मानवीय करुणा के आंसू झूठे हैं, इतिहास ने सिखाया कि ऐसे ही वक़्त मज़दूर वर्ग को लड़ना होगा – नज़रिया

nationwide curfew stranded workers

By आशीष सक्सेना

कोविड-19 यानी कोरोना वायरस के समय भय और बचाव के लिए हर शख़्स नसीहत और नुस्खे सुझा रहा है।

ये जानकर हैरानी होती है कि ये सारी मानवीय करुणा के आसूं उन लोगों के लिए बहाए जा रहे हैं, जिनके पास उपाय एक हद तक है और उन्हें महज व्यवस्थित करना है।

जबकि मजदूर वर्ग के पास कोई चारा नहीं है। कोरोना प्रभावित इलाक़ों से अमीरों को लाने के लिए हवाई जहाज भेजे जाते हैं और अपने देश में ज़िंदगी का पहिया ठप कर मज़दूरों को अपने घर तक लौटने के लिए मार पड़ती है।

दिलचस्प है कि मजदूरों और उनके परिवारों को महफूूज करने के लिए कथित मानवतावादी कुछ नहीं बोल रहे।

अपने लिए हर ज़रूरी साजोसामान चाहिए, जिसको बनाने के लिए भी वही मज़दूर खतरा मोल ले रहे हैं।

मज़दूरों के लिए सोशल मीडिया के लिक्खाड़ मध्यवर्गीय लोगों या सरकार की सूखी नसीहतों का कोई मोल नहीं।

मजदूरों को ऐसे वक्त में भी खुद को बचाने और भविष्य सुनहरा बनाने के लिए संघर्ष के अलावा कोई चारा नहीं।

इसकी एक वजह ये भी है कि ऐसे समय में भी पूंजीपति वर्ग अपनी तानाशाही को मजबूत करता है और मज़दूरों के ख़िलाफ़ साज़िश में मशगूल ही रहता है। भारत के इतिहास ने भी यही सबक दिया है।

stranded workers in gujarat

इतिहास का सबक

कोरोना वायरस की तरह 1918 में स्पेनिश फ्लू पूरी दुनिया में फैला और 10 करोड़ लोग मारे गए थे। ये वाकया काफी लोग जानते भी हैं।

यही वह दौर था जब पहले विश्वयुद्ध में मानवता का खून बहाने वाली ताकतें अपनी जनता को निचोडऩे की कोशिश में जुटी थीं, यही वह दौर भी था जब साम्राज्यवादी गुलाम देशों की जनता का गला घोंट रहे थे।

उनको इस बात का कोई फर्क नहीं था कि लोग युद्ध से मरें या महामारी से।

फ्लू वायरस फैलने के समय ही कठिनाइयों से जूझते हुए मजदूरों की रूसी सरकार ने अपनी जनता का भी ख्याल रखा और दुनिया के मजदूरों को मदद देने का भी प्रयास किया।

इसके अलावा हर देश के क्रूर शासक और उनका पिछलग्गू मध्यवर्ग सिर्फ डराने धमकाने का काम कर रहा था।

बिल्कुल वैसे ही, जैसे अभी हो रहा है। घर में रहो, घर में रहो की रट लग रही है। ये वो लोग लगा रहे हैं, जिनके पास साधन हैं भी, भले ही आम दिनों जैसी सहूलियत न हो।

workers return from mumbai

1918 में स्पैनिश फ़्लू

खाए-अघाए लोगों को घर में सैनेटाइजर, राशन, बिजली, पानी समेत तमाम इमरजेंसी सुविधाएं भी हासिल हैं। वे एक बार भी नहीं सोचते कि बिजली कौन बना रहा है, इसके लिए कोयला कौन निकाल रहा है, कौन पानी की व्यवस्था को पूरा करने के लिए पसीना बहा रहा है।

वे सभी साधन आखिर किस बलबूते हासिल हैं।

ये वो मध्यवर्ग और शासक वर्ग है जो महामारी खत्म होने के बाद इस बात से भी कोई मतलब नहीं रखेगा कि बुरे दौर का खतरा उठाने वाले मजदूरों का वेतन कम हो जाए, काम से निकाल दिया जाए, उनके लिए कोई इलाज मिले या न मिले।

इस बात को सिर्फ मज़दूर वर्ग खुद ही समझ सकता है। अंग्रेजी शासन के समय 1918 में जब स्पेनिश फ्लू ने पैर पसारने शुरू किए तो मजदूरों के साथ मिल मालिक साजिश रच रहे थे।

