कोरोना वायरस और कोविड-19 से उपजी कुछ टेक्निकल और दार्शनिक बातें- नज़रिया

corona virus genetic structure

कोविड-19 की महामारी ने बहुत सारे लोगों को दार्शनिक बनने को मजबूर कर दिया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस महामारी ने ईश्वर, धर्म, बाबा-साधुओं इत्यादि को पृष्ठभूमि में ढकेल दिया है। इस तरह एक ही समय दोनों बातें हुई हैं। ईश्वर और धर्म पीछे हटे हैं जबकि लोगों की दार्शनिक प्रवृत्तियां जाग उठी हैं। वैसे जब कोई महामारी इस तरह सारी दुनिया को ठप कर दे तो इस पर कुछ दार्शनिक हो उठना स्वाभाविक है।

कुछ ज्यादा गंभीर किस्म के लोगों ने गंभीर दार्शनिक सवाल भी उठाये हैं। वैसे यह कहना ज्यादा सही होगा कि उन्होंने कुछ पुराने दार्शनिक मुद्दों को इस महामारी के संदर्भ में नये सिरे से उठाया है। लेकिन इन पर चर्चा करने से पहले इस बीमारी और इसके जनक वायरस के बारे में कुछ तकनीकी बात कर लेना बेहतर होगा।

कोविड-19 नाम की बीमारी कोरोनावायरस की नयी किस्म से पैदा हो रही है। इस वायरस को तकनीकी तौर पर SARS COV-2 नाम दिया गया है जिसका सरल सा मतलब यह है कि यह फेफड़े में गंभीर किस्म का निमोनिया पैदा करने वाले कोरोना वायरस का दूसरा संस्करण है। कोविड इससे पैदा होने वाली बीमारी है जिसका नामकरण 2019 में कोरोना वायरस से पैदा होने के कारण हुआ है।

वायरस एक खास तरह की जैविक चीज है। इसे जीव और निर्जीव की सीमा पर रखा जा सकता है। किसी भी जीव की दो विशेषताएं होती हैं। ये हैंः जिन्दा रहने के लिए अपने वातावरण से आदान-प्रदान और ऊर्जा की कोई व्यवस्था (उपापचय) तथा अपने जैसा जीव पैदा करना (पुनरुत्पादन)। एक कोशिकीय जीवों से लेकर इंसान तक सभी जीवों में ये दोनों विशेषताएं पाई जाती हैं। पर वायरस की खासियत यह है कि इसमें पहली विशेषता नहीं पाई जाती। ठीक इसी कारण इसे दूसरी विशेषता यानी पुनरुत्पादन के लिए भी किसी अन्य जीव पर निर्भर करना पड़ता है। इस तरह वायरस अपनी प्रकृति से ही परजीवी होता है। कोई भी वायरस किसी खास किस्म की कोशिका से ही जुड़ सकता है (संक्रमित कर सकता है)।

