पेट्रोल पर लूट-6ः तेल की बढ़ी क़ीमतों के ख़िलाफ़ कई देशों की सत्ता पलट गई, बर्बर तानाशाह तक नहीं बचे

nigeria protest against petrol price hike

 By एसवी सिंह

पेट्रोलियम पदार्थों के दाम जनता के लिए कितना अहमियत रखते हैं इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे लेकर दुनिया भर में कई बार जनता बगावत पर उतर आई।

यहां तक कि कई देशों में दशकों से चली आ रही बर्बर तानाशाही को भी उखाड़ फेंका। अगर याद हो तो 2014 के पहले भारत में भी बीजेपी ने कांग्रेस की मनमोहन सिंह के ख़िलाफ़ जमकर प्रदर्शन किए।

स्मृति ईरानी और बीजेपी नेताओं का खाली गैस सिलेंडर लेकर और बैलगाड़ी पर बैठकर प्रदर्शन करने की तस्वीरें उस दौरान काफ़ी वायरल हुईं।

यहां तक कि उस लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के बड़े बड़े पोस्टरों में एक इस पर भी पोस्टर था जिसका स्लोगन था- बहुत हुई जनता पर पेट्रोल डीज़ल की मार, अबकी बार मोदी सरकार।

बीजेपी का बैलगाड़ी प्रदर्शन तो बहुत पुराना है। 1973 में जब पेट्रोल डीज़ल के दाम इंदिरा गांधी सरकार ने बढ़ाए तो बीजेपी (तब जनसंघ) के नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी बैलगाड़ी में बैठकर संसद पहुंचे थे।

यहाँ ऐसी तीन सत्ताओं का उदाहरण प्रस्तुत है जहाँ शासकों ने खुद को ख़ुदा समझा और जनता जब बग़ावत पर उतरी तो उसने उन्हें मिट्टी में मिला दिया।

Petrol modi add

इंडोनेशिया के बर्बर सुहार्तो की सत्ता चली गई

21 मई 1998 को इंडोनेशिया के सुहार्तो नाम के ऐसे खूंख्वार, मानवद्रोही तानाशाह का पतन हुआ जिसने पूरे 32 साल तक अपने ही लोगों का नरसंहार किया, लाखों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं-नेताओं का क़त्ल किया, मानवाधिकार-नागरिक अधिकारों को पैरों तले कुचला और ईस्ट तिमोर के 2 लाख से अधिक लोगों का सामूहिक कत्लेआम किया।

तेल मूल्य वृद्धि और सरकार में व्याप्त व्यापक भ्रष्टाचार के विरोध में इंडोनेसिया की त्रिशक्ति विश्वविद्यालय के छात्रों के शानदार, ऐतिहासिक आन्दोलन को कौन भूल सकता है?

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12 मई 1998 को छात्रों के शांतिपूर्वक चल रहे आन्दोलन पर ज़ालिम सुहार्तो ने गोली चलाने का आदेश दिया। इस चिंगारी ने देशभर में भयानक दावानल का रूप ले लिया। ज्वालामुखी फूट निकला।

देशभर में छात्र अपने कॉलेज-युनिवेर्सिटी छोड़ सडकों पर आ गए, हाथ में आधे झुके झंडे और होठों पर अपने शहीद कामरेडों की याद में गीत। जन समुदाय भी छात्रों के साथ हो गया। सुहार्तो नाम के दरिंदे का सिंहासन चरमराकर धूल में मिल गया।

बर्मा की ‘नारंगी क्रांति’

हमारे पूर्वी पड़ोसी देश म्यांमार में सैनिक तानाशाहों के लम्बे चले बर्बर और निरंकुश शासन के पतन की बात 2007 की है। लोगों को फौजी बूटों से दबाकर, कुचलकर रखने वाले तानाशाही शासकों ने तेल के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को हटाने का फैसला लिया।

नतीजा ये हुआ कि तेल के दाम 100% और गैस के दाम 500% बढ़ गए। सत्ता वर्ग की इस हिमाक़त ने उस ट्रिगर का काम किया जिसकी ज़रूरत आम जन मानस को क्रियाशील होने के लिए हमेशा होती है। लोग घरों से निकल सडकों पर आ गए।

छात्रों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ बहुत सारे बौद्ध भिक्षु (मोंक) भी जुड़ गए जिनकी वेशभूषा नारंगी रंग की होती है। इसीलिए इस सशक्त जन आन्दोलन को नारंगी क्रांति के नाम से जाना जाता है।

