सब नहीं मरे थे महामारी से

बच्चा लाल ‘उन्मेष’

 

सब नहीं मरे थे महामारी से
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जब दुनिया लड़ रही थी महामारी से
सब नहीं लड़े थे इकतरफा
कुछ लड़ रहे थे भूख से
कुछ लड़ रहे थे अपने हिस्से में ज़बरन डाले गए दुःख से

जब दुनिया भयभीत थी महामारी से
सब भयभीत नहीं थे इकतरफा
कुछ भयभीत थे क्रूर निज़ाम से
कुछ भयभीत थे अपने छूटे हुए इकहरे काम से

जब दुनिया लूट रही थी महामारी से
सब नहीं लूटे थे इकतरफा
कुछ लूटे थे राशन के चढ़ते दाम से
जैसे लूटते आये सदियों से मंदिरों के धाम से

जब दुनिया लडख़ड़ा रही थी महामारी से
सब नहीं लडख़ड़ा रहे थे इकतरफा
कुछ लडख़ड़ा रहे थे भक्ति के जाम से
कुछ लड़खड़ाये बेऔलाद बेग़ैरत एक शख़्स के नाम से

जब दुनिया घट रही थी महामारी से
सब नहीं घट रहे थे इकतरफा
कुछ घट गए गरीब,अमीर पैरों के दाब से
कुछ घटा दिये गये तौल कर बनिये के हिसाब से

जब दुनिया छुप रही थी महामारी से
सब नहीं छूपे थे इकतरफा
कुछ छुप रहे थे शर्म से
कुछ धर्म की आड़ में छुपे कुछ जाति के मोटे चर्म से

जब दुनिया मर रही थी महामारी से
सब नहीं मरे थे इकतरफा
कुछ मरे थे अपने अधूरे ख़्वाब से
कुछ होश में मरे कुछ पीके शराब से

जब दुनिया जल रही थी महामारी से
सब नहीं जले थे इकतरफा
कुछ जले थे डमराये काली सड़कों के ताप से
कुछ जले हवाई जहाज के इंजनों के भाप से

जब दुनिया मर रही थी महामारी से
सब नहीं मरे थे इकतरफा।

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