ऐसी कोशिका मिल जाने पर (यानी ऐसा जीव जिसमें इस तरह की कोशिका पाई जाती हो) वह उससे जुड़ जाता है और फिर उसमें प्रवेश कर जाता है। कोशिका में प्रवेश कर वह एक तरह से कोशिका की मशीनरी पर कब्जा कर लेता है और अपने जैसे वायरस बनाने लगता है। फिर यह इस तरह की अन्य कोशिकाओं में भी फैलता जाता है। इस प्रक्रिया में कोशिका नष्ट हो जाती है। किसी जीव में यदि महत्वपूर्ण कोशिकाएं ज्यादा संख्या में नष्ट हो जायें तो वह जीव भी मर सकता है। इस तरह वायरस कोशिका और जीव के लिए घातक साबित होता है।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि वायरस एक ऐसा परजीवी है जिसका प्रसार उसका एकमात्र लक्ष्य है। स्वप्रसार के अलावा उसका कोई और जीवन नहीं है। यदि इंसान के बारे में यह कहा जाये कि बच्चे पैदा करना और उनको पालना-पोसना ही उसका जीवन है तो यह बड़ी अजीब सी बात लगेगी। इंसान के जीवन में और भी बहुत कुछ है। दूसरे जीवों में भी पुनरुत्पादन के अलावा भी उनका अपना-अपना जीवन हैै। पर वायरस के साथ ऐसा नहीं है। वायरस का अपना कोई जीवन नहीं है। इस मायने में वह निर्जीव है। संक्रमित कोशिका से बाहर वह निर्जीव की तरह ही पड़ा रहता है। हां, किसी कोशिका को संक्रमित करने के बाद उसका पुनरुत्पादन होने लगता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पुनरुत्पादन की मशीनरी उसकी अपनी नहीं होती बल्कि संक्रमित कोशिका की होती है। इस तरह वायरस सम्पूर्ण परजीवी है जिसके होने का एकमात्र उद्देश्य है स्वप्रसार। इस मायने में यह पूंजी की तरह है। पूंजी का भी एकमात्र उद्देश्य होता है- स्वप्रसार। बाकी सारी चीजें तो उपउत्पाद हैं।

जैसा कि पहले कहा गया है स्वप्रसार की प्रक्रिया में वायरस संक्रमित कोशिका या यहां तक कि सम्पूर्ण जीव को नष्ट कर सकता है। कोरोना वायरस के मामले में भी यही होता है। इस वायरस से संक्रमित होने से पहले गला और फिर सांस की नली व फेफड़े संक्रमित हो जाते हैं। ज्यादा गम्भीर मामलों में फेफड़ों में संक्रमण से उपजा द्रव भर जाता है। इससे सांस लेने में तकलीफ होने लगती है। ज्यादा गंभीर मामलों में व्यक्ति मर भी सकता है। संक्षेप में यही कोविड-19 की बीमारी है।

वायरस न केवल जीव व निर्जीव की सीमा पर होते हैं बल्कि वे आकार में अत्यन्त छोटे भी होते हैं। उनकी जैविक संरचना भी अत्यन्त सरल होती है क्योंकि उपरोक्त से स्पष्ट है कि उनको जटिल संरचना की जरूरत भी नहीं है। वैज्ञानिकों में अभी एकमत नहीं है कि आखिर वायरस क्यों उत्पन्न हुए।

वायरस के बारे में उपरोक्त सामान्य सी जानकारी भी उस दार्शनिक सवाल को समझने में मदद करती है जो लोग उठा रहे हैं। यह सवाल इस अजीबोगरीब सच्चाई से पैदा हो रहा है कि एक छोटे से अदृश्य जीव ने, जो वास्तव में जीव भी नहीं है, उसने सारी मानवता का जीवन आज ठप कर दिया है। लोग दार्शनिक अंदाज में कह रहे हैं कि इस अदृश्य सूक्ष्म निर्जीव जीव ने सारी मानवता को बेबस कर दिया है। आखिर इसका क्या अर्थ लगाया जाये? क्या एक सूक्ष्म वायरस सारी मानवता से ज्यादा ताकतवर है? एकदम बुनियादी स्तर पर इस रिश्ते को कैसे समझा जाये?

इस तरह का दार्शनिक सवाल असल में बहुत सारी अनकही बातों को अपने भीतर छुपाये हुए है। इस तरह का सवाल पूछने वाले अक्सर ही इन अनकही बातों के प्रति सचेत नहीं होते। ध्यान से देखें तो इस सवाल के पीछे इस तरह की बातेंं निहित हैं : आज हम इंसानी जीवन को इतना महत्व देते हैं कि इसमें से थोड़े से लोगों को भी खतरा हमारे लिए बहुत बड़ी बात हो जाती है। खासकर तब जब खतरा शासक वर्ग के लोगों को भी हो। आज बाकी प्रकृति और इंसान के रिश्तों और स्वयं इंसानी प्रकृति की सही समझ न होने के कारण इंसान की ताकत के बारे में अजीबोगरीब खयालात हैं। ये खयालात अजीब धारणाओं को पैदा करते हैं। इन सबसे भी आगे बढ़कर इस तरह की महामारियों के समय व्यक्ति, समाज और शासक वर्ग की प्रतिक्रिया कैसी होगी, यह उस समय की सामाजिक स्थिति से तय होता है। पूरा जीवन ठप होगा कि नहीं, यह हवा में तय नहीं होगा।

