क्या किसान यूनियनों का चुनाव में उतरना भारी गलती है?

darshan pal farmers leader

संयुक्त किसान मोर्चे का हिस्सा रहे 22 किसान यूनियनों का पंजाब चुनाव में उतरना क्या भारी गलती साबित होने जा रहा है? क्या इस फैसले से किसान एकता में दरार पड़ी है।

संयुक्त किसान मोर्चे के कोआर्डिनेटर और क्रांतिकारी किसान यूनियन के नेता डॉ. दर्शन पाल ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक आर्टिकिल में ये बातें लिखी हैं।

रविवार को आया यह लेख डॉ. दर्शन पाल और किसान आंदोलन में सक्रिय रहे पीएचडी स्कॉलर हैप्पी हरिंदर ने संयुक्त रूप से लिखा है।

हालांकि पंजाब के सबसे बड़े संगठन बीकेयू एकता उग्रहां, बीकेयू क्रांतिकारी, क्रांतिकारी किसान यूनियन, बीकेयू एकता डकौंदा, कीर्ती किसान यूनियन, बीकेयू एकता सिद्धूपुरसमेत 21 संगठन चुनाव में शामिल नहीं हैं।

लेख के अनुसार, किसान यूनियनों द्वारा चुनाव में हिस्सेदारी करना बहुत अदूरदर्शिता भरा कदम है और चुनाव में उसके अच्छा करने की संभावना बहुत ही कम है।

डॉ. दर्शन पाल के अनुसार, संयुक्त समाज मोर्चा (एसएसएम) चुनाव में हिस्सेदारी करने वाली यूनियनें उन राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को अपना टिकट दे रही हैं, जो किसान आंदोलन के प्रति विरोधी बयानबाज़ी करती रही हैं।

उनका कहना है कि पूरे किसान आंदोलन में राजनीतिक दलों से दूरी बनाए रखना ही इस आंदोलन की ताक़त रही है और चुनाव में उतरने से किसानों की व्यापक एकता को भारी नुकसान पहुंचा  है।

किसान आंदोलन के दबाव में मोदी सरकार पीछे हटी और कई राज्य सरकारों ने कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित किए हैं। हालांकि ये प्रस्ताव कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है और ऐसे में अगर संयुक्त समाज मोर्चा सरकार बना भी लेती है तो कृषि क़ानूनों को लेकर वो इससे ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी।

अतीत में चुनाव में उतरने वाले किसान संगठनों के हश्र का भी इस लेख में जिक्र किया है और कहा है कि ये सबक भी बहुत अच्छा नहीं रहा है।

पंजाब के किसान नेता अजमेर सिंह लखोवाल और भूपिंदर सिंह मान जब चुनाव में गए तो जनता ने उन्हें पूरी तरह नकार दिया। इस प्रक्रिया में उन्होंने अपनी यूनियन का समर्थन भी खो बैठे।

ऐसा लगता है कि संयुक्त समाज मोर्चा भी कृषि क्षेत्र के हर सेक्शन मसलन खेतिहर मजदूर, महिलाएं, ग्रामीण कामगार को अपने साथ लेने में असफल दिखाई देता है।

इसके अलावा कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन करने वाले किसान पहले से ही अलग अलग राजनीतिक पार्टियों से जुड़े रहे हैं। आंदोलन ने उन्हें राजनीतिक पार्टियों से ऊपर उठकर राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने में उनकी मदद की थी, लेकिन अब वे फिर से अपने पुराने पार्टी फोल्ड में लौट जाएंगे और महज वालंटियर तक सिमट कर रह जाएंगे।

अंग्रेजी का मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.