भारत के 12 करोड़ दिहाड़ी मज़दूर किस मामले में हैं सबसे अलग, प्रोफ़ेसर थचिल ने दिया जवाब

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By सुशांत सिंह, इंडियन एक्सप्रेस

देशभर में लागू लॉकडाउन के चलते कई प्रवासी मजदूर देश के अलग-अलग राज्यों से अपने घर लौट गए। ऐसे में वेंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर तारिक थचिल बता रहे हैं प्रवासी लोगों को शहरों में कितनी अहम भूमिका है।

उनका मौजूदा शोध भारत में तेजी से शहरीकरण और आंतरिक प्रवास के राजनीतिक परिणामों को समझने पर केंद्रित है। उन्होंने द इंडियन एक्सप्रेस से भारत में आंतरिक और अस्थाई प्रवासियों के बारे में बात की।

सवाल: अन्य देशों की तुलना में भारत के शहरों के प्रवासी मजूदर कैसे अलग है?

जवाब: भारतीय शहरों के प्रवासी मजदूरों की तीन मुख्य खासियत है। आंतरिक पलायन (इंटरनल माइग्रेशन) ,  अनौपचारिकता (इन्फार्मेलिटी), अस्थाईत्व (सर्कुलेटरी)।

आंतरिक पलायन का मतलब है कि यह लोग विदेशी मजदूरों की तरह पलायन कर एक देश से दूसरे देश कम ही जाते हैं। ये लोग मुख्यत : देश के आंतरिक राज्यों से ही होते हैं। दूसरा अनऔपचारिक होने का तात्पर्य है कि इनका रोजगार पक्का नहीं होता है।

कम आए और बिना किसी कॉन्ट्रैक्ट के यह लोग काम करने पर मजबूर होते हैं। अधिकांश मजदूर दिहाड़ी मजदूर होते हैं। इनका काम अनिश्चित होता है। लॉकडाउन में इसका असर साफ दिखा और ये लोग रोजगार की कमी के चलते अपने घरों की ओर जाने को विवश हुए।

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तीसरी अस्थाईत्व (सर्कुलेटरी) का मतलब है कि इनमें से अधिकांश प्रवासी स्थायी रूप से शहर में बस नहीं पाते हैं। महंगे और दुर्गम शहरी वातावरण उन्हें अपने परिवारों के बिना आगे बढ़ने के लिए मजबूर करते हैं। जिसके चलते प्रवासी मजदूर अपने गांव और काम की तलाश में शहरों के चक्कर लगाते रहते हैं।

इन तथ्यों के आधार पर यह समझा जा सकता है कि लॉकडाउन के दौरान यह लोग अपने गावों की ओर जाने के लिए क्यों विवश और बाध्य नजर आए। अस्थाई और इनफॉर्मल लेबर स्थायी और फार्मल लेबर के विपरीत है।

औद्योगिक क्रांति के दौरान यही खासियत थी कि खेत से लेकर कारखानों तक शहरकीरण के प्रसार होने के पीछे भी यही एक कारण था। हालांकि यह कहना गलत होगा कि अस्थाई प्रवासन सिर्फ भारत के लिए ही अनूठा रहा है।

आंतरिक प्रवासियों और अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों का अनुपात तीन एक का रहा है। कई आंतरिक प्रवासियों और अस्थाई प्रवास का अनुभव करना पड़ा है और ये लोग भी अनऔपचारिक रोजगार का ही हिस्सा रहे हैं। अनऔपचारिक रोजगार वाले अस्थाई प्रवासिसी राष्ट्र की जनसंख्या का अहम हिस्सा रहे हैं।

बांग्लादेश से लेकर मोजाम्बिक जैसे देशों में ऐसे प्रवासी मजदूर हैं लेकिन भारत की लोकव्यवस्था की अस्पष्ट नीतियां ऐसे मजदूरों के लिए संकट का सबब हैं।

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सवाल: देश की अर्थव्यवस्था में इनका योगदान और क्या इसका सही मूल्यांकन किया भी गया है?

