरस हो रहे हैं। लगभग 3 लाख केन्द्रीय अर्द्ध सैन्यबल, विभिन्न राज्यों के सशस्त्र बल, कोबरा दल, लड़ाकू हेलीकाप्टर, सेटेलाइट फोन आदि आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के बावजूद यह सशस्त्र विद्रोह अगर 12 साल से अधिक समय से जारी है तो इसके जमीनी आधार को समझ कर वार्ता द्वारा चसमाधैान के प्रयास के लिए पूर्व केन्द्रीय मंत्री मणिशंकार अय्यर, ‘द आर्ट ऑफ लिंविग’’ के श्रीश्री रविशंकर, पूर्व आई आई एस अधिकारी. गांधीवादी व अदिवासियों के लिए लंबे समय से कार्यरत रहे डाॅ. बी. डी शर्मा, स्वामी अग्निवेश, एपीडीआर के नागरिक अधिकार कर्मी सुजात भद्र आदि अनेक लोग प्यास कर चुके हैं।

सांम्प्रदायिक एजेंडा : सीएए/एनमआरसी

दमनकारी कानूनों, दमनतंत्र को विकसित करने के अलावा लोकतंत्र को कमजोर करने की दिशा में साम्प्रदायिक विभाजनकारी कानून व उन्मादी हथकंडे पनप रहे हैं। इस क्रम में नागरिकता के लिए धार्मिक अधार की शुरुआत नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) नागरिकता पंजीयन रजिस्टर (NRC), धर्मान्तरण कानून या लव जेहाद का प्रपोगंडा, शत्रु संपत्ति कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है। समज में असहिष्णुता, माब लिंचिंग मतलब उन्मादी भीड़ जमा कर हत्या, दलितों व महिलाओं पर अत्याचार, जातिवाद, सांम्प्रदायिकता, बहुसंख्यकवाद और चुनावतंत्र के मकड़जाल में लोकतंत्र की सांसें घुट रही हैं। शासन-प्रशासन में जन भागीदारी के लिए कोई स्थान नहीं है। संसद में निरंकुश बहुमत के बल पर जन विरोधी कानून बन रहे हैं। लोक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में संसद की भूमिका सिमटती जा रही है। जन समस्याओं पर जन आंदोलन संगठित करने की जगह राजनीतिक दल स्वस्फूर्त आंदोलनों की पीठ पर सवार होकर सत्ता की मलाई चाटने की होड़ में लगे हैं। आज़ादी के आंदोलन के बल पर हासिल जनता के अधिकार एक के बाद एक छिनते जा रहे हैं। ऐसे में नागरिक अधिकारों की हिफाजत के संघर्ष की अहमियत बेहद बढ़ गई है।

“राजद्रोह” और यूएपीए

भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए एक दमनकारी कानून है। ब्रिटिशकाल में सरकार की मुखालफत, उसके खिलाफ जनअसंतोष भड़काना इस कानून के तहत “राजद्रोह” था। अब गोदी मीडिया ने इसका नया नामकरण “देशद्रोह” कर दिया है। यह वही कानून है जिसके तहत आज़ादी के आंदोलन के दौरान अनेक देशभक्तों को फांसी, कालापानी आदि सजाएं दी गई थी। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांघी तक को सरकार के खिलाफ लेख लिखने पर राजद्रोह कानून के अंतर्गत जेल भेजा गया था। गाधीजी ने अजाद भारत में इस कानून को समाप्त कीए जाने के लिए कहा था। 1951 में जवाहरलाल नेहरू ने इस कानून को “अप्रिय और व्यावहारिक” बताते हुए कहा था “हम इससे जितनी जल्दी छुटकारा पा लें उतना ही अच्छा है।”

कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में इस कानून को समाप्त करने का वायदा किया तो है परंतु जब वह सत्ता में रही उसने इस कानून का जम कर दुरुपयोग किया। लेखिका, समाकर्मी अरुंधति राय, कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनायक सेन आदि अनेक बुद्धिजीवियों सामाजिक कार्यकर्ताओं व नागरिक अधिकार के लिए सक्रिय लोगों पर राजद्रोह लगाया है। तमिलनाडु में कुंड़नकुलम नाभिकीय विद्युत परियोजना व इसके विस्तार को लेकर पर्यावरण रक्षा के लिए आंदोलन पर दमन व राजद्रोह के मुकदमे इसके उदाहरण हैं। 2012 में ही अपनी मांगों को लेकर हरियाणा के हिसार में जिलाधिकारी के दफ्तर के सामने धरने पर बैठे दलितों ने मुख्यमंत्री का पुतला जलाया तो उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा हुआ था। मनमोहन सिंह नीत “संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन” के राजकाल में 1910 से 1914 में “राजद्रोह” के इस कानून के तहत3762 व्यक्तियों को आरोपित किया गया था।

नरेन्द्र मोदी नीत “राष्ट्रीय जनवादी गठबंधन” सरकार के दौरान देश में 7130 लोगों को “राजद्रोह” के आरोप में आरोपित किया गया। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार 2015 में 30, 2016 में 35, 2017 में 51, 2018 में 70 और 2019 में 93 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए हैं। इसके अनुसार राजद्रोह के मामलों में 2016 से 2019 तक 160 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। हालांकि अदालतों द्वारा सजा दर बहुत कम मामलों (3.3 फीसदी) में हुई है। जाहिर है, राजद्रोह के अधिकतर मामलों में दोष सिद्धी तो दूर चार्जशीट तक नहीं दायर हो पाती है। जेएनयू के छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष व कम्युनिस्ट नेता कन्हैया कुमार पर राजद्रोह का मसला काफी चर्चित मसला रहा है जो आज भी अदालत में लंबित है। भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों या अन्य राज्य सरकारों जेएनयू के पीएचडी छात्र शारजील इमाम के खिलाफ, दूसरे, मुंबई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (‘टीआईएसएस’) के 50 छात्रों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाया है। शरजील के समर्थन में नारे लगाते हुए, और तीसरा, एक शिक्षक और एक महिला के खिलाफ, जिसके 6 साल के बच्चे ने सीएए-एनआरसी-एनपीआर के खिलाफ स्कूल के एक नाटक में भाग लिया था। इनमें से प्रत्येक उदाहरण सत्तावादी सरकार का राजद्रोह की आड़ में असहमति का गला घोंटने का एक भयावह उदाहरण है।

एनसीआरबी के 2019 में राजद्रोह के ज्यादातर मामले भाजपा या राजग शासित राज्यों में दर्ज किए गए थे। भाजपा शासित कर्नाटक में 22 , असम में अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में 11 और उत्तर प्रदेश में 10मामले 1919 में दर्ज हुए थे। नोएडा पुलिस ने कांग्रेस सांसद शशि थरूर सहित छह पत्रकारों पर सोशल मीडिया पोस्ट्स और डिजिटल प्रसारण राष्ट्रीय राजधानी में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हिंसा के लिए ज़िम्मेदार बताकर राजद्रोह का मामला दर्ज किया था। यहां अक्टूबर 2020 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने केरल के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन और तीन अन्य लोगों पर राजद्रोह सहित विभिन्न आरोपों में मामला दर्ज किया. कप्पन एक हाथरस में दलित बाजिका के सामूहिक बलात्कार मामले की रिपोर्ट करने के लिए जा रहे थे।

