कश्मीरी नौजवानों ने ज़िंदा रहने के लिए अपने फ़ोन बेचे, आधार कार्ड गिरवी रखना पड़ा

By शमीन अलाउद्दीन

24 मार्च को देश के प्रधानमंत्री ने जब कोरोना वायरस को रोकने के लिए दुनिया का सबसे बड़ा देशव्यापी लॉकडाउन घोषित किया, उस समय 21 साल के उमर फ़ारूख़ ये संबोधन नहीं सुन पाए।

दक्षिणी-पश्चीम दिल्ली के माताचौकपुर में किराए के कमरे में इतनी जगह नहीं थी कि उसमें टेलीविज़न रखा जा सके।

उमर अपने दो अन्य साथियों के साथ रहते हैं। वो और उनके छह साथी दिल्ली में दिहाड़ी मजदूरी का काम करते हैं। ये सभी जम्मू-कश्मीर के सोपोर ज़िले के रहने वाले हैं।

चूंकि देश की राजधानी में आर्थिक गतिविधि इस साल की शुरुआत से ही कमज़ोर पड़ने लगी थी, इन सभी नौजवानों को 16 फ़रवरी को आख़िरी बार काम मिला था।

कोरोना वायरस के बढ़ते कहर को रोकने के लिए जब लॉकडाउन की घोषणा हुई, उसके कुछ दिन बाद ही जो पास में पैसे बचे वो भी खत्म हो गए।

हालांकि आम आदमी सरकार ने एक करोड़ राशन कार्डधारकों और 30 लाख गैर-राशन कार्डधारकों के लिए मुफ्त राशन देने की घोषणा की थी, साथ ही शहर के हज़ारों लोगों के लिए पका हुआ भोजन देने की भी घोषणा की, लेकिन ज़मीन पर इन घोषणाओं के उतरने में काफ़ी कमियां भी नज़र आईं।

कुछ लोगों से राशन कार्ड के साथ आधार कार्ड की मांग की गई, तो वहीं कुछ लोगों को अपने राशन कार्ड के साथ पत्नी का आधार कार्ड भी लाने को कहा गया।

बिना राशन कार्ड वालों को राशन देने से मना कर दिया गया। पका भोजन बांटने की खबरें तो लोगों तक पहुंचीं लेकिन भोजन नहीं पहुंचा। अगर किसी को भोजन मिला भी तो वे उसकी क्वालिटी से नाखुश नज़र आए।

बिहार का राशन कार्ड धारक 42 साल के राकेश कुमार कहते हैं, “दो हफ़्ते से अधिक समय तक हमने किसी तरह ज़िंदा रहने के लिए संघर्ष किया। कुछ दिन मैं, मेरी पत्नी और आठ साल का बेटा नमक और चावल खा कर गुजारा किया।”

राकेश एक कपड़े के कारखाने में सिलाई कारीगर हैं।

राकेश को नहीं पता था कि शकूरपुर में उनके घर से बमुश्किल दो किलोमीटर दूर एक सामुदायिक केंद्र में दिन में दो बार मुफ्त में पका भोजन दिया जा रहा है।

जब उन्हें पता चला तो वो खाने की आस में वहां गए और तपती धूप में दो घंटे तक लाइन में खड़े रहे।

राकेश कहते हैं, “जब भोजन मिला तो उसका स्वाद बासी खाने जैसा आ रहा था और दाल में छोटे कंकड़-पत्थर भी थे, लेकिन केवल नमक चावल से तो बेहतर ही था।”

लेकिन, सात कश्मीरी नौजवानों के लिए लॉकडाउन फिर से बढ़ने के कारण मुश्किलें होने लगीं।

जिन लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है उनेक लिए अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली सरकार ने ऑनलाइन आवेदन की एक स्कीम शुरू की।

इस योजना का लाभ उठाने के लिए व्यक्ति के पास एक स्मार्ट फ़ोन होना चाहिए और इंटरनेट चलाना आना भी।

सात नौजवानों में से केवल तीन के पास स्मार्टफ़ोन था।

उमर बताते हैं, “हमने ऑनलाइन आवेदन करने की कोशिश की, लेकिन बार-बार रीफ्रेश करने से भी कोई कामयाबी नहीं हासिल हुई। हम उम्मीद कर रहे थे कि जब इंटरनेट कनेक्शन ठीक से आएगा तो हमारा फॉर्म जमा हो जाएगा।”

भर्राए गले से उमर कहते हैं, “सैकड़ों कोशिशों के बाद, हमने कई बार ज़िलाअधिकारी को फ़ोन करने की कोशिश की, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ।”

जब कहीं से भोजन और पैसा नहीं मिला तो इनमें से दो नौजवानों ने भोजन जुटाने के लिए अपने फ़ोन बेच दिए।

अजहर राशिद ने अपने 9,000 रुपये के फ़ोन को केवल 2,200 रुपये में बेच दिया जबकि जफ़र अहमद ने अपने 5,500 रुपये के फ़ोन को केवल 500-600 में ही बेच दिया।

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सात आदमियों में केवल एक का ही फ़ोन किसी से संपर्क करने के लिए बचाकर रख लिया।

