मज़दूरों को पीटने, गाली देने और मार डालने का खाकी को लाइसेंस मिल गया है?

By एमपी नाथानाएल

उत्तरप्रदेश के छज्जापुर गांव के रहने वाले 19 साल के मोहम्मद रिज़वान 16 अप्रैल को अपने घर से बिस्कुट लाने बाहर निकले। पड़ोस की दुकान से वो सामान खरीद ही रहे थे कि पुलिस वाले आए और रिजवान को लाठी-डंडों, राइफल की बट से पीटना शुरू कर दिया।

उन्हें इस कदर पीटा कि वो उठ नहीं पा रहे थे, किसी तरह रिज़वान उठे और चल कर घर तक पहुंचे। परिवारवालों ने घरेलू दवाइयों को जख्मों पर लगाया पर आराम न मिलने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया, जहां रिज़वान ने 18 अप्रैल को दम तोड़ दिया।

ऐसी घटना या इसी तरह अपने घर लौट रहे मज़दूरों की बेरहमी से पीटने की घटनाओं में कुछ भी असमान्य नहीं है। कई जगहों पर तो अपने गांव लौटने का प्रयास कर रहे बुर्जुर्गों पर भी पुलिस का कहर बरपा है।

लॉकडाउन के दौरान पुलिस द्वारा की गई क्रूरता के कारण तमिलनाड़ु के मानवाधिकार आयोग में शिकायत तक की गई। याचिका में पुलिसकर्मियों द्वारा की गई ज्यादतियों की जांच के लिए एक शिकायत निवारण तंत्र बनाने की मांग की गई थी।

पुलिस की बर्बरता को गंभीरता से लेते हुए कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट इनिशिएटिव ने पुलिसिया कार्यवाही पर मार्च में दिशा निर्देश जारी किया।

इसके अनुसार, लॉकडाउन का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों पर बल प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसके बाद बेंगलुरू पुलिस ने एक उदाहरण पेश किया जिसमें लॉकडाउन का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों पर लाठी चार्ज न करने का आदेश जारी किया गया।

ब्रिटिस शासकों से विरासत में मिली बर्बरता असल में भारतीय पुलिस व्यवस्था की महत्वपूर्ण विशेषता बन गई है और इसे कम करने और पुलिस को मानवीय बनाने के लिए बहुत कम कोशिश की गई।

अधिकांश पुलिसकर्मियों को ट्रेनिंग के समय से ही ये बताया जाता है कि उनके काम में ही बर्बरता शामिल है ताकि नागरिकों के अंदर कुछ हद तक डर बैठाया जा सके।

पुलिस कर्मियों में ये रवैया उनके ट्रेनिंग प्रशिक्षकों की ओर से ही आता है, जो अपमानित करते हैं और बेकाबू प्रशिक्षु पुलिसकर्मियों के साथ मारपीट करते हैं।

दुर्भाग्य से, पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में पोस्टिंग को एक सजा माना जाता है।

खाकी पहनने के बाद ये गुण लेकर और किसी पर भी बरस पड़ने के अधिकारों से लैस ये पुलिसकर्मी किसी को भी पीट देने, अपमानित करने और यहां तक कि मार डालने के अपने मनमाने अधिकार का उपयोग करते हैं।

बल का प्रयोग करना निश्चित रूप से कानूनी ज़रूरत है और पुलिस को पिस्तौल, लाठी, राइफ़ल और अन्य आधुनिक हथियारों से लैस करना तर्कसंगत है। लेकिन केवल लाठी और हथियार दे देने से निर्दोषों और यहां तक कि आरोपियों पर बेलगाम इसके इस्तेमाल को सही नहीं ठहराया जा सकता।

इंसाफ़ की मांग होती है कि इन हथियारों को सीमित तरीक़े से इस्तेमाल किया जाए। हालांकि सभी प्रशिक्षण संस्थानों में मानवाधिकार को एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है लेकिन इसे लेकर जो गंभीरता होनी चाहिए वो नहीं होती। जो मानवाधिकार का उल्लंघन करते हैं उन्हें कभी कभार ही सज़ा मिल पाती है।

एक ही बिरादरी से होने के कारण, अधिकांश वरिष्ठ क्रूरता के उदाहरणों को नजरअंदाज करते हैं क्योंकि वे इसे पुलिस की नौकरी का एक आसान तरीका मानते हैं। सच है, ऐसे अधिकारी हैं जो बल का कोई अनुचित उपयोग नहीं करते हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है।

स्थिति और ख़राब होने का एक और कारण है कि वरिष्ट अधिकारी मौके पर कम ही देखे जाते हैं जबकि जूनियर पुलिसकर्मी ड्यूटी पर होता है। वरिष्ठ अधिकारियों का मौके पर होना केवल उन्हें बल ही नहीं देता है बल्कि उन्हें ब्रीफ़िंग करने का मौका भी मिलता है और किसी ग़लत काम को करने से रोकता भी है।

दूसरी तरफ, यह सच है कि पुलिसकर्मियों के लिए काम के घंटे न तय करना भी उनके सब्र पर असर डालता है।

आराम के लिए समय नहीं दिया जाता है, बिना आराम के जबरदस्त दबाव में काम कराया जाता है, उनमें से कुछ लोग लगातार चिड़चिड़े बन जाते हैं और निर्दोषों पर गुस्सा उतारना उनका शगल बन जाता है।

इस स्थिति के लिए पुलिस बल में खाली पड़ी जगहें भी काफ़ी ज़िम्मेदार हैं। संयुक्त राष्ट्र का मानक है कि एक लाख आबादी पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए लेकिन हमारे देश के कई राज्यों में इतनी बड़ी आबादी के लिए केवल 100 पुलिस अधिकारी ही मौजूद हैं।

पुलिस भर्ती में ठीक से योजना बनाना, ट्रेनिंग और प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम और वरीष्ठ अधिकारियों की सीधी देख रेख से पुलिसिया बर्बरता अगर पूरी तरह ख़त्म नहीं होगी तो कम ज़रूर हो पाएगी।

(लेखक सीआरपीएफ़ के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस रहे हैं। ये लेख द हिंदू में प्रकाशित हो चुका है और साभार यहां दिया जा रहा है। हिंदी में रुपांतरण किया है खुशबू सिंह ने।) 

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