मंडी व्यवस्था ख़त्म करने की मांग कभी किसान नेताओं ने ही उठाई थीः एमएसपी से खरीद गारंटी तक- 2

shard joshi mahendra tikait and charan singh

            By एमअसीम

अपनी फसल को जब चाहें जहां चाहें बेचने की मांग देश में निजीकरण की बयार शुरू होने के साथ ही शुरु हुई थी।

उस वक्त धनी-मध्यम किसान आबादी पूंजीवादी बाजार व्यवस्था को अपने विरुद्ध नहीं पाती थी बल्कि उसके उतार चढाव में अपना लाभ देखती थी और उसे पसंद करती थी।

यही 1970 से 1995 के दौर के किसान आंदोलनों में अभिव्यक्त होता था। उस दौर के चार सबसे बड़े किसान नेताओं – चौधरी चरण सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत, शरद जोशी और नंजुंदास्वामी के भाषणों, लेखों और वक्तव्यों के तर्कों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है।

उस दौरान उनका मुख्य तर्क था कि सभी माल विक्रेताओं की तरह किसानों को अपनी मनचाही जगह और मनचाहे दाम पर अपना माल बेचने की आजादी क्यों नहीं है?

अन्य सभी माल विक्रेता कहीं भी अपना माल बेच सकते हैं और वे खुद अपने माल के दाम तय करते हैं लेकिन किसान के माल के दाम मंडी का व्यापारी-आढ़तिया तय करता है या सरकार तथा किसान को खरीदार के तय किए दामों पर अपना माल बेचना पड़ता है।

हालांकि यह तर्क सही नहीं है क्योंकि अंततः सभी बाजार मालों के दाम माँग-आपूर्ति से परिचालित होते हैं।

इसलिये वे पुरजोर ढंग से माँग करते थे कि अन्य सभी उत्पादकों-विक्रेताओं की तरह किसानों को भी जब वे चाहें, जहाँ जिसे चाहें, जिस दाम पर चाहें, अपना उत्पाद बेचने की आजादी होनी चाहिये।

पहला भाग पढ़ेंः एमएसपी की शुरुआत कैसे हुई? एमएसपी से खरीद गारंटी तक- 1

संक्षेप में कहें तो उस दौर में धनी किसानों के आंदोलन मूलतः मुक्त व्यापार के हिमायती थे बशर्ते सरकार एमएसपीके रूप में उन्हें एक संकटमोचक बीमा पॉलिसी भी दे।

पर यहाँ सवाल उठेगा कि मोदी सरकार अपने तीन कृषि कानूनों के जरिये किसानों को मुक्त व्यापार की ठीक यही आजादी देने का दावा ही तो कर रही है।

तब आज किसान इसके खिलाफ क्यों उठ खड़े हुए हैं? वे इसे किसानों पर कॉर्पोरेट पूँजी का हमला और उनकी जमीन छीनने की साजिश बताते हुए दिल्ली की सरहदों पर क्यों जा बैठे हैं?

असल में पिछले तीन दशक में पूँजीवादी बाजार अपनी कुदरती गति से आगे बढा है और खासतौर पर नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तीन दशक तक चलने के बाद मुक्त व्यापार के हिमायती धनी-मध्यम किसानों का बडा हिस्सा पाता है कि वे खुद को पूँजीवादी बाजार के जिस तालाब की बडी मछली समझ छोटी मछलियों को हजम करने का सपना देख रहे थे वह तो राष्ट्रीय पूँजीवादी बाजार की झील से होते हुए अंतरराष्ट्रीय पूँजीवादी बाजार के महासागर में समा गया है और इसमें बडे-बडे मगरमच्छ और शार्क हैं जिनके सामने उनकी खुद की हैसियत शिकारी नहीं शिकार की है और बाजार के उतार चढाव सिर्फ गरीब किसानों को नहीं उनको भी बरबाद और दिवालिया करने वाले हैं।

अतः अब वे पूँजीवादी बाजार की इस कुदरती अग्रगति को रोक-पलट कर सरकार द्वारा निर्धारित ‘लाभकारी’ मूल्य पर सारी उपज की खरीद की गारंटी माँग रहे हैं।

पिछले तीन दशकों में कृषि में पूँजीवादी उत्पादन के विकास क्रम में अन्य उद्योगों की तरह ही अतिउत्पादन की समस्या खडी हो गई है- समाज की आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं बल्कि बाजार की माँग से अधिक उत्पादन।

विश्व खाद्य संगठन की रिपोर्ट कहती है कि भारत की 75% से अधिक जनता संतुलित पर्याप्त खाद्य सामग्री खरीदने में सक्षम नहीं है और जरूरत से कम खाकर काम चला रही है।

इसीलिये बडे पैमाने पर कुपोषण –अपोषण की शिकार पर खाद्य उत्पादन बाजार की माँग से अधिक हो गया है और सरकारी भंडार में लगभग आठ करोड़ टन अनाज भंडार इकट्ठा हो गया है।

बाजार में माँग से अधिक आपूर्ति के कारण किसानों के उत्पाद के दाम दुर्लभ ही ऊपर जाते हैं और एमएसपी से काफी नीचे रहते हैं ,हालांकि ग्रामीण शहरी उपभोक्ताओं के लिए उनके दाम बहुत ऊँचे बने रहते हैं।

पर अभी हम उस चर्चा में नहीं जायेंगे। यही वजह है कि एमएसपी आधारित सरकारी खरीद के प्रति किसानों का आकर्षण पिछले सालों में बढा है और पंजाब,हरियाणा, उत्तरप्रदेश ही नहीं मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे राज्यों में भी एमएसपी पर अनाज खरीद के लिए सरकारों पर दबाव बढा है और खरीद केंद्रों पर लंबी लाइनों की खबरें मीडिया में आती रही हैं।

यही वजह है कि हाल के वर्षों मेंरी तिका खेडा आदि शोधकर्ताओं ने पाया है कि फिलहाल एमएसपी का लाभ लेने वाले किसान 6% से बढकर 18 से 22% के बीच होने के अनुमान हैं।

उपरोक्त प्रवृत्ति ही किसान आंदोलन में मुक्त व्यापार के विरोध और ‘लाभकारी’ एमएसपी पर समस्त उपज की खरीद की गारंटी में परिलक्षित हो रही है।

पर इसका एक प्रभाव यह हुआ है कि छोटे सीमांत किसान जो अब तक एमएसपी का लाभ नहीं ले पाते थे वे भी इस माँग से आकर्षित हो रहे हैं।

एक तो किसी भी उत्पादक को उत्पाद के उच्च दाम स्वाभाविक तौर से ललचाते ही हैं चाहे उसे अंतिम तौर पर बहुत कम लाभ ही क्यों न हो(बिकाऊ उत्पाद की मात्रा बहुत कम होने की वजह से), दूसरे अभी छोटे सीमांत किसान भी कम उत्पादन के बावजूद बाजार में बिक्री के लिए आ रहे हैं चाहे उनका उत्पाद बहुत कम कई बार खुद के उपभोग से भी कम क्यों न हो। (क्रमशः)

(प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं। ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यूनिटी सहमत हो।)

(यथार्थ पत्रिका से साभार)

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