प्रेमचंद के गोदान का वह होली प्रसंग, साहूकार ने जब कर्ज देने से पहले आधे पैसे काट लिए…

गोबर के द्वार पर भंग घुट रही है, पान के बीड़े लग रहे हैं, रंग घोला जा रहा है, फर्श बिछा हुआ है, गाना हो रहा है, और चौपाल में सन्नाटा छाया हुआ है। भंग रखी हुई है, पीसे कौन? ढोल-मजीरा सब मौजूद है, पर गाए कौन? जिसे देखो, गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा रहा है, यहाँ भंग में गुलाबजल और केसर और बादाम की बहार है। हाँ-हाँ, सेर-भर बादाम गोबर खुद लाया। पीते ही चोला तर हो जाता है, आँखें खुल जाती हैं। खमीरा तमाखू लाया है, खास बिसवाँ की! रंग में भी केवड़ा छोड़ा है। रुपए कमाना भी जानता है और खरच करना भी जानता है। गाड़ कर रख लो, तो कौन देखता है? धन की यही शोभा है। और केवल भंग ही नहीं है। जितने गाने वाले हैं, सबका नेवता भी है। और गाँव में न नाचने वालों की कमी है, न अभिनय करने वालों की। शोभा ही लंगड़ों की ऐसी नकल करता है कि क्या कोई करेगा और बोली की नकल करने में तो उसका सानी नहीं है। जिसकी बोली कहो, उसकी बोले – आदमी की भी, जानवर की भी। गिरधर नकल करने में बेजोड़ है। वकील की नकल वह करे, पटवारी की नकल वह करे, थानेदार की, चपरासी की, सेठ की – सभी की नकल कर सकता है। हाँ, बेचारे के पास वैसा सामान नहीं है, मगर अबकी गोबर ने उसके लिए सभी सामान मँगा दिया है, और उसकी नकलें देखने जोग होंगी।

यह चर्चा इतनी फैली कि साँझ से ही तमाशा देखने वाले जमा होने लगे। आसपास के गाँवों से दर्शकों की टोलियाँ आने लगीं। दस बजते-बजते तीन-चार हजार आदमी जमा हो गए। और जब गिरधर झिंगुरीसिंह का रूप भरे अपनी मंडली के साथ खड़ा हुआ, तो लोगों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। वही खल्वाट सिर, वही बड़ी मूँछें, और वही तोंद! बैठे भोजन कर रहे हैं और पहली ठकुराइन बैठी पंखा झल रही हैं।

ठाकुर ठकुराइन को रसिक नेत्रों से देख कर कहते हैं – अब भी तुम्हारे ऊपर वह जोबन है कि कोई जवान देख ले, तो तड़प जाए। और ठकुराइन फूल कर कहती हैं, जभी तो नई नवेली लाए!

‘उसे तो लाया हूँ तुम्हारी सेवा करने के लिए। वह तुम्हारी क्या बराबरी करेगी?’

छोटी बीबी यह वाक्य सुन लेती है और मुँह फुला कर चली जाती है।

दूसरे दृश्य में ठाकुर खाट पर लेटे हैं और छोटी बहू मुँह फेरे हुए जमीन पर बैठी है। ठाकुर बार-बार उसका मुँह अपनी ओर फेरने की विफल चेष्टा करके कहते हैं – मुझसे क्यों रूठी हो मेरी लाड़ली?

‘तुम्हारी लाड़ली जहाँ हो, वहाँ जाओ। मैं तो लौंडी हूँ, दूसरों की सेवा-टहल करने के लिए आई हूँ।’

तुम मेरी रानी हो। तुम्हारी सेवा-टहल करने के लिए वह बुढ़िया है।’

पहली ठकुराइन सुन लेती है और झाड़ू ले कर घर में घुसती हैं और कई झाड़ू उन पर जमाती हैं। ठाकुर साहब जान बचा कर भागते हैं।

फिर दूसरी नकल हुई, जिसमें ठाकुर ने दस रुपए का दस्तावेज लिख कर पाँच रुपए दिए, शेष नजराने और तहरीर और दस्तूरी और ब्याज में काट लिए।

किसान आ कर ठाकुर के चरण पकड़ कर रोने लगता है। बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपए देने पर राजी होते हैं। जब कागज लिख जाता है और असामी के हाथ में पाँच रुपए रख दिए जाते हैं तो वह चकरा कर पूछता है?

‘यह तो पाँच ही हैं मालिक!’

‘पाँच नहीं, दस हैं। घर जा कर गिनना।’

‘नहीं सरकार, पाँच हैं।’

‘एक रूपया नजराने का हुआ कि नहीं?’

‘हाँ, सरकार!’

‘एक तहरीर का?’

‘हाँ, सरकार!’

‘एक कागद का?’

‘हाँ, सरकार।’

‘एक दस्तूरी का?’

‘हाँ, सरकार!’

‘एक सूद का?’

‘हाँ, सरकार!’

‘पाँच नगद, दस हुए कि नहीं?’

‘हाँ, सरकार! अब यह पाँचों मेरी ओर से रख लीजिए।’

‘कैसा पागल है?’

‘नहीं सरकार, एक रूपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रूपया बड़ी ठकुराइन का। एक रूपया ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाकी बचा एक, वह आपकी करिया-करम के लिए।’

(उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास गोदान का एक अंश)

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.