‘द जर्नी ऑफ फार्मर्स रेबेलियन’ आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अहम् दस्तावेजः आरफ़ा ख़ानम शेरवानी

‘द जर्नी ऑफ द फार्मर्स रेबेलियन’ किताब आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अहम् दस्तावेज है। जो विद्यार्थी अभी कॉलेजों में हैं या जो छात्र अभी स्कूलों में पढ़ रहे हैं उनको किसान आन्दोलनों के संघर्षों से रूबरू करवाएगी।

ये कहना था द वायर की सीनियर जर्नलिस्ट आरफ़ा ख़ानम शेरवानी का। वो उन पत्रकारों में से हैं जिन्होेंने किसान आंदोलन को बहुत करीब से कवर किया और ज़मीनी सच्चाई सबके सामने लाने में अहम भूमिका निभाई।

दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में 18 सितम्बर (रविवार) को ‘द जर्नी ऑफ द फार्मर्स रेबेलियन’ नाम की पुस्तक का विमोचन किया गया।

इस कार्यक्रम का रिकार्डेड लाईव सुनने के लिए यहां दिए गए दो लिंक को क्लिक करें-पार्ट -1      पार्ट -2

पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान समेत देशभर के किसान संगठनों के संघर्ष के किस्से भी किताब का हिस्सा बने हैं।

किसानों के संघर्ष और उनकी कहानी को पुस्तक का रूप देने में वर्कर्स यूनिटी, ग्राउंड जीरो और नोट्स ऑन द एकेडमी ने मिलकर काम किया है।

किताब में उन किसान नेताओं, पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों, प्रोफेसरों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मजदूर नेताओं के इंटरव्यू हैं, जिन्होंने कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर मोर्चा खोल रखा था। 380 दिनों तक चले किसानों के संघर्षों की कहानी भी पुस्तक में है।

आरफ़ा ने अपने राजनैतिक पत्रकारिता के दौरान बहुत बड़े बड़े कार्यक्रमों को कवर किया है, लेकिन उनका कहना है कि उनको इस बात का गर्व है कि वह देश के दो सब से बड़े आंदोलनों का भी हिस्सा बनीं। जिसमें एक किसान आंदोलन है और दूसरा सीएए एनआरसी विरोधी शाहीनबाग में महिलाओं का संघर्ष।

किसान आंदोलनों के दिनों को याद करते हुए आरफ़ा ने कहा कि यह आंदोलन तब हुआ जब देश में तानाशाही अपने चरम पर थी। ये वह दौर था जब एक व्यक्ति विशेष के लिए कुछ बोलना ईशनिंदा माना जाता था। उस वक्त एक हाशिया का सब से ज्यादा सताया गया वर्ग सड़कों पर तिरंगे ले कर आया और भारत के लोकतंत्र की रक्षा की।

उन्होंने कहा कि इस आंदोलन में ऐसी महिलाओं ने हिस्सा लिया जिन्होंने अपने जीवन में पहले मायका फिर ससुराल और फिर सिंधु बॉडर देखा।

किसानों ने एक साल से ज्यादा का समय सिंधु बॉडर पर बिताया। लेकिन गोदी मीडिया लगातार किसान आंदोलन के खत्म होने की ही चर्चा करता था।

जब आंधी आई तो कहा कि अब आंधी आ गयी है, अब किसानों के टैंट उड़ गए, अब चले जाएंगे किसान। अब ओले पड़ गए हैं, बीमार पड़ने लगे हैं किसान।

chakka jam kisan morcha

इतना ही नहीं आरफ़ा ने कहा इस आंदोलन के दौरान मीडिया ने अपनी सारी हदों को पार कर दिया था। उनको लगता था कि AC का आनंद केवल समाज के कुछ लोगों को ही लेने का अधिकार है।

गोदी मीडिया के अनुसार किसानों के पास AC होना एक पाप है। किसानों को पिज़्ज़ा खाने का भी हक़ नहीं देना चाहती थी मीडिया ।

उन्होंने कहा कि सरकार का प्रचार करने वाली मीडिया ने किसानों पर इस बात का भी सवाल उठा दिया कि यदि इनके पास ये सभी सुविधाएँ हैं, तो इस संघर्ष की क्या जरूरत है?

आरफा ने अपने भाषण में कहा कि जब देश में संघर्ष होता है और विपक्ष में एक सकारात्मक ऊर्जा फैलती है। लेकिन जब हमारे देश का नागरिक, किसान, मज़दूर, महिलाएं और अल्पसंख्यक वर्ग कमज़ोर होता है तो इसको कवर करने वाला मीडिया जो अभी मोदी सरकार द्वारा बिका नहीं है वो भी अपने आप को कमज़ोर महसूस करता है। लेकिन ऐसे संघर्षों से हमें एक दूसरे से ताकता मिलती है।

उन्होंने कहा कि इस आंदोलन ने मरते हुए शरीर में रूह फूंकने का काम किया है। संघर्षों के भरे इस किसान आंदोलन से हर वर्ग, जाति और धर्म के लोगों को अपनी तरह की उम्मीद थी।

जब शाहीनबाग की बिलकिस दादी वहां गईं तो जो तथाकथित शुभचिंतक थे उन्होंने किसान आंदोलनकारियों पर साम्प्रदायिक हो जाने के की चिंता जाहिर करने लगे।

उस दौरान गोदी मीडिया लगातार किसानों के आंदोलनों को खत्म होने की बात करता था। लेकिन किसानों में अपनी ताकत दिखाई और इस आंदोलन को 380 दिनों तक कायम रखा।

इस दौरान आंदोलनकारियों पर गोदी मीडिया एक चीलनुमा मंडराता रहा और इस फिराक में था यदि किसानों में इसमें दलितों की बात कही तो आंदोलन जातिवाद है, मुसलमानों की बात उठाई तो आंदोलन धर्म आधारित है।

इस दौरान सिखों पर ऐसे ऐसे आरोप लगाये गए जिनका जवाब जनता ने और किसानों ने अपने जुझारू एकता के दम पर दिया।

आप को बात दें कि किसान आंदोलन के दौरान बहुत से आंदोलनकारियों की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। इस बात को याद करते हुए आरफ़ा ने कहा कि इतनी कठिन परिस्थितियों में भी आंदोलन को कैसे सक्रिय रखा जाता है इसको न भूलने वाला उदाहरण है किसान आंदोलन।

अंत में आरफ़ा ने शाहीनबाग की महिलाओं के संघर्षों को याद किया और कहा कि एक ऐसी समुदाय की महिलाएं जो अपने ही पुरुषों द्वारा शोषण का शिकार हो रही थीं आगे आईं।

अंत में उन्होंने किसान आंदोलन पर जमीनी रिपोर्टिंग करने के लिए वर्कर्स यूनिटी की टीम को बधाई देते हुए इसे बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज बताया।

(स्टोरी संपादित – शशिकला सिंह)

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