कोरोना कर्फ्यूः ये सरकार की आपराधिक लापरवाही है और सज़ा मज़दूरों को मिल रही

stranded workers walk through roads

By संदीप राउज़ी

दिल्ली के आनंदविहार बस अड्डे पर एक मज़दूर बच्चा रो रहा था तो एक मज़दूर परिवार अपने 10 महीने के बच्चे को कांधे पर लिए चिलचिलाती धूप में पैदल ही अलीगढ़ के लिए निकल पड़ा था।

ये दृश्य था 25 मार्च को  देश की राजधानी में।

24 मार्च, रात आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से रात 12 बजे से पूरे देश में कर्फ्यू लागू करने की घोषणा के साथ ही मज़दूरों के पांव तले ज़मीन ख़िसक गई।

जो मज़दूर जहां थे वहीं फंस कर रह गए। एक दिन पहले जो मज़दूर घर को चले थे वो रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर फंस गए।

लेकिन इस स्थिति का आभास पहले से था, क्योंकि कई राज्यों ने पहले ही अपने यहां लॉकडाउन कर रखा था। इसलिए लाखों मज़दूर अपने घर जा रहे थे।

इस दौरान ऐसी ऐसी दर्दनाक और भयावह कहानियां सामने आईं जिससे पत्थर दिल इंसान पिघल गया।

अहमदाबाद, जयपुर, मुंबई, चेन्नई, दिल्ली, पटना रांची में मज़दूर बिल्कुल फुटपाथ पर आ गए। वहां भी पुलिस उनपर लाठी बरसा रही थी।

stranded workers walk through roads

मुंबई रेलवे स्टेशन का हाल बुरा था, लाखों मज़दूर ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर मौजूद थे लेकिन तभी 12 बजे रात से सभी ट्रेनें बंद कर दी गईं।

लेकिन हालात पहले ही काफ़ी बुरे हो चुके थे। जिस दिन मोदी ने कर्फ्यू जनता लागू किया, और लोग शाम पांच बजे ताली थाली बजा रहे थे…उसी दौरान केरल से चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन पहुंचे 1000 मज़दूरों पर लाठी चार्ज हो रहा था।

इनमें अधिकांश मज़दूर यूपी, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल के थे।

जो मज़दूर पहले ही घर के लिए निकल चुके थे वो अपने घर से कुछ किलोमीटर दूर ही फंस गए, जैसे ये मज़दूर रांची में फंस गए।

एनडीटीवी के एक पत्रकार को कुछ मज़दूर लखनऊ में मिले। उन्होंने बताया कि उन्नाव की एक फैक्ट्री में वे काम करते थे और कंपनी में ही रहते थे।

ज्यों ही मोदी ने कर्फ्यू की घोषणा की, मालिक ने कंपनी बंद कर दिया और क्वार्टर खाली करने को कह दिया।

बस, ट्रेन बंद थी इसलिए वे पैदल ही चल पड़े। वे बाराबंकी के रहने वाले थे।

narendra modi

सिर्फ बालकनी वालों की चिंता करने वाले नरेंद्र भाई दामोदरदास मोदी ने ये नहीं सोचा कि बेघरबार मज़दूर कहां जाएंगे। मज़दूरों के रुकने ठहरने के लिए न कोई ट्रांज़िट कैंप बनाया गया न उनके इलाज़ के लिए स्टेडियम और स्कूलों को खोला गया।

जबकि कोई निश्चित नहीं था ये सभी मज़दूर बीमार रहे हों। जबकि कोरोना से बीमार अमीरों को विदेश से लाने के लिए मोदी सरकार ने बकायदा सरकारी खर्चे से हवाई जहाज भेजे।

उन्हें लाकर बकायदा मानेसर के फ़ाइव स्टार फैसिलिटी वाले फ्लैटों और आटीबीपी कैंपों में आइसोलेशन में रखा गया। उनका पूरा खर्च सरकार ने उठाया।

ये बीमारी भी इन्हीं हवाई जहाज पर चलने ले अमीरों की लाई हुई है, लेकिन इसकी सज़ा मज़दूरों को दी गई।

दुनिया के बीमारी वाले इलाक़े से लोगों को लगातार आने दिया गया और चलताऊ जांच कर उन्हें पूरे देश में फैलने दिया गया। सरकार ने समय रहते व्यापक जांच के आदेश नहीं दिए।

प्रशासन और सरकार की ओर से भारी लापरवाही बरती गई, जिसकी क़ीमत भारत का मज़दूर वर्ग अदा कर रहा है।

ये सामान्य नहीं बल्कि आपराधिक लापरवाही थी और इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा देने की बजाय मज़दूरों पर लाठी बरसाई जा रही है।

कई ऐसे वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं जिसमें मज़दूरों पर लाठी चलाई जा रही है।

जबकि कर्फ्यू के बावजूद लखनऊ में यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ भक्तों के साथ पूजा में शामिल हो रहे हैं।

अगर सरकार की बात को एक तरफ़ रख दिया जाए तो दूसरी तरफ़ मज़दूरों की रहनुमा बनी मौजूदा तमाम ट्रेड यूनियनों ने बुरी तरह निराश किया है।

ऐसा लगता है कि कर्फ्यू घोषित होते ही सारे मज़दूर और उनके नेता भी घर में जाकर बंद हो गए।

संगठित क्षेत्र के मज़दूरों ने 25-30 करोड़ इन असंगठित मज़दूरों की परवाह नहीं की।

labour protest gurgaon

सिवाय बयान जारी करने और सोशल मीडिया पर दुख जताने के अलावा इन मज़दूरों की मदद के लिए कोई आगे नहीं आया।

जबकि ट्रेड यूनियनें चंदा कर या अपने रिज़र्व फंड से उनकी मदद कर सकती थीं।

इस घटना ने एक बात तो साफ़ कर दिया है कि इस ऐतिहासक समय में सरकार जितनी फ़ेल हुई उससे ज़्यादा ट्रेड यूनियनें।

इस महा त्रासदी में यूनियनों को क्या करना चाहिए, ये सोचने का अब भी वक्त है उनके नेताओं के पास।

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