जवाब: इस सवाल का जवाब ना है और इसके दो कारण हैं। पहला कारण है कि रोजगार की अनौपचारिक प्रकृति के कारण इस आबादी के आकार के आधार पर भी विश्वसनीय डेटा एकत्र करने में मुश्किल का सामना करना पड़ता है।

मसलन कई अस्थाई प्रवासी, ईंट निर्माण, खनन और उत्खनन, होटल और रेस्तरां, और सड़क वेंडिंग से जैसे उद्योगों में काम करते हैं। इन क्षेत्रों में से कई भारतीय अर्थव्यवस्था के अभिन्न अंग हैं, और हमारे राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद का एक महत्वपूर्ण हिस्सा शामिल हैं।

यही नहीं, हालांकि, आधिकारिक आंकड़ों से परे अस्थाई प्रवासियों के योगदान को स्वीकार करने के लिए एक व्यापक सामाजिक अनिच्छा भी शामिल है जिससे इनका योगदान नजर नहीं आता है। शहरों के अस्थाई प्रवासी कुछ ऐसे रोजगार में शामिल होते हैं जो करना तो कई और भी चाहते हैं लेकिन कर नहीं पाते हैं।

उनके इस काम के लिए शहरों के नगरपालिका अधिकारियों या विशेषाधिकार प्राप्त शहरी लोग आभार नहीं जताते हैं। मैंने कई ऐसे प्रवासियों से बात की औ इन लोगों ने बताया कि उन्हें स्थानीय दुकानदारों, यहां रहने वाले लोगों और पुलिस का दुर्व्यवहार भी सहना पड़ता है। लॉकडाउन से एक बात यह भी रेखांकित होगी कि इन प्रवासियों के जाने से कैसे यहां की कार्यशैली पर असर पड़ेगा।

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सवाल: शहरी भारत में प्रवासी मजदूरों की संख्या के बारे में आपके अनुमान क्या हैं? उनकी सामान्य सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है?

जवाब: यह समान्य सा सवाल है लेकिन इसका जवाब जटिल है। हमारे पास अस्थाई प्रावासी आबादी के आकार का एक आम सहमति का अनुमानित आंकड़ा नहीं है। कई आधिकारिक डेटा स्रोत प्रवासन (माइग्रेशन) की परिभाषा अलग बताते हैं।

वो ऐसे मजदूरों के क्षणिक और पलायवादी स्वभाव को नहीं समझते हैं। मसलन, भारत का नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) पलायन को लेकर 64वें राउंड में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि भारत में कुल शार्ट टर्म माइग्रेशन एक से दो प्रतिशत है।

यह आंकड़ा 13-26 मिलियन (1.3 – 2.6 करोड़) की आबादी के बारे में सुझाव देता है। यही नहीं, एनएसएस का मानना है कि शार्ट टर्म प्रवासी वो लोग हैं जो साल के आखिरी छह महीनों में शहरों में अलग-अलग जगहों पर रुकते हैं।

लेकिन असल में ऐसा नहीं है कई ऐसे मजदूर हैं जो सालों तक शहरों में रहते हैं और त्योहारों और फसल की कटाई जैसे मौकों पर अपने घर जाते हैं।

तथ्य यह भी है कि ऐसे मजदूर शहरों और गांवों में अनऔपचारिक तौर पर रहते हैं। ऐसे में सर्वे के दौरान इनकी जानकारी जुटाने में भी मुश्किल आती है।

2011 की राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार, सभी ग्रामीण निवासियों में से आधे से अधिक कमाई अनस्किल्ड लेबर के जरिए करते हैं और कई लोग ऐसा शहरों में भी करते हैं।

कुछ विद्वानों ने रोजगार के आंकड़े निकाले हैं जिसके मुताबिक अस्थाई प्रवासियों की संख्या लगभग 120  मिलियन (12 करोड़) है। हालांकि सच्चाई कुछ और भी हो सकती है लेकिन हम यहां लाखों लोगों के बारे में बात कर रहे हैं।