मजदूर अधिकारों पर हमला

श्रमिकों के अधिकारों संबंधी कानूनों में फेरबदल करके 44 श्रम कानूनों को समाप्त करके चार श्रम कानून- मजदूरी संहिता, औद्योगिक सुरक्षा व कल्याण संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और औद्योगिक संबंध संहिता में सीमित किया गया है। इस दिशाा में 2002 में द्वितीय राष्ट्रीय श्रम आयोग ने उद्योगों, व्यवसायों और क्षेत्रों में 100 राज्य कानूनों एवं 40 केंद्रीय कानूनों को समेकित करने का सुझाव दिया गया था। ये नए कानून मजदूरों को संगठित होने, यूनियन बनाने, आंदोलन व हड़ताल करने के अधिकार में बाधक हैं। मजदूरों की छंटनी, ठेका मजदूरी की खुली छूट के साथ काम के घंटों की सीमा और कार्यस्थल निरीक्षण की पूरी प्रणाली को खत्म किया गया है। न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटे जेसे मूल विषयों पर भारी अस्पषटता है। इस प्रकार आज़ादी के आंदोलन और उसके बाद दशकों के संघर्ष से हासिल श्रमिकों के अधिकारों को छीन लिया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। श्रमिकों का 80 प्रतिशत से अधिक असंगठित क्षेत्र में है। संगठित क्षेत्र में भी काम के घंटे बढ़ए जा रहे हैं, असंगठित क्षेत्र में काम के घंटे, बालश्रम, बीमा, स्वास्थ्य श्रम कल्याण, संगठित होने आदि अधिकार प्राय: हैं ही नहीं। उत्तर प्रदेश सरकार ने तो आवश्यक सेवा अनुरक्षण अधिनियम(एस्मा) के अंतर्गत सभी सरकारी सेवाओं में हड़ताल निषिद्ध कर दी है। सरकार इसके अंतर्गत किसी भी कर्मचारी को बिना वारंट गिरफ्तार कर सकती है। रक्षा आयुध फेक्टरियों के कर्मचारियों को संगठित होने, आंदोलन व हड़ताल करने का अधिकार ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 और औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 में हासिल है। केन्द् सरकार ने आवश्यक रक्षा सेवा अध्यादेश के जरिए रक्षा उत्पादन से जुड़े संस्थानों को आवश्यक रक्षा सेवा (Essential Defence Services) की श्रेणी में लाकर इस क्षेत्र में श्रमिकों के हड़ताल के अधिकार को समाप्त कर दिय है। अब हड़ताल करने व उसमें शामिल रहने वाले कर्मचारियों को एक वर्ष की कैद और 10 हजार जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं। ऑर्डेनेन्स फैक्ट्री बोर्ड (ओएफबी) से जुड़े कारखानों में 80,000 कर्मचारी हैं। वर्कलोड, ओवरटाइम की कटौती, फैक्ट्रियों के उत्पाद को नॉन कोर घोषित किए जाने, ईएमई और एबीडब्ल्यू में जीओसीओ व्यवस्था लागू करने तथा रक्षा उत्पादन विभाग के बजट में कटौती,ओएफबी का निगमीकरण करके इसका विखंडन, निजीकरण को बढ़ावा देने आदि मुद्दों को लेकर कर्मचारी आंदोलित है।

किसान आंदोलन और तीन कृषि कानून

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन एक वर्ष महीने से निरंतर चला। आरएसएस/ भाजपा ने आंदोलन पर खालिस्तानपंथी, माओवादी, देशद्रोही आदि ब्रांड करने की कोशिश की। दमन किया, बेरीकेड लगाए, खाइयां खोद कर तथा सड़कों पर कीलें गाड़कर अवरुद्ध करने का हर संभव प्रयास किया परंतु असफल रहने के बाद अंत में प्रधान मंत्री नरंन्द्र मोदी को अंदोलनकारी किसानों की मांग मानकर काॅरपोरेट परस्त, किसान विरोधी तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा। लोकतंत्र में कानून बनाने से पहले संबंधित पक्षों से सलाह-मशविरा, संसद में चर्चा करके कानून बनाए जाने चाहिए। इसकी जगह इन तीन कानूनों को संसद में हासिल बहुमत के बल पर जिस मनमाने तरीके से पारित किया गया वह स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्परा नही है। इन कानूनों के जरिए संबंधित मामलों में जिला न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को भी सीमित किया गया था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।)

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