फ्रांसीसी क्रान्ति : पुरुषों और नागरिकों के अधिकारों का घोषणापत्र

By अशोक पांडे

फ्रांसीसी क्रान्ति के मैनिफेस्टो के तौर पर 1789 में पांच पुरुषों की एक कमेटी की अगुवाई में जो दस्तावेज़ तैयार हुआ उसे ‘पुरुषों और नागरिकों के अधिकारों का घोषणापत्र’ कहा गया।

समूचे फ्रांस का पढ़ा-लिखा तबका क्रांतिकारियों के समर्थन में था। इन समर्थकों में ओलाम्प दू गूज़ नाम की एक महिला भी शामिल थी जिसने एक छोटे से कस्बे से निकल कर पेरिस के भद्र समाज में अपने लिए जगह बनाई थी।

1748 में जन्मी ओलाम्प के पिता गोश्त काटने का धंधा करते थे जबकि माँ दर्जियों के खानदान से ताल्लुक रखती थी। 16 साल की उम्र में उसकी इच्छा के खिलाफ़ उसकी शादी उसके पिता की आयु के एक आदमी से कर दी गयी जो दो सालों में बाढ़ में डूब कर मर गया।

इस दौरान उसका एक बेटा हुआ। 19 की होने पर उसने एक रईस आदमी से सम्बन्ध बना लिए जिसने उसकी और उसके बेटे की परवरिश का इंतजाम पेरिस में कर दिया।

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पेरिस में आकर ओलाम्प ने खुद को एक नई औरत में ढालने का फैसला किया। सबसे पहले उसने अपना उपनाम बदला। अपने पिता से मिले नाम की स्पेलिंग में उसने जान बूझ कर जो बदलाव किये उससे उसके उपनाम का अर्थ हुआ – निचले तबके से ताल्लुक रखने वाली एक बुरी स्त्री।
पेरिस के भद्र समाज में रहते हुए उसने कविता, कहानी और नाटक लिखना शुरू किया।

रूसो और मोंटेस्क्यू जैसे बड़े विचारकों के दर्शन को आत्मसात कर चुकी ओलाम्प अपने समय के राजनीतिक बदलावों को गौर से देख रही थी और जब 14 जुलाई 1789 को बास्तील का पतन हुआ, उसने अपने आप को पूरी तरह राजनीति में झोंक दिया।

अगले कुछ सालों तक उसने क्रान्तिकारी विचारधारा के समर्थन में अनेक मुद्दों पर अपने विचारों को आवाज़ दी और वंचित स्त्रियों-बच्चों की ज़रूरतों, उत्तराधिकार के नियमों में समानता लाने, वेश्यावृत्ति और तलाक को कानूनी मान्यता देने और सड़कों की नियमित सफ़ाई जैसे विषयों पर भरपूर लिखा। रोजगार के मौकों को जाति, वर्ग और लिंग से मुक्त करने की एक अलग लड़ाई भी वह लड़ रही थी।

क्रान्ति के पक्षधरों को कुछ सालों तक करीब से देखने के बाद ओलाम्प का इस विचारधारा से मोहभंग हो गया और 1791 के साल उसने 1789 वाले मैनिफेस्टो के जवाब में एक नया मैनिफेस्टो लिख कर छपाया – ‘महिलाओं और महिला नागरिकों के अधिकारों का घोषणापत्र’
मूल मैनिफेस्टो में जहाँ- जहाँ ‘पुरुष’ शब्द आया था, ओलाम्प ने वहाँ ‘स्त्री’ तो लिखा ही, अपनी तरफ से उसमें अनेक नई चीज़ें भी जोड़ी।

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उसका सबसे ज़रूरी आग्रह यह था कि जिस नए समाज को बनाने का सपना देखा जा रहा था, उसमें महिलाओं को बराबर का दर्ज़ा मिले और उन्हें भी नागरिक माना जाय। जैसे-जैसे क्रांतिकारियों की गतिविधियों में वृद्धो होती गई, ओलाम्प की कलम की तुर्शी बढ़ती गयी।

ओलाम्प आधुनिक फेमिनिज़म की पुरखिन कही जा सकती है जिसका लेखन सत्ता की आँख में किरकिरी बन कर चुभता रहा। आखिरकार उसे गिरफ्तार कर लिया गया और उस पर राजद्रोह का मुकदमा चला।

ओलाम्प दू गूज़ ने लिखा था – “प्रभावी क्रान्ति तभी हो सकेगी जब सारी महिलाएं अपनी दयनीय स्थिति और उन अधिकारों को लेकर पूरी तरह सचेत हो जाएँ जिन्हें समाज ने उनसे छीन लिया है।”

इस अपराध में 3 नवम्बर 1793 को गिलोटीन पर चढ़ाकर उसका सर कलम कर दिया गया।

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