मोदी न्यायः कोयला खदानें बेचने के विरोध में 3 दिन की हड़ताल के बदले 8 दिन की मज़दूरी कटेगी

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निजीकरण के विरुद्ध कोयला खनिकों की तीन दिन की हड़ताल पर 8 दिन की मजदूरी काटने की सजा मोदी सरकार ने दी है।

इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार, कोल इंडिया की अनुषांगिक कंपनी महानदी कोलफ़ील्ड्स ने एक नोटिस जारी कर कहा है कि जो काम पर मौजूद होने की बजाय हड़ताल में शामिल हुए उनकी आठ दिन की मज़दूरी काटी जाएगी।

इसमें कहा गया है कि हड़ताल के दौरान 22 हज़ार वर्करों में 80 प्रतिशत काम पर नहीं हाज़िर नहीं हुए थे।

पहले मनमाने तरीक़े से 41 कोयला ब्लॉकों को निज़ी कंपनयों को बेचने के फैसला कर और अब हड़ताल पर जाने वालों पर ज़ुर्माना लगाकर मोदी सरकार ने अपना रुख़ स्पष्ट कर दिया है।

लेकिन मोदी सरकार के इस फैसले ख़िलाफ़ चौतरफ़ा विरोध तेज़ होने लगा है। एक तरफ़ कोल इंडिया और सिंगरेनी कोलियरीज कंपनी लिमिटेड के मज़दूरों ने दो जुलाई से तीन दिवसीय देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था और इसमें केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने भी अपना समर्थन दिया था।

दूसरी तरफ़ छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य क्षेत्र के नौ गांवों के सरपंचों ने मोदी को चिट्ठी लिख कर चिंता जताई है और झारखंड के आदिवासी संगठन भी कमर कस चुके हैं।

विरोध हुआ तो मोदी खुद सामने उतर आए

सरकार का तर्क है कि इन कोयला खदानों को निजी कंपनियों के हवाले करने से अगले पांच सालों में 33,000 करोड़ रुपये का निवेश आएगा।

लेकिन ट्रेड यूनियनों का कहना है कि इससे कोयला खनन क्षेत्र में भारत की आत्मनिर्भरता ख़त्म हो जाएगी और सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली उत्पादन इकाईयां निजी कंपनियों की ग़ुलाम हो जाएंगी।

सेंट्रल माइन प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट को कोल इंडिया से अलग करने का भी विरोध किया जा रहा है। यह कोल इंडिया की अनुषंगी है और तकनीकी परामर्श से जुड़ी कंपनी है।

आम तौर पर केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के बुलाई हड़ताल पर आगे पीछे करने वाली आरएसएस से जुड़ी यूनियन भारतीय मज़दूर संघ ने आश्चर्यजनक रूप से हड़ताल में शामिल रही।

कोयला खनन क्षेत्र की ट्रेड यूनियनों ने 10 और 11 जून को भी मोदी सरकार के फैसले का विरोध किया था लेकिन खुद मोदी सामने आए और 18 जून को नीलामी का विधिवत उद्घाटन किया।

इससे स्पष्ट हो गया था कि मोदी सरकार कोरोना के समय लॉकडाउन का फ़ायदा उठाकर कोर सेक्टर की सार्वजनिक कम्पनियों को बेच देने का मन बना चुकी है। इसीलिए यूनियनें भी आर पार की लड़ाई का मूड बना चुकी हैं।

शायद यही कारण छा कि तीन जुलाई को 10 केंद्रीय ट्रेड यूनयिनों ने श्रम क़ानूनों को ख़त्म किए जाने, महंगाई, आसमान छूते पेट्रोल और डीज़ल के दामों पर देश व्यापी प्रदर्शन का आयोजन किया था।

लेकिन ऐसा नहीं लगता कि प्रचंड बहुमत पर सवार मोदी सरकार इन प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शनों से पीछे हटने वाली है।

बिना आर पार की लड़ाई के कुछ नहीं बचेगा

मज़दूर केंद्रित पत्रिका यथार्थ के संपादक मुकेश असीम लिखते हैं कि यूनियनों को भी संघर्ष को प्रतीकात्मक और अलग-अलग के बजाय व्यापक आम संघर्ष में बदलना होगा।

कोयला ही क्यों, रेलवे, रोडवेज से अस्पताल, शिक्षा, डाक, बैंक-बीमा तक सभी निजी किए जा रहे हैं।

इन सबको सामूहिक संघर्ष में जुटना होगा। साथ में इनमें काम न करने वाले आम लोगों का भी समर्थन हासिल करना होगा।

क्योंकि निजीकरण सिर्फ इनमें काम करने वालों के ही नहीं पूरे समाज के विरुद्ध है। अलग-अलग संघर्ष से काम नहीं चलेगा।

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