मामले को समझने के लिए कल्पना करें कि इस तरह का वायरस संक्रमण किसी आदिम कबीलाई समाज में हो तो क्या होगा? तब होगा यही कि कबीलाई जीवन आम गति में चलता रहेगा। लोग घबरायेंगे, दुःखी और परेशान होंगे पर जीवन ठप नहीं होगा। संक्रमित लोगों में कुछ की मृत्यु हो जायेगी बाकी लोग बच जायेंगे और उनके अंदर इस वायरस के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाऐगी। फिर वायरस का प्रकोप खत्म हो जाएगा। उस कबीलाई समाज को कम या ज्यादा जानों का नुकसान उठाना पड़ेगा पर फिर जीवन यथावत चल पडे़गा। ऐसा कभी नहीं होगा कि किसी महामारी से समूचा जीवन खत्म हो जाये। यदि ऐसा होता तो मानवता यहां तक पहुंची ही नहीं होती क्योंकि अपने तीन लाख सालों के जीवन काल में वायरस और बैक्टीरिया से लड़ने की क्षमता इंसान ने अभी पिछले डेढ़ सौ साल में ही विकसित की है।

महामारियां कबीलाई समाज में भी लोगों के जेहन में सवाल पैदा करती रही होंगी पर वे सवाल उस तरह के नहीं रहे होंगे जैसे आज उठते हैं। यह उसी तरह हैं जैसे तब महामारियां के खिलाफ प्रतिक्रिया आज की प्रतिक्रिया से भिन्न थी।

इस तरह देखें तो महामारियां के बारे में उठे इस तरह के दार्शनिक सवाल आज की जमीन से पैदा होते हैं। इसीलिए इनका उत्तर भी आज के हिसाब से दिया जाता है। गड़बड़झाला तब होता है जब इस सवाल-जवाब को अमूर्त बनाकर आम तौर पर पेश कर दिया जाता है।

पूंजीवादी समाज के खास तरह के विकास ने इस बुनियादी बात को आखों से ओझल कर दिया है कि इंसान इस प्रकृति का हिस्सा है और उससे परे नहीं जा सकता। इस प्रकृति में सजीव और निर्जीव दोनों होते हैं। सजीव प्रकृति के साथ तो उसका और भी एक खास तरह का रिश्ता है। इस रिश्ते के कारण ही वायरस और बैक्टीरिया से संक्रमित होना एकदम सामान्य बात है। यहां यह याद रखना होगा कि यह संक्रमण हमेशा हानिकारक नहीं होता। कोई भी इंसानी जीवन ऐसा नहीं हो सकता जिसमें इंसान वायरस या बैक्टीरिया से संक्रमित न हो।

इंसान की ताकत इसमें नहीं है कि वह वायरस या बैक्टीरिया से संक्रमित नहीं होगा। उसकी ताकत की पहचान इसमें है कि वह इसका मुकाबला कैसे करेगा और यह इंसान की किसी प्रकृति से नहीं बल्कि समाज व्यवस्था से तय होगा। स्वयं वायरस-बैक्टीरिया से मौत को भी इंसान कैसे लेगा यह समाज से तय होगा। ठोस तौर पर बात करें तो इस महामारी के समय सारी दुनिया को ठप करना ही क्या एकमात्र विकल्प था? जैसा कि चीन के अनुभव से ही पता चल चुका था, यह बीमारी बुजुर्ग लोगों के लिए ही जानलेवा साबित हो रही है।