दो वक्त का खाना मिल सके इसलिए 8,700 रुपये का ज़रूरी सामान खरीदा। इस तरह ये सभी लोग एक महीने तक गुजारा करते रहे।

पर 30 अप्रैल तक वो पैसा भी ख़त्म हो गया। एक बार फिर सातों आदमी भूखे सोने को मजबूर हो गए।

सबसे बुरा समय तब शुरू हो गया जब इनमें से एक आदमी बुरी तरह बीमार पड़ गया और उसे फौरन इलाज की ज़रूरत पड़ गई।

उमर बताते हैं, ‘मैं मेडिकल स्टोर पर गया और बुखार की दवा देने के लिए आग्रह करने लगा। पर पैसे ना होने के कारण उसने दवा देने से मना कर दिया। फिर मैंने उससे अपना आधार कार्ड गिरवी रखने को कहा और वो मान गया। उसने मुझे 200 रुपये की दवा दे दी।

उमर कहते हैं कि जब आधार कार्ड वाला तरीका काम आ गया तो फिर से उन्होंने दो और आधार कार्ड को 600 रू. में गिरवी रख दिया केवल 100 रुपये के राशन के लिए।

इन सारी मुश्किलों में एक और मुश्किल शामिल हो गई। रूम मालिक किराया देने का दबाव बनाने लगा। 3,700 रू. उस रूम का जिसमें तीन आदमी रहते हैं और पांच हजार उस रुम का जिसमे 4 आदमी रहते हैं।

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ये सारी मुसीबतें तब आ रही थीं जब सरकार ने साफ़ तौर पर किरायेदारों से किराये के लिए परेशान न करने के निर्देश जारी किए थे। आठ मई को मकान मालिक ने उन आदमियों से कहा ‘शाम तक 3,700 दे देना वरना घर खाली कर देना।

जब उमर ने पैके की मदद के लिए अपने पिता से संपर्क करने की कोशिश की, तो संर्पक नहीं हुआ। फिर उन्हें पता चला कि 6 मई से कश्मीर में मोबाइल और इंटरनेट सेवाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

आखिर में वे सभी लोग पुलिस के पास सहायता के लिए पहुंचे। पुलिस ने मकान मालिक से कहा कि जबतक लॉकडाउन खत्म नहीं हो जाता इन्हें बिना किराए के रहने दिया जाए।

अब रहने को छत तो मिल गई थी पर घर में पड़े बर्तनों में पकाने के लिए कुछ भी नहीं था।

अपनी उम्मीदों पर पानी फिरता देख उमर ने मज़दूरों के मुद्दों को उठाने वाले मीडिया संगठन “वर्कर्स यूनिटी” के संस्थापक संपादक संदीप राउजी को फ़ोन किया।

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वर्कर्स यूनिटी हेल्पलाइन की ओर से नोएडा सेक्टर 15 में नया बांस इलाक़े में पश्चिम बंगाल के 14 मज़दूर परिवारों को मदद।

वर्कर्स यूनिटी की ओर से एक हेल्पलाइन शुरू की गई थी जिसके माध्यम से एनसीआर में फंसे हुए मज़दूरों के लिए राशन की व्यवस्था की जा रही थी।

हेल्पलाइन की ओर से उमर और उनके साथियों को पहले 15 दिनों का राशन और बाद में कुछ और पहुंचाई गई।

उमर ने बताया कि लॉकडाउन-3 के अंतिम दिन 17 मई को इन नौजवानों का आधार कार्ड छुड़ाने में वर्कर्स यूनिटी ने मदद किया।

दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के ब्रिजवासन विधानसभा क्षेत्र के आम आदमी पार्टी के विधायक भूपिंदर सिंह जून ने कहा “हम हर दिन अधिक से अधिक लोगों की मदद करने की कोशिश कर रहे हैं। हर दिन हम 700-800 लोगों को खाने के पैकेट बांट रहे हैं और इसके अलावा पास के सरकारी स्कूलों में कम से कम 1,000 लोगों को रोजाना खाना खिला रहें हैं। यदि ई-कूपन किसी को नहीं मिल पा रहा है तो हम उसे सूखा राशन दे रहे हैं।”

वर्कर्स यूनिटी हेल्पलाइन की ओर से गुड़गांव के झारसा गांव में 16 परिवारों को राशन दिया गया। इन परिवारों में से एक गर्भवती महिला भी थी।

यह पूरी तरह से साफ़ हो गया है कि जिन लोगों ने इस देश का 85 फीसदी कार्यभार संभाला था वही इस समय सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं।

उनकी रोजी-रोटी चली गई और आनेवाला भविष्य धुंधला हो गया है।

भारत में भले ही COVID-19 ने इटली और स्पेने जैसे विकसित देशों की तरह कहर न बरपाया हो लेकिन इसने बेशक दो मुद्दों सबके सामने लाकर रख दिया है- किसी आपातकाल से निपटने में केंद्र और राज्य सरकारों की अक्षमता और दूसरे अपने देश में अंदर तक पैठी सामाजिक असमानता।

(हिंदी रूपांतरणः खुशबू सिंह)

ये कहानी न्यूज़ वेबसाइट द फ़ेडरल से साभार। मूल अंग्रेज़ी कहानी को यहां पढ़ सकते हैं।

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