स्वतंत्रता आंदोलन के भुला दिए गए 15 नायक जिनसे कांपती थी अंग्रेज़ी हुकूमत: ‘द लास्ट हीरोज़’ का विमोचन

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By आमिर मलिक

कभी-कभी कोई एक ऐसी किताब आती है जो संग्रहालय से कम नहीं होती। ‘द लास्ट हीरोज़: फुट सोल्ज़र्स ऑफ इंडियन फ़्रीडम’ एक ऐसी ही किताब है।

इसकी एक-एक कहानी पर कई फ़िल्में बने, फिर भी फ़िल्में कम हो जाएँगी, कहानियाँ बाक़ी रहेंगी। कहानियाँ ही तो रह जाती हैं। हिंद के जाने-माने पत्रकार पालागुम्मी साईनाथ के क़लम से निकला एक-एक हर्फ़ जीते-जागते और चलते-फिरते इतिहास को सुनहरे पन्नों में क़ैद करता है।

‘द लास्ट हीरोज़: फुट सोल्ज़र्स ऑफ इंडियन फ़्रीडम’ का बीते सोमवार को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में विमोचन हुआ। यह किताब देश के अंतिम जीवित स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियों को आसान एवं आम बोलचाल की भाषा में दर्ज करती है।

इसमें उन 15 लोगों का ज़िक्र है जिनकी कहानियाँ पढ़कर, सुनकर अंग्रेज़ों को भी सिहरन पैदा हो जाती थी। इसमें एक गाँव की भी कहानी है जिसने ब्रिटिश राज से लोहा लिया था और बदले में  इसे बदमाश गाँव का लकब दिया था।

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किताब ‘द लास्ट हीरोज़’. फ़ोटोः आमिर मलिक.

यह किताब ब्रितानी हुक़ूमत के ज़ुल्म और अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने वालों, आज़ादी की लड़ाई में शरीक़ होने वाले उन आम लोगों की कहानियों को इतिहास के पन्नों में अमर करती है।

इस किताब की शुरुआत महाराष्ट्र के सांगली में तूफान सेना के नेता रामचंद्र श्रीपति लाड, ‘कैप्टन भाऊ’ के एक बयान से होती है, जिनकी कहानी भी किताब में शामिल है।

वो कहते हैं— “हमने दो चीजों के लिए लड़ाई लड़ी – स्वाधीनता और आज़ादी। हमें सिर्फ़ स्वाधीनता ही हाथ लगी।”

यह कथन पाठकों को भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के सोचने के तरीक़े से अवगत कराता है, एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है और हमें बताता है कि क्यूँ उनमें से लगभग सभी ने 1947 के बाद भी आज़ादी के लिए अपनी लड़ाई जारी रखी।

शहीद भगत सिंह के भतीजे प्रोफ़ेसर जगमोहन ने पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है। ‘द लास्ट हीरोज़’ के विमोचन में शामिल होने के लिए वह बस पकड़कर सीधे लुधियाना से चले आए।

वो लिखते हैं, “यह चिंता का विषय है कि हमारी वर्तमान पीढ़ियां तेज़ी से स्वतंत्रता संग्राम और इससे जुड़ी तमाम यादों और संस्कृति भुला रही रही हैं।”

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किताब ‘द लास्ट हीरोज़’ का विमोचन. फ़ोटोः आमिर मलिक.

यह पुस्तक अपेक्षाकृत युवा लोगों को स्वतंत्रता संग्राम की भावना की याद दिलाने के लिए है। प्रोफ़ेसर एक वाक़या का ज़िक्र करते हैं, “मैंने ग़दर पार्टी के हरी सिंह उसमान, जिन्होंने बाद में भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) की स्थापना में सुभाष चंद्र बोस की मदद की थी, को एक गाँव के स्कूल के निर्माण-स्थल पर ढूँद लिया था।”

प्रोफ़ेसर ने उससे पूछा कि ‘इतनी अधिक उम्र में और इतने गर्म मौसम में वह स्कूल की साइट पर क्या कर रहे हैं?’ हरी सिंह उसमान ने जवाब दिया था: “यह हमारी पार्टी का दृढ़ विश्वास था कि तमाम महत्वपूर्ण क्रांतिकारी कार्यों में युवा पीढ़ी की शिक्षा सुनिश्चित करना सबसे अहम है।”

यह किताब ठीक यही करती है। यह कॉलेज-जाने वाले, स्कूल-जाने वाले और कार्यालय-जाने वाले लोगों को शिक्षित करने का एक प्रयास करती है, जिन्होंने वास्तव में भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था।

यह किताब हमें ऐसे 15 रहनुमाओं से रूबरू करवाती है जिनकी कहानियाँ अमर हैं और ओहदों और पदों, कुर्सी और सत्ता के लोभ से कोसों दूर है।

यह किताब हमें बताती है कि वह लाखों आम लोग – किसान, मजदूर, गृहिणी, वन-उपज इकट्ठा करने वाले, कारीगर, विभिन्न क्षेत्रों के निवासी, जो विभिन्न भाषाएं बोलते हैं एवं नास्तिक और आस्तिक, वामपंथी, गांधीवादी और अम्बेडकरवादी — ब्रितानी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ खड़े रहे हैं और साम्राज्य के प्रति उनके क्रोध और विरोध पर सवालिया निशान की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती।

यह वह इतिहास है जिसे साईनाथ ने अपनी किताब में बख़ूबी सुनहरे अक्षरों के साथ जगह दी है।

