‘कर्ज से दब चुके हैं, सिर्फ मकान का किराया माफ़ करा देती सरकार तो हम घर नहीं जाते’

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By  खुशबू सिंह

सपने सब के होते हैं। सूरज कुमार का भी सपना है, अपने डेढ़ साल के बेटे सुशांत कुमार को एक बेहतर भविष्य दे सकें लेकिन इनके सपनों को लॉकडाउन की नज़र लग गई।

सूरज कुमार हरियाणा के छोटे लाल नगर में अपनी पत्नी रिंकी और डेढ़ साल के बेटे के साथ रहते हैं। दिहाड़ी मज़दूरी का काम कर के महीने का 7,500 रुपये तक कमा लेते हैं।

7,500 रुपये में बड़ी मुश्किल से गुज़ारा होता है। 1800 रुपये तो कमरे का किराया देने में ही चला जाता है, बावजूद इसके सूरज ने सपना देखा था कि बेटा जैसे ही 4 साल का हो जाएगा फौरन ही स्कूल में दाखिला करा देंगे।

सूरज कहते हैं, “पर ये सब अब होना मुश्किल है। क्योंकि रोजगार हाथ से चला गया है कर्ज तले दब गया हूं न जाने कब लॉकडाउन खत्म होगा और कब रोज़गार मिलेगा। कई महीना तो कर्ज चुकाने में ही चला जाएगा।”

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चौथी बार लॉकडाउन लगने से मज़दूरों का धीरज खत्म हो गया है। वे अपने गांव की तरफ बड़ी संख्या में पैदल ही बढ़ने लगे हैं। रोज़गार हाथ से चला गया, घर का किराया बढ़ने लगा और नौबत भूखे मरने की आ गई।

रोज़गार तो है नहीं कर्ज कहां से चुकाएंगे, इसीलिए मज़दूरों ने रुख किया गांव जाने का।

सूरज कहते हैं, “अगर सरकार घर का किराया माफ़ करा देती और थोड़ा बहुत राशन पानी की व्यस्था कर देती तो गांव नहीं जाते हम लोग। आमदनी का रस्ता बंद होने के कारण कर्ज के बोझ के तले दब गए हैं। घर का किराया बढ़ रहा था, उधर राशन की चिंता खाए जा रही थी।”

सूनी आंखों से वो कहते हैं, “बस इसी कर्ज से बचने के लिए गांव जाना ही बेहतर समझा। गांव में दूसरों की खेत में मज़दूरी करके पेट पाल लेंगे लेकिन कर्ज बढ़ जाएगा तो इसे कैसे भरेगें।”

लॉकडाउन ने मज़दूरों को इस कदर बेहाल कर दिया है कि अब इनका शहर की तरफ जल्दी रुख करने का इरादा फिलहाल जल्द नहीं लगता।

हजारों मज़दूरों की तरह सूरज भी अपने परिवार के साथ पैदल चल कर ग़ाज़ियाबाद के मोरटा में राधास्वामी सत्संग ब्यास पहुंचे थे। पर बस की व्यस्था नहीं होने के कारण इन्हें भी पास के ट्रांज़िट कैप में रखा गया है।

यहां की व्यवस्था को लेकर वो नाखुश हैं, न साफ़ पीने के पानी की व्यवस्था न साफ़ टॉयलेट। दो साफ़ टॉयलेट हैं भी तो उनमें ताला लगा है।

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