‘जब 6 लोगों का परिवार एक तंग कमरे में रहता है और ईश्वर के पास विशाल अट्टालिका!’ सबीर हका की कविताएं

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By प्रेमसिंह सियाग

सबीर हका ईरान के करमानशाह में सन 1986 में पैदा हुए।अब तेहरान शहर में किराये के कमरे में रहते हैं। इमारतों के निर्माण कार्य में मज़दूर हैं और ईरान के युवा कवि भी हैं।
अपनी हालत को देखते हुए ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हुए लिखा है-

“मैं ईश्‍वर का दोस्‍त नहीं हूँ
इसका सिर्फ़ एक ही कारण है
जिसकी जड़ें बहुत पुराने अतीत में हैं
जब छह लोगों का हमारा परिवार
एक तंग कमरे में रहता था
तब ईश्‍वर के पास बहुत बड़ा मकान था
जिसमें वह अकेले ही रहता था”

सबीर हका ने दुनियाँ भर की व्यवस्थाओं पर भी सवाल खड़ा करते हुए लिखा-

“मैं पूरी दुनिया को अपना कह सकता हूँ
दुनिया के हर देश को अपना कह सकता हूँ
मैं आसमान को भी अपना कह सकता हूँ
इस ब्रह्मांड की हरेक चीज़ को भी
लेकिन तेहरान के इस बिना खिड़की वाले
किराए के कमरे को अपना नहीं कह सकता,
मैं इसे अपना घर नहीं कह सकता।”

जब श्रमिक स्पर्धा में कविता का प्रथम पुरस्कार मिला तो इंटरव्यू देते समय पत्रकार ने पूछा कि आप थके हुए लग रहे हो तो जवाब में कहा-

” मैं थका हुआ हूँ, बेहद थका हुआ,
मैं पैदा होने से पहले से ही थका हुआ हूँ।
मेरी माँ मुझे अपने गर्भ में पालते हुए मज़दूरी करती थी, मैं तब से ही एक मज़दूर हूँ।
मैं अपनी माँ की थकान महसूस कर सकता हूँ।
उसकी थकान अब भी मेरे जिस्‍म में है।”

सबीर हका ने आगे कहा कि “कविताओं से पेट नहीं भरता। पेट भरने के लिए हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। मैं अपने कमरे के कोने में यह पुरस्कार रख दूंगा और ईंट-रोड़ा उठाने निकल जाऊंगा। पड़ोसी मजदूरों के बच्चे टूटी खिड़की से इस पुरस्कार को देखेंगे।”

एक गरीब के लिए,एक मजदूर के लिए साहित्य लेखन बहुत ही मुश्किल कार्य होता है।दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में ही जीवन संघर्ष चलता रहता है।अगर इसके बीच भी लिखना/बोलना शुरू कर दे तो तमाम राजनैतिक, सामाजिक,आर्थिक ताकतें दायरा दिखाने लगती है कि तुझ गरीब की इतनी हिम्मत!

सबीर हका ने मजदूरों की मौत को सबसे सस्ती बताते हुए लिखा है-

“क्‍या आपने कभी शहतूत देखा है!
जहां गिरता है, उतनी ज़मीन पर
उसके लाल रस का धब्‍बा पड़ जाता है.
गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं
मैंने कितने मज़दूरों को देखा है
इमारतों से गिरते हुए,
गिरकर शहतूत बन जाते हुए!”

सबीर हका लिखते हैं कि “पूरी जिंदगी मैंने महसूस किया है कि मौत भी जिंदगी का हिस्सा है फिर भी मरने से डर लगता है कि कहीं दूसरी दुनियाँ में भी मजदूर न बन जाऊं!”

गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकलना अपने आप मे जीवन की मुक्ति है अन्यथा हका जैसा युवा जो ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर देता है वो भी सदा मजदूर बने रहने से खौफजदा रहता है।

एक गरीब का ,एक मजदूर का दर्द खुद मजदूरी करने वाले सबीर हका जैसे लोग ही व्यक्त कर सकते हैं।

हका लिखते हैं कि मैं “चाहकर भी अपने कैरियर का चुनाव नहीं कर सकता।मैं बैंककर्मी नहीं बन सकता,मैं इन्स्पेक्टर नहीं बन सकता।मेरा पिता मजदूर थे।मेरी माँ मजदूर थी।किराये का मकान था।पिता के गुजरने के बाद मजदूर बनकर घर संभालना मजदूर बनने का जरूरी आधार बन गया।”

हर इंसान के अपने सपने होते है व सपनों को पूरा करने की चाहतें दिलों में समेटे रोज जिंदगी के संघर्ष में गतिमान रहता है।

सबीर ने लिखा कि जब मर जाऊंगा तो सारी किताबें कफ़न में बांधकर कब्र में ले जाऊंगा।सिगरेट जलाऊंगा और कस खींचते हुए रोऊंगा उन सपनों के लिए जो जिंदगी में प्राप्त न हो सके।एक डर फिर भी रहेगा कि किसी सुबह कोई कंधा झंझोड़कर न कह दें “अबे सबीर उठ!काम पर चलते है!”

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