उससे एक साल पहले गुजरात में प्लेग फैला था, जिसकी वजह से उन्हें उसके मुआवजा बतौर कुछ अतिरिक्त धनराशि मिल रही थी, मालिकों ने उसे छीन लिया।

इसके विरोध में वे हड़ताल पर गए, जिसमें बोनस की मांग भी थी। इस हड़ताल में महात्मा गांधी भी पहुंचे और सत्याग्रह कर समझौता कराया।

workers in ahemdabad 1916
अफ्रीका से महात्मा गांधी 1916 में अहमदाबाद लौटे। उस समय मज़दूरों ने उनकी आगवानी की।

मज़दूर आंदलन तेज़

इसी काल में अखिल भारतीय दलित वर्ग सम्मेलन भी हुआ, जिसके दबाव में कांग्रेस ने अस्पृश्यता के विरोध में प्रचार किया।

पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर जाति व्यवस्था को आजादी के आंदोलन में सवाल बनाने का प्रयास भी कहा जा सकता है।

इस सवाल के साथ ही मजदूरों का बहुत बड़ा हिस्सा प्रभावित हुआ, क्योंकि अधिकांश दलित जातियों से ही मजदूर भी थे।

जून 1918 में फ्लू ने लाखों लोगों की जान ले ली, हर दिन सैकड़ों की तादाद मरने वालों की हो गई।

उससे शासको ने बचाना तो दूर रौलट एक्ट लाने की तैयारी की। बंबई के मजदूरों के बीच मशहूर कांग्रेसी नेता बाल गंगाधर तिलक की गिरफ्तारी के विरोध में जबर्दस्त हड़ताल हुई।

ये फ्लू चरम पर होने के दो-तीन महीने के अंदर ही हुआ। भारत के मजदूरों की ये राजनीतिक हड़ताल थी, जिसमें आजादी यानी लोकतंत्र की चाह शामिल थी।

इस दौरान उपनिवेशवादी शासक अपने काम में जुट थे, जैसे अभी जुटे हैं सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने, लोकतंत्र को समाप्त करने में।

बंबई के मज़दूरों की हड़ताल के असर में दर्जनों जगह मजदूर सड़क पर उतर आए। अप्रैल 1919 में जलियांवाला कांड हुआ।

Trade-Unions-development in india
स्पैनिश फ्लू की महामारी के दौरान भी मज़दूर वर्ग का आंदोलन पीछे नहीं हटा। इस महामारी में पौने दो करोड़ भारतीय मारे गए।

सत्तापरस्तों की नसीहतें

मज़दूर और एकजुट हुए और 1920 में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र एटक वजूद में आया।

जो इस दौरान शासकों का साथ दे रहे थे, यानी हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग, उन्होंने घर में दुबक जाने की नसीहतें दीं, लेकिन संघर्ष जारी रहा।

इस बलिदान से मज़दूरों को जो हासिल हुआ, वही उनकी संपदा बनी।

आज भी अगर मजदूर सड़कों पर पड़े हैं या कारखानों या प्रतिष्ठानों में, उनकी कहने-सुनने वाला कोई नहीं।

सरकार अपने ब्राह्मणवादी फासिस्ट एजेंडे पर चल रही है। ऐसे में मजदूरों को न सिर्फ एकजुट होकर मेहनतकशों को बचाना लक्ष्य है, बल्कि भविष्य में भी अपने लिए बचाने की लड़ाई लडऩे की तैयारी करना ज़रूरी हो गया है।

मानवतावादी इस बात का मखौल उड़ाएंगे कि ऐसे समय राजनीति करने का कोई तुक नहीं, लेकिन वे ये कभी नहीं बताएंगे कि राजनीति मज़दूरों के ख़िलाफ़ हो रही है।

stranded workers go home barefoot
अचानक पूरे देश में कर्फ्यू लगा देने मज़दूर रास्ते में ही फंस गए हैं।
खोने के लिए सिर्फ बेड़ियां हैं

वे जिस मानवीय करुणा का रोना रो रहे हैं, उसमें मज़दूर और उनमें भी समाजिक ढांचे में निचले पायदान पर मौजूद लोगों के प्रति उनकी असल में कोई हमदर्दी नहीं है।

हमदर्दी है भी तो इतनी ही, कि वे इस वक्त में भी सेवा करें या फिर न करें तो सिर्फ इसलिए कि उनके जरिए परेशानी न हो जाए।

भले ही उनकी ज़िंदगी तबाह हो जाए। इस बात को समझने का ये अहम समय है मजदूर वर्ग के लिए, कि वास्तव में उनके पास खोने को कुछ नहीं, सिवाय इस समाज व्यवस्था की बेड़ियों के।

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं।)