कोरोना में गौमूत्र पीने की अपील हुई तो कितने लोगों ने पिया?

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By गौहर रज़ा

अस्सी के दशक में बहुत से बाबा आए। लगा जैसे बाबाओं की खेती उग आई हो। ये बाबा आए और अंधविश्वासों के सहारे समाज को पीछे खींचने लगे।

इन बाबाओं ने लोगों को बेवकूफ बनाकर उनसे पैसे बनाए और अपनी अंधविश्वास की फैक्ट्री लगाई, चैनल बनाए, मठ बनाए और सत्ता अपनी स्थापित की। अस्सी के दशक के नेता इन बाबाओं के शरण में गए। बाबा राजनेता और पूंजिपतियों ने मिलकर गठबंधन तैयार किया।

आजादी के समय के नेता यानी गाँधी-नेहरू-पटेल-अम्बेडकर बेहतरीन दिमागों की परवरिश के बीच से रहकर आए थे इसलिए वो समाज को आगे ले जाने के लिए तर्कशील, वैज्ञानिक दृष्टकोण और साइंटिफिक टेंपर वाला बनाना चाहते थे।

पर 80 के दशक और उसके बाद के नेता बाबाओं के बीच में परवरिश पाए, इसलिए वो समाज को पीछे ले जाना चाहते हैं।

वो मजदूरों किसानों गरीबों को अंधविश्वास और रुढ़ियों में जकड़ना चाहते हैं ताकि वो सवाल न पूछ सकें, अपना हक़ न माँग सके।

कोरोना के बाद का भारत पर पूरी परिचर्चा का पहला भाग यहां देखें

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प्राइवेट मीडिया ने बाबाओं प्रोडक्ट बना दिया

आज़ाद प्राइवेट मीडया आया तो हमने सोचा कि मीडिया जनता तक विज्ञान और तकनीकि को पहुँचाएगा। लेकिन हम ग़लत साबित हुए। साइंस और टेक्नोलॉजी के बजाय मीडिया बाबाओं को एक प्रोडक्ट की तरह लोगों तक पहुँचाने लगा। और इस तरह मीडिया के स्तर पर भी समाज को पीछे ढकेलने की कोशिश की गई। पर ऐसा हुआ नहीं।

मजदूरों और किसानों ने अंधविश्वास को नकार दिया। पीपल्स साइंस मूवमेंट का भी असर हुआ है। पिछले ही दिनों हमने देखा जब सूर्य ग्रहण की घटना हुई थी। लोग अंधविश्वास को नकारते हुए घरों से बाहर निकले और लोगोम ने सूर्य ग्रहण को देखा भी।

ये हमारा समाज है जो तर्क वितर्क और विज्ञान को स्वीकार कर रहा है। पर ये टीवी पर नहीं दिखेगा। टीवी पर दिखेगा मिथकों में साइंस को जबर्दस्ती थोपने की कोशिश। प्रधानमंत्री कहता है गणेश की प्लास्टिक सर्जरी हुई थी।

वो नाले की गैस से चाय बना देते हैं, वो तक्षशिला को बिहार में स्थापित कर देते हैं, वो बादलों के पीछे से जाकर हमला कर आते हैं। उन्हें राडार टेक्नोलॉजी के बारे में कुछ नहीं पता है। कनाडा में जाकर ए वर्ग प्लस बी वर्ग का सूत्र ग़लत बताते हैं।

ये उनकी नहीं हमारे देश की इज़्ज़त पर हमला है, इसे बस इतना ही नहीं मान लेना ठीक नहीं। दरअसल ये अंधविश्वास को बढ़ावा देने, समाज को पीछे ढकलने की कोशिश है।

जब प्रधानमंत्री तर्कशील होते हैं तो अनुसंधान संस्थान बनाते हैं जैसे नेहरु ने बनाए। और जब प्रधानमंत्री अंधविश्वासी होता है तो वो नाले पर गैस बनाता है। अनुसंधान संस्थाओं को तोड़ता है उनका फंड खत्म कर देता है। और सरस्वती नदी की खोज और संजीवनी खोज के प्रोजेक्ट में पैसे पानी की तरह बहाता है।

देश का एक सांसद कहता है हमें डार्विनवाद में विश्वास नहीं है इसलिए इसे कोर्स से हटा दो। वो टीवी पर बकवास कर करके हमारे बच्चों को अंधविश्वास में झोंकते हैं और अपने बच्चे ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज में पढ़ने भेजते हैं।

पाकिस्तान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के पनपने ही नहीं दिया गया। साइंटिफिक टेंपर को कभी मजबूत होने का अवसर ही नहीं दिया गया। समाज के साइंटिफिक टेंपर पर हमला हुआ तो वहां के लोकतंत्र पर हमला हुआ। यही कारण है कि पाकिस्तान हमेशा अंधविश्वास ख़ून खराबे और पिछड़ेपन में फँसा रहा।

