जीडीपी बढ़ रही है तो मज़दूरी क्यों नहीं बढ़ रही?

क्या भारत में मज़दूरों-मेहनतक़शों की मज़दूरी बढ़ रही है? यह सवाल आज के दौर में एक अहम सवाल बना हुआ है। खासकर तब जबकि सरकारें देश की तमाम तरक्क़ी और विकास को जीडीपी के तराजू में तोल रही हैं।

आज भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में ज्यादा है। 2018 की पहली तिमाही (जनवरी-मार्च) में भारत की जीडीपी की वृद्धि दर 7.7 बताई गई है, जो कि 2016 की पहली तिमाही (जनवरी-मार्च) की वृद्धि दर 9.2 फीसदी के बाद सबसे ज्यादा है।

अब सवाल यह है कि क्या जीडीपी की वृद्धि दर वाकई मज़दूरों और किसानों की ज़िंदगी में परिवर्तन के बारे में कुछ बताती है अथवा नहीं? हमारे लिए, आम मेहनतक़श अवाम के लिए इस विषय में सही जानकारी रखना बहुत ही महत्वपूर्ण एवं जरूरी है।

जीडीपी का गुब्बारा ऐसे फूलता है

पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर से वास्तविक उत्पादन की वृद्धि का पता करना ही बहुत मुश्किल काम है।

इस वृद्धि दर के सहारे मेहनतक़श जनता के हालात का पता लगाना तो लगभग असंभव है। आईए, इसे एक उदाहरण के तौर पर देखें।

मान लीजिए आपने जनवरी 2017 में 5 लाख रुपये खर्च करके एक मकान खरीदा। मकान की यह कीमत सन 2017 की जीडीपी की गिनती में आएगी।

अब मान लीजिए यह मकान आपसे कोई दूसरा व्यक्ति अप्रैल माह में खरीदकर आगे किसी तीसरे व्यक्ति को बेच देता है। इस प्रकार इस मकान को जितनी बार खरीदा जाता है मकान की कीमत कुल जीडीपी में जुड़ती जाती है।

जबकि हम देख रहे हैं कि नया कुछ पैदा हुआ ही नहीं। वर्तमान पूँजीवादी दुनिया में बिना किसी वास्तविक उत्पादन के, धन की इस काल्पनिक खरीद-फरोख्त के बल पर जीडीपी की बढ़ी हुई वृद्धि दर दिखाई जाती है।

जीडीपी कैसे ‘सकल घरेलू उत्पादन’ नहीं है?

इसलिए जीडीपी के इन आँकड़ों से वास्तविक उत्पादन का पता लगाना बहुत मुश्किल काम तो है ही साथ ही मेहनतक़श जनता की तरक्की को नापने का यह पैमाना भी गलत है।

पूँजीपति वर्ग और उनका प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां मेहनतक़शों से यह सच छुपाना चाहती हैं।

और इसके जरिए मेहनतक़शों के सुंदर भविष्य की एक झूठी तस्वीर हमारे सामने पेश करना चाहती हैं। असल में वर्तमान पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में मेहनतक़शों की हालत जुड़ी हुई है उनकी दैनिक अथवा मासिक मज़दूरी से।

लेकिन देश के मेहनतक़शों की मज़दूरी का पता करना भी कोई आसान काम नहीं है। फिर भी कुछ-कुछ तथ्यों से मोटे तौर पर अंदाजा लगाना संभव होता है।

देश की कुल मज़दूरी के आंकड़ों में सारे कर्मचारियों के वेतन की गिनती होती है।

अफ़सरों की पगार जोड़ कर मज़दूरों की पगार दिखाई जाती है

यानी इसमें तमाम बड़े अफसरों व मैनेजरों का वेतन भी जोड़ा जाता है। और हम सब जानते हैं कि पिछले दो दशकों में अफसरों और मैनेजरों का वेतन बहुत ज्यादा बढ़ गया है। दूसरी ओर कर्मचारियों के वेतन में यह सारी रकम जोड़ कर देश की कुल मज़दूरी दिखाई जाती है।

ज्ञात हो कि पिछले दो दशकों में मज़दूरों और मैनेजरों की मज़दूरी का अंतर भी बहुत ज्यादा बढ़ गया है। पहले एक अकुशल मज़दूर की तुलना में एक आईआईएम से निकले मैनेजर की मज़दूरी 67 गुना ज्यादा थी, जो आज के समय में 200 गुना हो गई है।

मतलब अगर एक अकुशल मज़दूर की औसत सालाना मज़दूरी 1 लाख रुपये है तो एक आईआईएम से निकले हुए मैनेजर की औसत सालाना मज़दूरी 2 करोड रुपए है।

मैनेजर लोग हैं तो पूँजीपति वर्ग का हिस्सा मगर इनका वेतन देश के मज़दूरों की मज़दूरी के साथ ही गिनती कर लिया जाता है।

वास्तविक मज़दूरी घटी है

बावजूद इसके पिछले दो दशकों में देश के मज़दूरों की कुल ‘वास्तविक मज़दूरी’ में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई है।

‘वास्तविक मज़दूरी’ का मतलब है महँगाई को नज़र में रखते हुए मज़दूर अपनी मज़दूरी से बाज़ार में क्या कुछ ख़रीद पाता है। अगर मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के बावजूद भी महँगाई के चलते मज़दूर बढ़ी हुई मज़दूरी से कुछ भी नया सामान अथवा सेवाएं नहीं खरीद पाता है तो इसका मतलब है ‘वास्तविक मज़दूरी’ में कोई बदलाव नहीं आया है।

सरकारी तथ्यों के अनुसार 2010 से 2014 के दौरान ‘वास्तविक मज़दूरी’ में बिल्कुल थोड़ी सी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई थी, जबकि 2014 से 2016 के दौरान ‘वास्तविक मज़दूरी’ में थोड़ी कमी आई है।

अगर मज़दूरी में हुई कुल बढ़ोत्तरी में से बड़े अफसरों एवं मैनेजरों के वेतन में हुई बढ़ोत्तरी को घटा दिया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि आम मज़दूर की ‘वास्तविक मज़दूरी’ में गिरावट आई है।

तो यह स्पष्ट हो जाता है कि असल में भारत के मज़दूरों की ‘वास्तविक मज़दूरी’ बढ़ने की बजाय लगातार घट रही है। लेकिन सरकारी तथ्य और विश्लेषण इस सत्य को सामने नहीं ला रहे हैं।

(संघर्षरत मेहनतकश पत्रिका के 36वें अंक से साभार)

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