आर्थिक स्तर की बात करें तो अस्थाई प्रवासी मजदूर आर्थिक तौर पर वंचित रहे हैं।

मैंने भी एक सर्वे किया है और मेरे सर्वे में भी यह बात सामने आई कि ये लोग आर्थिक तौर पर पीछे और वंचित हैं। मैंने 3018 अस्थाई प्रवासियों और 1200 प्रवासी मजदूरों (जो दिल्ली और लखनऊ में रेहड़ी -पटरी पर काम करने वाले हैं) का एक सैंपल लिया। इस दौरान एक बात यह सामने आई कि अस्थाई प्रवासी सामान्य रूप से गरीब थे लेकिन इनकी जाति और मान्यताओं में भिन्नता थी।

इनमें 27 फीसदी अनुसूचित जाति से थे, अन्य पिछड़ा वर्ग से 44 फीसदी, ऊंची जातियों से 18 फीसदी और 12 फीसदी मुस्लिम थे।

इन लोगों की औसतन कमाई सामान्य थी और 75 फीसदी से अधिक रोजाना दो डॉलर यानी लगभग 150 से भी कम रुपए कमाते हैं।
इनमें से 77 फीसदी के पास कोई माध्यमिक शिक्षा नहीं थी, और 74 फीसदी के पास अपने घर गांवों में घरेलू बिजली कनेक्शन नहीं था।

इनमें से आधे से ज्यादा लोगों पर कर्ज है। गौर करने वाली बात यह है कि जाति और धार्मिक विभाजनों में इस तरह की समरूपता गांव से बिल्कुल अलग है जहां जाति और धर्म के आधार पर आर्थिक योग्यता अलग होती है।

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सवाल: लॉकडाउन के ऐलान के बाद मजदूर का बड़े स्तर पर पलायन चौंकाने वाला है? क्या इसे रोका जा सकता था?

जवाब: प्रवासी श्रमिकों का पलायन आश्चर्य से भी काफी दूर है। मैं सुप्रीम कोर्ट की इस दलील से सहमत नहीं हूं कि गलत सूचनाओं के चलते मजदूर हड़बड़ी में अपने घरों को लौटने लगे। उनके पास ऐसा तर्क देने के लिए कोई वाजिब तथ्य होना चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि प्रवासी मजदूर शहरों में किन हालातों में अपना गुजर बसर कर रहे हैं।

मैं अपने सर्वे में खुद पाया कि शहरों में रह रहे प्रवासी मजदूर तंग कमरों और जर्जर मकानों में रहने पर मजबूर हैं। कई तो सड़कों और फुटपाथों पर रहते हैं। उनके पास पर्याप्त दस्तावेज नहीं हैं कि वो शहरों में राशन ले सकें।

उनका कोई जानने वाला परिजन शहर में नहीं है और बचत के नाम पर उनके पास बहुत कम पैसे हैं। यही नहीं इन लोगों को पुलिस और मध्यम वर्ग के कुलीन लोगों का शोषण भी सहना पड़ता है। उनको ये लोग गंदे और अपराधी के तौर पर देखते हैं।

यह भी एक कारण हैं कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें शहर छोड़कर जाना पड़ा। साथ ही कोरोना वायरस के जैसी महामारी के प्रकोप में उनके लिए शहर छोड़कर जाना ही बेहतर हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों में कोई क्यों ही शहरों में रहना चाहेगा। पहले यह विचार किया जाना चाहिए था कि कैसे अचानक लॉकडाउन क्षणिक आबादी को प्रभावित कर सकता है।

लॉकडाउन ऑर्डर में हर किसी को लंबे समय तक घर पर रहने की आवश्यकता होती है। विशेष रूप से उन आबादी पर विचार करना महत्वपूर्ण है जो अक्सर अपने घरों से दूर काम करने के लिए मजबूर होते हैं।

दूसरा यह कि ऐसे लोगों के लिए उपाय किए गए होते या तो इन्हें शहरों में सुरक्षित स्थान दिया गया होता या फिर इन्हें इनके घरों तक सुरक्षित पहुंचाया गया होता।

वर्तमान में विभिन्न स्तरों पर सरकारों द्वारा लागू की गई नीतियां इन दोनों रणनीतियों के बीच आगे-पीछे झूल रही हैं और सफल होती नजर नहीं आ रही है। अगर इन मजदूरों को उनके घर भेजना था तो उन्हें सहज रास्तों से उनके गांव पंहुचाना चाहिए था और उनके स्थानी इलाकों में लोकल क्वेरंटाइन की व्यवस्था की जानी चाहिए थी।

इसके अलावा अगर इन लोगों को शहर में ही रखना था तो इनके खाने-पीने और रहने की व्यवस्था की जानी चाहिए थी।

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सवाल: गांवों में इनके लौटने पर वहां के लोगों का बर्ताव सामान्य होगा या इन्हें स्वस्थ्य संकट में लोग अकेला छोड़ देंगे?

