ब्राज़ील में लूला की जीत और लातिन अमेरिकी देशों के ‘लाल’ होने का मतलब

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By मनीष आज़ाद

इस लेख के लिखे जाने तक अति दक्षिणपंथी बोल्सेनारो (Jair Bolsonaro) ने ब्राज़ील के नये राष्ट्रपति वामपंथी लूला डी सिल्वा (Lula da Silva) को बधाई सन्देश नहीं भेजा है।

दूसरी ओर लूला के चुने जाने के ख़िलाफ़ ब्राज़ील के 20 राज्यों में ट्रक यूनियन ने जाम लगा रखा है और सेना से खुली अपील की जा रही है कि वो हस्तक्षेप करे और ब्राज़ील को ‘साम्यवाद’ की तरफ जाने से रोके। ऐसे ढेरो प्रदर्शन देश भर में चल रहे हैं।

बोल्सेनारो अपनी 46 घंटे की चुप्पी के बाद जब मीडिया के सामने आये तो इस प्रतिक्रियावादी आन्दोलन का समर्थन करते हुए कहा कि उनके साथ जो ‘अन्याय’ हुआ है, यह उसकी अभिव्यक्ति है।

लूला की जीत के साथ पैदा हुआ यह घटनाक्रम लूला की जीत की ख़ुशी पर भारी पड़ रहा है और लूला के सामने आने वाली चुनौतियों की ओर इशारा कर रहा है। हमे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लूला और बोल्सेनारो के बीच वोटों का अंतर महज 1.8 प्रतिशत है और सदन में अभी भी दक्षिणपंथी ताकतों का बहुमत है।

लातिन अमेरिकी देशों में वाम सरकारों के आने का यह दूसरा दौर है, जो 2018 में मैक्सिको में लोपेज़ ओब्रादूर (López Obrador) के आने से शुरू हुआ।

उसके बाद क्रमश: अर्जेंटीना, बोलीविया, पेरू, होंडुरास, चिली, कोलम्बिया, में वाम या सेंटर वाम (center left) सरकारें अस्तित्व में आ चुकी हैं। लूला का ब्राजील में आना इसी परिघटना की अगली कड़ी है।

वाम सरकारों का पहला दौर 1999 में वेनेजुअला में ह्यूगो शावेज के आने से शुरू हुआ था।

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चीन का प्रभाव और समृद्धि

दरअसल 11 सितम्बर 1973 को अलेंदे की समाजवादी सरकार का तख्ता पलट कर और उसके बाद तमाम क्रूर यातनाओं और हजारों कत्लेआम के बाद मिल्टन फ्रीडमैन (Milton Friedman) के नेतृत्व में ‘शिकागो बॉयज’ (Chicago Boys) ने चिली में जिस ‘नयी आर्थिक नीति/उदारीकरण’ का आक्रामक अभियान शुरू किया था, उसकी सांस 2000 तक आते आते फूलने लगी थी।

दुनिया में एक बार फिर से आर्थिक असमानता बेरोकटोक तरीके से बढ़ने लगी थी। लातिन अमेरिका में अमेरिका पोषित सैन्य तानाशाहियों द्वारा जनता को दिए गये क्रूर घाव थोड़े भर चुके थे और जनता एक बार फिर विकल्प की तलाश में कमर कस रही थी।

ऐसी ही परिस्थिति में 1999 में वेनेजुएला में ‘शॉवेज’ और 2003 में ब्राजील में ‘लूला डी सिल्वा’ और 2006 में बोलीविया में ईवा मोरेल (Eva Morales) सत्ता में आये।

2009 में तारिक अली द्वारा लिखित व ओलिवर स्टोन द्वारा निर्देशित दस्तावेजी फिल्म ‘South of the Border’ में इस परिघटना को शानदार तरीके से दर्ज किया गया है।

इसी के समानांतर 2000 के बाद जिंसो (commodity) की कीमतों में भरी उछाल आया। उधर चीन की अर्थव्यवस्था तेज़ी से उछाल मार रही थी।

चीन की अर्थव्यवस्था की भूख का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2011 से 2013 के बीच चीन ने जितने सीमेंट का इस्तेमाल किया (6.6 गीगा टन) उतना अमेरिका ने पिछली सदी के पूरे 100 सालों (कुल 4.6 गीगा टन) में भी नहीं किया था।

लातिन अमेरिका के साथ चीन का व्यापार इसी दौर में परवान चढ़ता है। एक आंकड़े के अनुसार चीन का लातिन अमेरिका और कैरेबियन देशों के साथ व्यापार 2000 में महज 12 अरब डॉलर था जो 2021 में बढ़कर 450 अरब डॉलर हो गया। इसका बड़ा हिस्सा उन्ही देशों और उन्हीं काल का है, जहाँ/जब वाम सरकारें रहीं हैं।

इससे प्राप्त आय का इस्तेमाल इन वाम सरकारों ने बड़े पैमाने पर सामाजिक कल्याण (विशेषकर गरीबी हटाने, शिक्षा व स्वास्थ्य) पर खर्च करना शुरू किया।

साल 2003 में लूला ने ब्राज़ील में भुखमरी के ख़िलाफ़ ‘फोम जीरो’ (Zero Hunger) जैसी विशाल योजना शुरू की, जिसमें ज़रूरत मंदों को सीधे नगद भुगतान से लेकर नि:शुल्क राशन जैसी अनेक योजनायें शामिल थीं।

