जब मार्क्स और अम्बेडकर की वैचारिक ज़मीन एक, फिर इनके अनुयायी एक क्यों नहीं? – नज़रिया

marx and ambedkar

By लखमीचंद प्रियदर्शी

सामान्यतः यह देखा जाता है कि लोग अमीर हों या ग़रीब, ताकतवर हों या कमज़ोर, गोरे हों या काले या अन्य किसी रंग के, वे प्रत्येक जगह उन चीजों का के उत्पादन और वितरण में सहयोग करते हैं, जो जिंदगी जीने के लिए ज़रूरी हैं।

किसी भी प्रकार के उत्पादन और वितरण के लिए मूलतः दो बातों का होना जरूरी है:-
1* जमीन ,खदान ,कच्चा माल ,मशीन ,फैक्ट्री जिसे अर्थशास्त्री ‘उत्पादन के साधन’ कहते हैं।
2* श्रमजीवी- या मजदूर जो अपने श्रम और हुनर को उत्पादन के साधनों के साथ काम में लाते हैं और जरूरत की चीजों का उत्पादन करते हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन के साधन सार्वजनिक संपत्ति नहीं होते।और उनपर व्यक्तियों यानी पूंजीपतियों का मालिकाना हक होता है।साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि उत्पादन के साधनों पर आपका स्वामित्व होना या न होना ही समाज में किसी व्यक्ति की हैसियत तय करता है।

यदि कोई व्यक्ति उत्पादन के साधनों पर मालिकाना हक वाले छोटे से समूह या पूंजीपति वर्ग से संबंधित हैं तो वे बिना काम किये भी जी सकते हैं।इसके विपरित उत्पादन के साधनों पर मालिकाना हक न रखने वाले समूह यानी मेहनतकश मजदूर वर्ग बिना काम किए जिंदा नहीं रह सकता है।

पूंजिपतियों की आय दूसरों लोगों को अपने लिए काम करने का अवसर देकर होती है, जबकि मेहनतकशों की आय ,उसके द्वारा

किए गये काम के बदले मंजूरी या मेहनताना के रूप में होती है। ये भी सर्वमान्य है कि जीवन जीने के लिए जरूरी चीजों के इंतजामातों हेतु उनके उत्पादन के लिए श्रम आवश्यक है।फिर समस्या है कि मेहनतकशों को मेहनत के हिसाब से मेहनताना न मिलना। पूंजीवादी समाज में मुनाफा ही पहिये घुमाते रहने का काम करता है।

एक चालाक व्यापारी वहीं है, जो किसी चीज को खरीदने के लिए कम से कम कीमत अदा करे और जो चीज़ वह बेचता है उसका ज्यादा से ज्यादा कीमत वसूल करे। खर्चों को कम करना, ऊंचा मुनाफ़ा कमाने का पहला कदम है। उसकी दिलचस्पी होती है कि मज़दूर को कम से कम भुगतान करके ज्यादा से ज्यादा काम लेना।

उत्पादन के साधनों के मालिकों और उनके लिए काम करने वाले श्रमिकों की स्थिति एकदम विपरीत धुवीय है। पूंजीपतियों के लिए दौलत का स्थान पहला और इंसानियत का दूसरा। जबकि मज़दूर वर्ग मानवता को पहले और संपत्ति को दूसरे स्थान पर रखते हैं।

इसी कारण पूंजीवादी व्यवस्था में दोनों विपरीत ध्रुवीय वर्गों में सदैव से संघर्ष होता आया है। क्योंकि सदियों से ही उत्पादन के संसाधनों पर, चाहे राजतंत्रीय हो, सामंतवादी हो या पूंजीवादी सभी में, कब्ज़ा ताक़तवरों का रहा है, शोषकों का रहा है।

दुनिया में बड़े बड़े बदलावों के संघर्षों का इतिहास साक्षी है। भारत के संदर्भ में ऐसी ही बदलाव की सर्वप्रथम नींव अर्थात क्रांति ‘सांघिक संपत्ति संसाधनों और उनके उपयोग के लिए सबका बराबरी का हक की कार्ययोजना गौतम बुद्ध के द्वारा व्यवहारिक रूप में लागू कर दी गई थी।

किंतु क्रातियों के ख़िलाफ़ भी हमेशा प्रतिक्रांतियां होती रही हैं, क्योंकि ठहराव प्रकृति का नियम नहीं है, बदलाव हमेशा होता ही रहता है। इंसानियत ही हमेशा जीवनदायिनी रही है, जो हमें सही सिद्धांतों के मार्ग की ओर ले जाती है।