कोरोना काल में 90-95 प्रतिशत जनता ने विज्ञान का पक्ष लिया

मजदूरों किसानों गरीबों पर हमला करने के लिए पहले उनके साइंटिफिक टेंपर और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर हमला किया जाता है। क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर हमला किए बिना मजूदरों और किसानों पर हमला किया ही नहीं जा सकता।

लेकिन कोरोना काल में आप देखेंगे कि इस देश के किसानों और मजदूरों ने अंधविश्वास को नकार दिया है। मुल्लाओं ने कहा कि कुरान की आयतें पढ़िए कोरोना नहीं होगा। लेकिन लोगों ने उनकी नहीं सुनी और मस्जिदों में ताला लगा दिया। गौमूत्र पीने की अपील की गई पर बताइए कितने प्रतिशत लोगों ने गौमूत्र पिया या गोबर का लेप किया।

कोरोना देवी की पूजा हर जगह नहीं हुई। कोरोना के समय में 90-95 प्रतिशत जनता ने विज्ञान का पक्ष लिया। बहुत छोटा हिस्सा सिर्फ़ 7 प्रतिशत लोगों ने अंधविश्वास और नींबू मिर्च का सहारा लिया। कोरोना से निपटने के लिए गौमूत्र पर महज 2% लोगों ने, हवन में 5 %, ताली-थाली में 2% लोगों ने यक़ीन किया।

कोरोना काल के बाद प्रबुद्ध जनों का दायित्व

कोरोना काल के बाद आगे आने वाले समाज में जनता को तर्क वितर्क विज्ञान अपनाने पर जोर देना होगा। पर ये अपने आप नहीं होगा इसके लिए हमें प्रयास करना होगा। सवाल पूछना होगा। हमें बताना होगा कि मजदूर अपने गांव से निकलकर शहर आए। शहरों में उन्होंने फैक्ट्रियाँ बनाई। फैंक्ट्रियों ने पूँजिपतियों के लिए पैसे बनाए। लेकिन जब शहरों में कोरोना का कहर आया तो केवल 4 घंटे में पूंजीपतियों ने कह दिया कि अब तुम्हारा हमसे कोई लेना देना नहीं है।

अब तक तुमने हमारे लिए दौलत पैदा की है लेकिन अब कोरोना की वजह से दौलत पैदा होना बंद हो गई है अब तुम्हारा काम नहीं हैं। तुम वापिस उसी जगह उसी भूख में लौट जाओ जहां से तुम निकलकर आए हो। अब हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं है।
और इस सरकार ने भी हमारे साथ वही किया जो इनके आकाओं ने बताया था। अपने रहमों करम पर छोड़कर सरकार भी पूँजीपतियों के साथ हो ली और गरीब जनता को छोड़ दिया भूख से मरने के लिए।

जबकि एक तर्कशील सवाल पूछेगा सरकार से कार्पोरेट से कि आपदा के समय तुमने उस पूँजी को क्यों नहीं ले ली जो मजदूरों ने फैक्ट्री में बनाए थे। अपने खून और पसीने से। किसानों के ख़ून और पसीने से। वो देश की संपत्ति है। फिर उसे इस आपदा के समय में पूरी तरह से पूँजीपतियों से क्यों नहीं ले ली गई। आपदा में सबसे ज़्यादा भागीदारी किसान मजदूर की ही क्यों होगी, कार्पोरेट की क्यों नहीं होगी? वो पूँजी कार्पोरेट से क्यों नहीं ली गई जबकि वो देश की संपत्ति है।

लेकिन ये अपने आप नहीं होगा। इसके लिए हमें मेहनत करना होगा। कोरोना के बाद हमें ये मेहनत करके ये संघर्ष बढ़ाना होगा। यही मौका है। ये मौका खो देते हैं तो फिर ये समाज एक यूटर्न भी ले सकता है। दूसरे देशों में ऐसा हुआ है। आपको और हमें ये फैसला करना होगा कि हम एक तर्कशील समाज के निर्माण के लिए कोरोना के बाद के वक़्त में क्या कुछ करेंगे।

(‘कोरोना के बाद का भारत’ श्रृंखला के अंतर्गत तर्कवादी समाज का निर्माण विषय पर आयोजित एक ऑनलाइन सेमिनार में वर्कर्स यूनिटी के फेसबुक लाइव में बोलते हुए मशहूर वैज्ञानिक, समाजिक कार्यकर्ता और ग़ज़लगो गौहर रज़ा ने अपनी बातें रखीं। इसे टेक्स्ट में रूपांतरित किया है स्वतंत्र पत्रकार सुशील मानव ने।)

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