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जन आक्रोश आन्दोलन देश भर में फ़ैल गया और कहीं भी कोई हिंसा की वारदात नहीं हुई। आन्दोलन पूरी तरह शांतिपूर्ण रहा लेकिन फासिस्ट फौजी शासकों ने वही किया जो हर फासिस्ट मरने से पहले ज़रूर करता है।

फ़ौज को गोली चलाने का हुक्म हुआ, फौज ने माना, कम से कम 35 प्रदर्शनकारी शहीद हुए और हजारों ज़ख़्मी हुए। ये कार्यवाही लोगों में दहशत फ़ैलाने के लिए की गई लेकिन आन्दोलन और तेज़ भड़क गया।

लोग दहशत में ना आएं तो वहशी शासक दहशत में आ जाते हैं। फौज़ी हुकूमत का किला ढह गया, चुनाव हुए और फौजी शासन में दशकों ज़ुल्म झेलने वालीं औंग संग सू ची शासन में आईं जो अब वही सब कर रही हैं, लोगों को बिलकुल उसी तरह कुचल रही हैं जैसा फौजी शासक किया करते थे।

वो भले भूल गईं, लेकिन इतिहास हमें सिखाता है; “जो हिटलर की चाल चलेगा वो हिटलर की मौत मरेगा”।

‘नाईजीरिया पर क़ब्ज़ा करो’ आंदोलन

नाईजीरिया में भी रविवार 1 जनवरी 2012 को ऐसा ही जन सैलाब उठा था जिसका नारा था; नाईजीरिया पर कब्जा करो (Occupy Nigeria)। चिंगारी वही थी जो म्यांमार और इंडोनेशिया में थी।

नाईजीरिया के राष्ट्रपति गुडलक जोनाथन ने लोगों की जेब से पैसा ऐंठने की स्कीम के तहत तेल पदार्थों से अनुदान हटाने का फैसला किया।

नाईजीरिया अफ्रीका का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है। एक झटके में अनुदान हटाने का नतीजा ये हुआ कि 1 लीटर गैसोलीन की कीमत 65 नाइरा से बढ़कर 141 नाइरा हो गई।

ये काम 1 जनवरी 2012 को किया गया था मानो नए साल का तोहफा दे रहे हों। सोचा होगा, लोग नए साल के हैंग ओवर में होंगे, सब ढंक जाएगा!! लेकिन ऐसा हुआ नहीं बल्कि राष्ट्रपति मिस्टर गुडलक के लिए उनका ये फैसला बैडलक साबित हुआ।

लोगों का गुस्सा उबल पड़ा। सब लोग सड़कों पर आ गए। फेई फावेहिंमी जो एक प्रदर्शनकारी जो पेशे से लेखाकार हैं, ने सीएनएन को बताया, “सरकार का ये झटके में लिया क़दम ऐसा है मानो बगैर प्लास के किसी ने हमारा दांत उखाड़ दिया हो”।

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9 जनवरी को प्रदर्शनकारी सारी सड़कें घिराकर बैठ गए। गुडलक ने डराने के लिए फौज बुला ली लेकिन लोग नहीं डरे। भाड़े के सैनिकों को गोली चलाने का हुक्म हुआ, गोली चली और जिससे कितने लोग मरे आज तक सही आंकड़ा नहीं मिल पाया।

इस ज़ुल्म ने लोगों के गुस्से में उबाल ला दिया। प्रदर्शनकारी चीख रहे थे, “तुमने सब्सिडी ख़त्म नहीं की, तुमने सरकार से हमारा भरोसा ख़त्म किया है”।

राष्ट्रपति गुडलक ने अपने चेले रयूबन अबाती को लोगों को ये समझाने के लिए भेजा कि कैसे ये मूल्य वृद्धि राष्ट्र हित में है!!

उन्होंने भाषण शुरू किया, “डीज़ल-पेट्रोल-गैसोलीन से अनुदान ख़त्म करके सरकार ने कुल 1 ट्रिलियन नाइरा (6.13 अरब डॉलर) बचाए हैं जिसे देश में जन सुविधाएँ बढ़ाने, सड़कें बनाने में खर्च किया जाएगा।”

लोगों ने मूर्ख बनने से इनकार कर दिया और उसे चुप करा दिया। लोग तब तक वापस नहीं गए जब तक की बढ़ी कीमतें पूरी की पूरी वापस नहीं हो गईं। (क्रमशः)

(यथार्थ पत्रिका से साभार।)

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