दुनिया में एक बार फिर उसी विचार को साकार करने का कार्य किया था क्रांतिकारी विचारक और ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद ‘के प्रणेता कार्ल मार्क्स (जन्म -5 मई 1818 त्रियेर ,–जर्मनी-मृत्यु – 14मार्च 1883 लंदन यूनाइटेड किंगडम) ने। उसके यथार्थवादी सिद्धांतों ने दुनिया के मेहनतकश मजदूरों को पूंजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ तार्किक तथ्यात्मक रास्ता दिखाया।

1917 की रूसी क्रांति और उसके बाद हुए बदलावों ने दुनिया में खलबली ही नहीं मचायी बल्कि काफी देशों मे सफलतापूर्वक शासन चलाकर भी दिखाया है।

आजादी के बाद भारत ने पूंजीवादी और साम्यवादी के बीच का रास्ता अपनाया था और ये उम्मीद जताई कि भारत कल्याणकारी राज्य के रूप में उभरेगा और भेदभावपूर्ण व्यवहार को धीरे-धीरे खत्म कर देगा।

डॉक्टर बीआर अम्बेडकर ने समाजवादी व्यवस्था की वकालत की थी किन्तु अन्य ज्यादातर नेता पूंजीवादी, सामंतवादी और राजतंत्रीय व्यवस्थाओं के वंशानुगत गुणों को बनाये रखकर उत्पादन के संसाधनों के बराबर वितरण पर जनता के हक़ के पक्षधर नहीं थे, क्योंकि उत्पादन संसाधनों पर तो उनका ही कब्जा था  ,तो फिर वे अपने एशो-आराम के संसाधनों में खलल क्यों डालते?

उनकी नेक नीयतें केवल मेहनतकश जनता को भरमाकर अपना उल्लू सीधा करना रहा। मेहनतकश को तो केवल उतना भर दिया गया, जितने भर में वह जोंकों की चाकरी करता रहे या अपना खून-पसीना उनसे चुसवाकर पूंजीवादी व्यवस्था को रक्त प्रदान करता रहे।

आज़ादी के बाद भारत में कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों के परिणामस्वरूप मेहनतकशों ने काफ़ी राज्यों में शासन प्रशासन बखूबी संभाला है, किंतु लम्बी रेस के घोड़े नहीं साबित हो सके क्योंकि भारत का मेहनतकश यहां सदियों की महामारी (ब्राह्मणवाद व उसके प्राणतत्व-जातिवाद ) से ग्रस्त रहा है, वह मेहनतकश बाद में जाति का श्रेष्ठताबोध उसके लिए सबसे पहले है ,फिर यहां तो पूरा भारत जातियों और उप जातियों में टुकड़े टुकड़े है, फिर वह एकजुटता करना ही सबसे मुश्किल काम है।

आज़ादी के बाद स्थापित सरकारीकरण और सहकारिता आधारित उत्पादन संसाधनों को, जिन्होंने सदैव से हाशिए पर रहे वंचित समुदायों को आर्थिक और सामाजिक रूतबा प्रदान किया था और वे चुनौती देने की स्थिति में आने लगे थे तो जोंकों के गठजोड़ों की आंख की किरकिरी हो गये, जिससे जोंकों ने बड़ी चालाकी से ग्लोबलाइजेशन की चाशनी में पगाकर, कल्याणकारी राज्य के भारतीय संविधान के सिद्धांतों को तिलांजलि देकर, पूंजीवादी व्यवस्था को बढ़ावा दिया।

लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के अनुरूप शैक्षिक संस्थानों चिकित्सीय संस्थानों, औद्योगिक संस्थानों, वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थानों जिन्होंने आजाद भारत की सामूहिक एकता ही नहीं, अपनी उपलब्धियों से विश्व में नाम कमाया है, उनकी बेशकीमती संपत्ति और संसाधनों को व्यापारी सरकारों ने पूंजीपतियों के हवाले करना शुरू कर दिया।

कहने का अर्थ ये कि भारत की जनता को पूंजिपतियों हवाले कर नयी तरह की गुलामी के मकड़जाल में सिसकने के लिए छोड़ दिया और सरकारें व्यापारी हो नफों और पूंजीपतियों की सौगातों पर शासन सत्यता को अपनी एशगाह बना लिया है।

सबसे दिलचस्प बात तो यह रही कि भारत की वर्तमान सरकार जो जनता कुछ दिन पहले तक 2022 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की व्यवस्था का सपना बेच रही थी, कोराना वायरस महामारी के संकटकाल में जनता के सामने ही भीख का कटोरा लेकर खड़ी हो गयी।

साथ ही मौजूं है, हवाई चप्पल पहनने वाले मेहनतकशों को हवाई जहाजों का सफर कराने का सपना बेचने वाली सरकार उनको संकटकाल में भी रेल या बस से सफ़र कराने से भी हाथ खींच लिए और हजारों किलोमीटर की पैदल यात्राओं को करने के लिए करोड़ों मेहनतकश मजदूरों को यों ही छोड़ दिया गया। जबकि अमीरों को विदेश से भारत लाने या भारत में कहीं फ्री में पहुंचाने के लिए हमेशा अपने संसाधनों सहित मुस्तैद दिखे।