ऐसे में भिन्न किस्म के समाज में इस बीमारी से बुजुर्ग लोगां के बचाव की एक चाक-चौबंद व्यवस्था कर दी जाती और बाकी समाज को ठप करने की जरूरत नहीं पड़ती। बाकी आर्थिक और सामाजिक जीवन सामान्य तौर पर चलता रहता। लेकिन आज यह संभव नहीं है हालांकि कई लोगां ने इस तरह की वकालत की है। इस तरह आज जीवन के ठप हो जाने के पीछे के आर्थिक-राजनीतिक कारण को ओझल कर इस पर अमूर्त ढंग से विचार करना और फिर इसे दार्शनिक रूप दे देना पूरे मामले को गलत ढंग से पेश करना है। लेकिन आज के पूंजीवादी विचारकों से इससे बेहतर की उम्मीद नहीं की जा सकती। आज किसी वायरस के कारण पूरी दुनिया ठप नहीं है बल्कि पूंजीवादी समाज व्यवस्था की खास गति के कारण ऐसा है। आज एक अदने से वायरस के सामने सारी मानवता बेबस नजर आ रही है तो इसका कारण भी वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की गति ही है। इसमें कभी पूंजी की उठा-पटक के सामने मानवता बेबस नजर आती है तो कभी वायरस के सामने।

मामले को अमूर्त रूप में देखने ओैर पेश करने के कारण ही नैतिक दुविधा वाले दार्शनिक सवाल भी पेश किये जाते हैं। कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या बूढ़े लोगों की जान बचाने के लिए सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था को चौपट करना तथा इस तरह सारी ही आबादी की जिन्दगी को मुश्किल में डालना उचित है? अपनी बात में वजन डालने के लिए वे यह भी कहते हैं कि इस तरह अर्थव्यवस्था के चौपट होने से इसके परिणाम के तौर पर अप्रत्यक्ष तरीके से इससे ज्यादा आबादी मौत की शिकार हो जायेगी। अपने भौंड़े रूप में सवाल इस रूप में भी पेश है कि क्या बूढ़े लोगों को बचाने के लिए बच्चों और जवानों की बलि दे दी जाये जबकि समाज के भविष्य वे ही हैं।

वैसे यह सवाल पूंजीवादी नैतिक शास्त्र में एक चर्चित सवाल का ही दूसरा संस्करण है। सवाल इस रूप में पेश किया जाता है कि क्या ज्यादा लोगों को बचाने के लिए कुछ लोगों की जान-बूझकर बलि दी जा सकती है? क्या ऐसा करना नैतिक होगा? पूंजीवादी नीति शास्त्र में इस सवाल को पेश करने के लिए कुछ खास किस्म की स्थितियां की कल्पना की जाती है जो वास्तव में पेचीदा होती हैं।

लेकिन क्या कोरोना वायरस के ठोस मामले में स्थितियां वास्तव में इतनी पेचीदा हैं। इन्हें पेचीदा माना जा सकता है जब आज की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को अपरिवर्तनीय मान लिया जाये। लेकिन यदि कोई इन्हें अपरिवर्तनीय न माने तो सवाल भिन्न रूप में पेश हो जाता है। आखिर ऐसा क्यां हो कि बूढे़ लोगां की जिन्दगी को बाकी समाज की जिन्दगी के सामने खड़ा कर दिया जाये? या तो यह या तो वह का विकल्प क्यां खड़ा किया जाये? दोनों को एक साथ करने का रास्ता क्यों न निकाला जाये?