मैं अपने अनुभव के आधार पर कहूं तो यह थोड़ा अलग है। हमेशा अनुभव में विभिन्नता होती है। एक प्रवासी मजदूर ने बताया कि उसके परिजन उसके साथ एटीएम जैसा व्यवहार किया। वह उसके कैश रुपए में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे थे।

दलितों के साथ जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ा। उनके साथ ऊंची जाति के लोग बुरा बर्ताव कर रहे थे। विशेष तौर पर तब जब वह अपने घर वालों के लिए नए कपड़े या अन्य गिफ्ट जैसी चीजें लेकर पहुंचे थे।

इस महामारी ने एक और तस्वीर सामने लाई है लोगों को गोले में बिठाकर फिर उनपर नुकसानदायक स्प्रे करना उनके हाशिए से ना उठ पाने की हकीकत बयां करता है। ये तस्वीरें बताती हैं कि जाति, वर्ग और व्यवसाय के आधार पर वर्गीकरण, शुद्धता, जैसी मानसिकता से लोग अभी भी ऊपर नहीं उठे हैं।

सवाल: भारतीय राज्य और समाज का विदेश जाने वाले मजदूर और देश के अंदर ही पलायन करने वाले मजदूरों के प्रति
रैवैया इतना अलग क्यों है?

जवाब: मुझे यकीन है कि आपके पाठक यहां जवाब का अनुमान लगा सकते हैं। चाहे संकट के समय या सामान्य स्थिति में, राज्य उन नागरिकों को जवाब देते हैं जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली और राजनीतिक रूप से संगठित हैं। यदि हम अंतर्राष्ट्रीय और आंतरिक प्रवासियों तो हम संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले भारतीयों जैसे धनी अंतरराष्ट्रीय प्रवासी के बारे में सोचते हैं।

सर्वेक्षण के आंकड़ों पता चलता है कि भारतीय-अमेरिकियों के पास गैर-हिस्पैनिक गोरे लोगों सहित किसी भी अन्य प्रमुख जातीय समूह की तुलना में इन लोगों के पास अधिक औसत घरेलू आय है। इसके अलावा अगर हम देखें तो ऐसे देशों में इन लोगों को समर्थन भी मिलता है। हाउडी मोदी जैसे कार्यक्रम इसके उदाहरण हैं।

ऐसे लोगों को राजनीतिक अधिकार भी अधिक मिलते हैं। जबकि आंतरिक पलायन करने वालें मजदूरों के साथ ऐसा नहीं है। आंतरिक पलायन करने वाले मजदूरों के योगदान को भी कम ही तवज्जो मिलती है। इसके अलावा, शहरों में अपने राजनीतिक अधिकारों का विस्तार कैसे किया जाए। इसके लिए भी कोई प्रयास नहीं किया गया है।

किराये की संपत्तियों को सुरक्षित रखने में मदद करने के लिए शहर-आधारित पहचान दस्तावेजों के साथ, पीडीएस लाभ, या शहरों में दुर्व्यवहार से बचाने के लिए भी आवश्यक कदम भी कम ही उठाए जाते हैं। इसके विपरीत शहरी प्रधिकरण उन्हें विवश समझता है। उन्हें पुलिस की हिंसा का भी सहन करना पड़ता है।

मसलन, लॉकडाउन में कई लोगों के पास रहने के लिए छत नहीं है तो ऐसे में कई राज्यों में लोगों को स्पोर्ट्स कॉम्पेक्स को अस्थाई जेल बनाकर उनमें कैद किया गया है।

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