एटलस 60 साल पुरानी कंपनी थी, अचानक ताला लगा 700 मज़दूरों को बाहर कर दिया, ज़िम्मेदार कौन?

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लगता है कि मोदी के संदेश ‘कोरोना संकट नहीं अवसर है’ का मंत्र भारत के पूंजीपति वर्ग को भा गया है।

लॉकडाउन की पहले सैलरी नहीं दी अब एक के बाद एक कंपनियों ने सालों से काम कर रहे परमानेंट मज़दूरों की छुट्टी करनी शुरू कर दी है।
इसी क्रम में साइकिल निर्माता कंपनी एटलस नया नाम सुर्खियों में आया है जिसने यूपी के साहिबाबाद प्लांट को अचानक बंद कर दिया।

इस कारखाने के अचानक बंद होने से दशकों से यहां काम कर रहे क़रीब 700 मज़दूर बेरोज़ग़ार हो गए।

प्राप्त जानकारी के अनुसार, कंपनी में काम चल रहा था लेकिन जब बुधवार को मज़दूर गेट पर पहुंचे तो वहां ताला लगा मिला और एक नोटिस चिपकी मिली।

इस नोटिस में लिखा था कि कंपनी के पास पैसे नहीं हैं और मज़दूरों को ले-ऑफ़ दिया जा रहा है।

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विश्व साइकिल दिवस के दिन लगाया ताला

इस बात को बेशर्मी ही कही जाएगी कि कंपनी ने उस दिन गेट पर ताला लगाया जिस दिन विश्व साइकिल दिवस मनाया जा रहा था।

एटलस कंपनी पहले ही अपने बाकी कारखाने बंद कर चुकी थी और ये उसका आखिरी कारखाना बचा था।

सोशल मीडिया पर लोग सवाल उठा रहे हैं कि 60 पुरानी इस कंपनी में अभी हाल तक हर साल क़रीब डेढ़ करोड़ साइकिल बनाई जाती थी, फिर अचानक कंपनी घाटे में कैसे चली गई? या तो प्रबंधन नकारा है या उसने कंपनी की पूंजी को कहीं और छिपा दिया है।

ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं का कहना है कि कंपनी ने बिना पहले नोटिस जारी किए तालाबंदी का फैसला करके ग़ैरक़ानूनी काम किया है।
लेकिन जब प्रदेश में कोई श्रम क़ानून ही नहीं है तो क़ानूनी और ग़ैर क़ानूनी कार्यवाही झगड़ा ही समाप्त हो चुका है।

बुधवार को जब एनडीटीवी का एक पत्रकार वर्करों से बातचीत कर रहा था तो एक वर्कर रो पड़ा।
कंपनी में परमानेंट और कैजुअल मिलाकर कुल 700 वर्कर थे।

कौन है ज़िम्मेदार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना संकट को अवसर में बदलने की बात कही थी और सभी राज्य सरकारों को श्रम क़ानून ख़त्म करने के लिए बढ़ावा दिया था।

इसके बाद योगी सरकार ने राज्य में तीन साल के लिए सभी श्रम क़ानूनों को रद्द कर दिया था।

राज्य के श्रमायुक्त सुधीर महादेव बोबड़े ने कहा था कि, ‘सूबे में अगर कहीं भी किसी फैक्ट्री या कंपनी में मजदूरों या कर्मचारियों के वेतन भुगतान संबंधी कोई शिकायत आती है तो उसमें श्रम विभाग कोई कार्रवाई नहीं करेगा। न एफ़आईआर दर्ज होगी। न ही दूसरी कोई कानूनी पहल। इस सिलसिले में अगर अफ़सर कुछ करना चाहता है तो उसे सबसे पहले उनसे यानी श्रमायुक्त से बात करना होगी।’

बीजेपी सरकारों से शह मिलने पर मालिकान पूरे देश में वर्करों को नौकरी से निकाल रहे हैं, उनकी सैलरी नहीं दे रहे हैं और धमकी दे रहे हैं कि कोर्ट में जाईए।

हरियाणा में भी बीजेपी सरकार है और वहां भी श्रम क़ानूनों की रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है। यहां रोज़ाना किसी न किसी फैक्ट्री में मज़दूरों को घर बैठाने की ख़बर आ रही है।

कोरोना संकट को अवसर मानने का ही नतीजा है कि मानेसर में श्रीराम इंजीनियर्स कंपनी में 50 परमानेंट वर्करों को निकाल दिया गया और 70 ठेका मज़दूर रख लिए गए।

लेकिन दूसरी तरफ़ मज़दूर आंदोलन कमज़ोर हुआ है क्योंकि परमानेंट वर्कर ठेका मज़दूरों को दोयम दर्ज़े का मानते रहे हैं और उनकी मांगों के लिए कभी मजबूती से आगे नहीं आए।

परमानेंट मज़दूरों ने खुद की नौकरी को पक्का समझा और श्रम क़ानूनों कै ख़िलाफ़ लड़ाई में रस्म निभाने से आगे नहीं गए। जिन ट्रेड यूनियनों से वे संबद्ध हैं, वो भी उन्होंने भी मज़दूरों को बरगलाया और सिर्फ चंद रुपये की बढ़ोत्तरी, बोनस, और अन्य सुविधाओं तक ही मज़दूर संघर्ष को सीमित रखा।

छंटनी का जो दौर चल रहा है, अगर इसमें मज़दूर अगर एकताबद्ध संघर्ष नहीं छेड़ते तो आने वाले समय में स्थिति और गंभीर होगी।

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