पर सच्चाई यही है कि ऐसा करने के लिए वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को लांघना पड़ेगा। और पूंजीवादी विचारक ऐसा नहीं कर सकते। यदि वे ऐसा कर सकते तो कहते कि भले ही वर्तमान महामारी में ऐसा न किया जा सके पर भविष्य के लिए जरूरी है कि समूचा आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का रूपान्तरण हो। तब उनके लिए वर्तमान संकट का सबसे मूलभूत निष्कर्ष यही होता।
मजे की बात यह है कि इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचने के बदले भारत जैसे देश में उलटा हो रहा है जहां बंदी से सबसे भयंकर परिणाम सामने आया है। यहां यह बात नहीं की जा रही है कि इस संकट ने देश की शोचनीय स्वास्थ्य व्यवस्था की वास्तविक हालत को हर किसी के सामने उजागर कर दिया है और इसे दुरुस्त करने के लिए कदम उठाये जाने चाहिए। उलटे यह बात की जा रही है कि इस संकट का फायदा उठाकर आर्थिक सुधारों को और आगे बढ़ाना चाहिए, उन सुधारों को जिन्होंने जनता की जिन्दगी और स्वास्थ्य व्यवस्था को पहले ही चौपट कर रखा है तथा जिसके कारण पूरे देश की बंदी शासकों के सामने एकमात्र विकल्प बन गयी। तर्क यह दिया जा रहा है कि भारत केवल संकट की अवस्था में ही आर्थिक सुधारों के लिए तैयार हो सकता है और देश इस समय गंभीर संकट की अवस्था में है। इस संकट का फायदा उठाया जाना चाहिए। पूंजीपति वर्ग की जय हो!

एक आखिरी दार्शनिक सवाल पर्यावरणवादियों की ओर से। पर्यावरणवादी यह कह रहे हैं कि इस तरह की महामारी प्रकृति के साथ इंसान द्वारा किये जा रहे अतिशय छेड़छाड़ का नतीजा है। इसके पीछे तर्क यह है कि कोरोनावायरस उन जंगली जानवरों से इंसानों में फैला जिन्हें चीन में खाने के लिए लाया जा रहा था।

इस बारे में पहली बात तो यही है कि यह तथ्य पूरी तरह से प्रमाणित नहीं है। लेकिन यदि यह सच भी हो तो इससे बड़ा सच यह है कि इंसान अपने को बाकी प्रकृति से पूरी तरह काट नहीं सकता। बल्कि कहा जाये तो आज की सभ्यता की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि इसने प्रकृति से खुद को काटकर उसके खिलाफ खड़ा कर लिया है। जरूरत इस विलगाव को बढ़ाने की नहीं बल्कि उसे खत्म करने की है। ऐसा होने पर बाकी सजीव प्रकृति से इंसान की अंतर्क्रिया बढ़ेगी ही।

यानी यहां भी सवाल को ग़लत तरीके से पेश किया जा रहा है। इस संबंध में इस बात को फिर रेखांकित करने की जरूरत है कि वायरस और बैक्टीरिया भी उसी तरह जैविक जगत का हिस्सा हैं जैसे इंसान। यदि इंसान हानिकारक वायरस और बैक्टीरिया के खिलाफ खुद को लैस कर रहा है तो सामान्य प्रकृति की गति में वायरस और बैक्टीरिया भी रूपान्तरित हो रहे हैं। यह आगे भी चलता  रहेगा। बात केवल इतनी भर है कि क्या इनसे इंसानी जीवन को होने वाली हानि को कम से कम करने की व्यवस्था की जा रही है? और क्या इसके लिए सामाजिक व्यवस्था में जरूरी बदलाव किये जा रहे हैं।

दुर्भाग्यवश पिछले तीन-चार दशकों का पूरी मानव सभ्यता का विकास उलटी दिशा में रहा है। आज इस तथ्य को सबसे ज्यादा रेखांकित किये जाने की जरूरत है। ऐसा करने के बदले यदि ठोस आर्थिक-राजनीतिक सवालों को दार्शनिक जामा पहनाया जाता है तो यह महज पूंजीवादी व्यवस्था की हिफाजत की कोशिश ही होगी, भले ही कोशिश को कैसे भी शब्दों में पेश किया जाये।

(ये आलेख मज़दूर पत्रिका नागरिक से लिया गया है। इसमें दिए गए विचार पूरी तरह पत्रिका के हैं।) 

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