पर कोराना वायरस के संघर्षों में चिकित्सकीय स्टाफ को देने के लिए संसाधनों का अभाव है, पर सेना के जहाजों से अस्पतालों के ऊपर फूल बरसाने के लिए धन है, जबकि ऑल इंडिया नर्सिंग एशोसियन ने शाम को सरकार से आह्वान किया कि वो फूल बरसाने के बजाय जरूरी साजो-सामान की व्यवस्था कराए।

उधर, देश के सीडीएस कह रहे कि सेना के फूल बरसाने वाले कार्य पर सवाल करने वाले बुद्धिहीन हैं। देश के सेनानायक को देश की जनता के हित संबंधी प्रश्नों को उठाने वालों का अपमान करने का हक किसने दे दिया है?

क्या भारतीय लोकतान्त्रिक मूल्यों का अवमूल्यन नहीं है, क्या यह जनता का अपमान नहीं है? वे देश के सेनानायक हैं, किसी पार्टी के प्रवक्ता नहीं।

जब सेना के जहाजों से फूल बरसाए जा रहे थे, तो भारत की सेना के चार जांबाजों और एक पुलिसकर्मी की शहादत भी हुई थी। यह तो साबित हो रहा है कि बुद्धिहीन कौन है? सरकारें मजदूरों को खाना तक नहीं खिला पा रहीं हैं, बल्कि उन्होंने हाथ खड़े कर दिए हैं, राज्य केन्द्र से अपने हिस्सों की धनराशि जारी करने की मांग कर रहे हैं, आपदा धनराशि तो अलग से रही।

लेकिन केंद्र और राज्यों की सरकारों में समन्वय कहीं दिखता ही नहीं नज़र आ रहा। पूरा देश अराजकता के अन्धकूप में डूबा हुआ या कैद है। सरकार का विरोध करने या व्यवस्थाओं पर सवाल खड़े करने वालों को पुलिस डंडों से शांत करने की कोशिश की जाती है या उन्हें देशद्रोही ठहराया जाता है।

पूरा देश जैसे दो धुरों में बंटा है किन्तु समाधान कहीं नहीं है। शायद समाधान तो तब निकले जब हम समस्याओं को ईमानदारी के साथ स्वीकार करें।

मेहनतकशों का इतना अपमान और महापलायन शायद कभी हुआ हो, साथ ही वर्तमान में भी कोरोनावायरस महामारी संकट में भी दुनिया में कहीं नहीं हुआ दिखाई दिया है, जितना वर्तमान में भारत में।

वह व्यवस्थाओं पर प्रश्न करने की बजाय अपने जख्मों के साथ फिलहाल तो अपनों को साथ लिए अपने कंधों पर पोटलियों और बच्चों तथा बड़े बूढों को लिए निरीह सा चला जा रहा है, जहां के उत्पीडन और रोजगार संसाधनों के अभावों के कारण प्रवासी बना था।

ये क्या अब उसका उत्पीड़न नहीं करेंगे क्या? जबकि आज भी डॉक्टर अम्बेडकर के शब्दों में कहें तो ‘भारत के गांव उत्पीड़न के हौज ‘हैं। फिर मेहनतकशों का तो देश वहीं है जहां उसकी रोजी-रोटी कमाने का जुगाड़ हो जाए। पलायन हो होना ही है किन्तु अपमान और दुर्दशा के साथ न हो। सबका आत्मसम्मान होता है। मेहनतकश का भी आत्मसम्मान है। उसके आत्मसम्मान पर आघात उसे और देश को भी कहीं का नहीं छोड़ेगा।

सवाल है कि व्यापारी सरकारों से मेहनतकशों की मुक्ति के प्रणेताओं (डॉक्टर अम्बेडकर और कार्ल मार्क्स के अनुगामियों) उनके हको-हकूक की ख़ातिर क्या एकजुटता के साथ क्रांतिपथ पर नहीं चल सकते?

जबकि आप दोनों के लक्ष्य एक ही है मेहनतकशों और वंचितों को हक दिलाना। दोनो ही मानवता के पक्ष में हैं। ज़रूरत है एकजुटता की।

वर्तमान परिस्थितियों ने जमीन और खाद-पानी उपलब्ध करा दिया, भारत की जनता को तो देखना है आपके एक होने के हुनर को।

दोनों की नयी पीढ़ीयां क्रांति के इस मूल को समझ रही हैं। कार्ल मार्क्स के सिद्धांत वास्तव में भारत में ज़मीनी परिवर्तन के लिए आवश्यक हैं इससे नकारा नहीं जा सकता। समय की पुकार हैं ये।

(लेखक प्रखर अम्बेडकरवादी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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