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रोमिला थापर के साथ पी साईनाथ. फ़ोटोः हैप्पी हरिंदर/FB page

कार्यक्रम के शुरूआत में एक लम्हा बहुत भावुक हो गया था जब साईनाथ ने अपनी टीचर इतिहासकार रोमिला थापर को प्रोग्राम में आने और इतिहास में उनके योगदान के लिए धन्यवाद दिया गया था।

यहाँ एक छात्र था जो अपने शिक्षक का मान बढ़ा रहा था और भारतीय उपमहाद्वीप की परंपरा उन दोनों को देखकर एकबार जीवित हो उठी थी।

प्रोफ़ेसर रोमिला थापर ने किताब के बारे में लिखा, “साम्राज्यवाद की हार में आम लोगों की भूमिका को याद रखा जाना चाहिए, उनके योगदान को सिर-आँखों पर बिठाकर रखा जाना चाहिए। यह पुस्तक एक प्रभावी ढंग से और संवेदनशील तरीक़े के साथ बिलकुल यही करती है।”

साईनाथ ने हौसाबाई पाटिल की कहानी सुनाई- जिन्हें उनके नकली पति ने सांगली के भवानी नगर में एक पुलिस स्टेशन के सामने पीटा था।

उस समय थाने के अधिकारियों को बाहर निकालने के लिए यह नाटक मात्र था, ताकि हौसाबाई पाटिल के अन्य साथी उस थाने को लूट सकें।

लगभग 74 साल बाद, वह आज भी अपने नकली पति से नाराज़ हैं। ऐसा इसलिए क्यूँकि कि उनको लड़ाई को वास्तविक दिखाना था और उन्होंने हौसाबाई पाटिल को बड़ी ज़ोर से मारा था। किताब के पहले 14 पन्नों में उनकी 74 साल की नाराज़गी दर्ज हैं।

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पी साईनाथ. फ़ोटोः आमिर मलिक

उन्होंने देमती देई ‘सालिहान’ की कहानी भी सुनाई, जिन्होंने लाठी से ब्रिटिश अफ़सर को खदेड़ दिया था और उसपर लाठियों की बरसात कर दी थी।

यह दूसरी लाठी है जो एक कहानी के रूप में हमारे ज़ेहन पैवस्त हो जानी चाहिए। पहली लाठी की कहानी यह थी कि पैगंबर मूसा जब उसे ज़मीन पर रखेंगे तो वह सांप बन जाएगा।

मुझे मूसा की इस लाठी की कहानी बचपन से सुनाई गई थी, और यह भी बताया गया था कि वह फ़िरऔन — जो बड़ा ज़ालिम बादशाह था — से लड़ गए थे। किसी ने कभी नहीं बताया कि सालिहान की लाठी ने कैसे ब्रितानिया हुकूमत से लोहा लिया था। इस किताब ने सालिहान की लाठी को इतिहास में जगह दी है।

इनके अलावा, साईनाथ ने भगत सिंह झुग्गियां के बारे में बात की – (क्रांतिकारी भगत सिंह के साथ भ्रमित न हों)।

प्रसिद्ध पत्रकार ने कर्नाटक के बेंगलुरु में रहने वाले स्वंतत्रता सेनानी एचएस डोरेस्वामी के बारे में भी बात की, जिन्होंने कई नामों से एक अख़बार चलाया।

उनको फ़र्ज़ी बताते हुए कर्नाटक के बीजापुर से एक दक्षिणपंथी विधायक ने उनसे स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के सबूत तक मांगे थे। तब डोरेस्वामी ने एक पत्रकार को बताया था — “मैं अपना सी.वी. बना रहा हूँ।”

उन्होंने राजस्थान में अजमेर की जादूगर बस्ती के बम बनाने वाले गांधीवादी शोभाराम गेहरवार के बारे में भी बात की, जिनके परिवार के सदस्य संघर्ष के साथियों से कहते थे, “आप शहीद हो गए तो भी सही, आप यूँ भी यह लड़ाई आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं।”

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लेकिन कुछ ऐसे थे जो जिनको दक्षिणपंथी आज भी अपना रोल-मॉडल मानती हैं, वास्तविकता में जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कुछ नहीं किया, बल्कि उल्टे ब्रितानी साम्राज्य के सहयोगी बन गए।

अब जाकर वर्तमान सत्तारूढ़ व्यवस्था उनको भी स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में पेश करती है।

पत्रकारिता के ही एक छात्र ने साईनाथ से पूछा, क्यों न “स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने वाले वैचारिक स्पेक्ट्रम के दूसरे पक्ष के लोगों” को एक साथ रखा जाए?”

साईनाथ ने जवाब दिया — “मैं उनका इतिहास कैसे लिखूँ जिनका कोई इतिहास है ही नहीं! उन्होंने आगे कहा — “मैं कायरता दिखाने वालों के लिए वीरता का गाथा नहीं सुना सकता।”

(नोट: किताब पेंग्विन ने छापी है और विमोचन पैनल में जामिया, जेएनयू और अम्बेडकर विश्विद्यालय की स्टूडेंट्स को दावत दी गई थी। यह छह भाषाओं में अनुवाद होने के लिए तैय्यार है।
दुःखद नोट: पिछले सितम्बर से अब तलक इस किताब में शामिल 15 लोगों में से सात इस दुनिया को अलवि दा कह गए। वर्कर्स यूनिटी नम आँखों से उनको श्रधांजलि अर्पित करती हैं।)

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