कैसे सरकार ने मजदूरों को किस्मत के हवाले छोड़कर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ा

By आशीष सक्सेना

लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने के साथ ही सरकार ने मजदूरों को उनकी किस्मत के हवाले छोड़ दिया और नियोक्ताओं से हमदर्दी की अपील करके। इस तरीके से सरकार ने खुद के लिए भी ये बचाव का रास्ता बना लिया। जैसे ये हमदर्दी का मामला है, जिम्मेदारी का नहीं।

अन्यथा, सरकार के लिए सिर्फ कानूनों का पालन कराने भर से मजदूरों का भला हो जाता। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम (2005), अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिक अधिनियम (1979) और स्ट्रीट वेंडर अधिनियम (2014), संविधान का आर्टिकल-21 समेत कई कई कानून हैं जो यह आदेश देते हैं कि श्रमिक पूर्ण और समय पर मजदूरी के भुगतान के हकदार हैं।

विस्थापन भत्ता, यात्रा के दौरान मजदूरी के भुगतान सहित भत्ता भी दिलाया जाना चाहिए था। इन कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है।

workers go fleeing curfew

अधिकांश फंसे हुए निर्माण श्रमिक मुख्य बिल्डर या कंपनी के नाम तक नहीं जानते, जिसके लिए वे काम कर रहे थे।वे केवल अपने ठेकेदार का नाम बता सकते हैं और ठेकेदारों की कंपनियों के आमतौर पर पंजीकरण भी नहीं हैं। इस स्थिति वाले ठेकेदारों ने अपने फोन को बंद कर दिया है।

ऐसे में कौन किस जरिए उनका सहारा बनेगा, क्या सहायता दे रही सरकार उनको? गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री सबको भुगतान करने की बात कहकर तो छुट्टी पा गए। इसका नतीजा भयावह होता जा रहा है।

गुजरात के सूरत में फंसे बिहार के उपेंद्र रूशी ने बताया, ‘हमारे नियोक्ता अभी भी हमें यह कहते हुए काम करने के लिए मजबूर करते हैं कि अगर काम नहीं करते तो भोजन नहीं मिलेगा। भोजन भी केवल एक बार दिया जाता है।’

74 प्रतिशत प्रवासी कामगारों के लिए हम सिर्फ भोजन की बात कर रहे हैं, जबकि साबुन, तेल, रसोई गैस, सेनेटरी पैड, दवाइयां, फोन रिचार्ज और आने-जाने जैसी बुनियादी जरूरतों पर तो बात तक नहीं हो रही। लॉकडाउन की अनश्चितता में वे कमरे का किराया कहां से दें?

workers walking through roads of delhi

बिहार के संजय साहनी जो एक टेक्सटाइल कंपनी में तिरुपुर में काम करते हैं, जहां उन्हें साप्ताहिक मजदूरी दी जाती है, ने कहा, ‘मुझे पैसे की सख्त ज़रूरत है क्योंकि मुझे किराया देना होगा या मुझे बेदखल कर दिया जाएगा। मुझे दवाओं के लिए भी पैसा चाहिए।’

हाथ में बिल्कुल नकदी न होने से मजदूरों के दुधमुंहों की जिंदगी पर भी बन आई है। बेंगलुरू में मजदूरी करने वाली झारखंड निवासी विवेकानंद की पत्नीे 2 दिन से खाना नहीं खाया था, इसलिए दूध पीती 3 महीने की बच्ची को भी भूखे रहना पड़ा। भला हो स्वान वालंटियर का, जिन्होंने उस बच्ची की खातिर नकदी देकर महिला की मदद की।

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