यहां यह संकेत करना भी ज़रूरी है कि ‘फोम जीरो’ योजना के तहत ‘बोल्सा फैमिली प्रोजेक्ट’ (Bolsa Família Project) विश्व बैंक के साथ मिलकर चलाया गया।

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2008 की मंदी में दक्षिणपंथी को हवा

खैर, इन योजनाओं से निश्चित रूप से जनता को काफी फायदा हुआ और गरीबी में भी महत्वपूर्ण कमी आयी। शॉवेज के नेतृत्व में वेनेजुअला ने जन सुधारों को कहीं अधिक आक्रामकता से लागू किया। पूंजीपतियों के मुनाफ़े पर कुछ अतिरिक्त टैक्स लगाये गए, कुछ ज़मीनें भी ग़रीबों को उपलब्ध करायी गईं।

कई निजी कंपनियों (विशेषकर पेट्रोलियम से सम्बंधित) में सरकार ने बहुलांश शेयर हासिल कर लिए। और इस तरह से राज्य की आमदनी काफ़ी बढ़ गयी। इसे जनता की बेहतरी के लिए विशेषकर ग़रीबी हटाने, शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा।

लेकिन यह सब बहुत कुछ ‘जीडीपी ग्रोथ’ पर ही केन्द्रित था, जिसकी अपनी सीमायें थी। इसलिए कुछ मार्क्सवादी बुद्धिजीवी इसे ‘पेट्रो समाजवाद’ की भी संज्ञा देते हैं।

साल 2008 की मंदी के बाद और विशेषकर 2013-14 में चीनी इंजिन के धीमे पड़ जाने के बाद इन जन योजनाओं को जारी रखना मुश्किल होने लगा।

अमेरिका पहले ही इन देशों में दक्षिणपंथी ताकतों को बढ़ावा देने में लगा हुआ था। अपनी संस्था ‘नेशनल इंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी’ (National Endowment for Democracy) और इन देशों की सेनाओं में अपने नये-पुराने संपर्को के माध्यम से अमेरिका लगातार इन देशों में फासीवाद को बढ़ावा दे रहा है।

साल 2018 में चुनकर आया बोल्सेनारो लातिन अमेरिका में अमेरिका समर्थित फासीवाद का एक घृणित चेहरा था।

अपने कार्यकाल के तीन सालों के भीतर ही बोल्सेनारो ने अमेज़न में बेल्जियम जितने भूभाग से भी ज्यादा (34018 वर्ग किलोमीटर) पर जंगल नष्ट कर दिया। इसकी गंभीरता आप इसी बात से समझ सकते हैं कि अमेज़न को दुनिया का फेफड़ा कहा जाता है।

कोरोना काल में प्रति 10 लाख पर मरने वालों में सबसे अधिक अमेरिका से थे और दूसरे नंबर पर ब्राज़ील था। प्रति दस लाख पर 3,232 मौतें।

इसके अलावा इस दौरान तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं की गईं, उन्हें जेलों में ठूंसा गया और यातनाएं दी गईं। खुद लूला को भी 19 महीने जेल में बिताना पड़ा। मज़ेदार बात यह है कि जिस जज ने उन्हें सजा सुनाई वह बोल्सेनारो के मंत्रिमंडल में न्याय मंत्री बन गया।

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अमेरिका की मुश्किलें

साल 1850 में जब ‘मुनरो डाक्ट्रिन’ आया, तभी से अमेरिका, लातिन अमेरिका को अपना ‘प्रभाव क्षेत्र’ मानता रहा है।

इसलिए वह कभी यह बर्दास्त नहीं करता कि इस क्षेत्र में किसी और देश का प्रभाव बढ़े या कोई उसकी आर्थिक नीतियों से अलहदा कोई नीति लागू की जाए। यही कारण था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस क्षेत्र में एक के बाद एक कई तख्ता पलट अमेरिका ने खुद करवाये।

दरअसल अमेरिका को सबसे बड़ी चुनौती इस क्षेत्र में बढ़ते चीनी प्रभाव से है। आज अमेरिका की पहली रणनीति चीन को हर तरह से तबाह करके अपनी बादशाहत बरकरार रखने की है।

इसलिए वो हर तरह से चीन को घेरने की कोशिश कर रहा है। इसे समझने के लिए जॉन पिल्जर की मशहूर फ़िल्म ‘वार ऑन चाइना’ देखी जा सकती है।

लातिन अमेरिका में इन वाम सरकारों के आने से चीन को घेरने की उसकी रणनीति कमज़ोर पड़ रही है। और बहुध्रुवीय विश्व एक हकीक़त बनता जा रहा है।

लूला ने जेल में रहते हुए ही एलान कर दिया था कि यदि वे चुनाव जीते तो ब्रिक्स (BRICS) दुनिया की राजनीति में रक्षात्मक नहीं बल्कि आक्रामक भूमिका निभाएगा। यह शब्द अमेरिका के कानों को कैसे लगे होंगे यह समझा जा सकता है!

लातिन अमेरिका की वाम सरकारें चीन के साथ मिलकर डॉलर में व्यापार न करने की रणनीति पर भी विचार कर रही हैं। यह कब और कितना संभव होगा, यह तो पता नहीं, लेकिन इस सूचना ने ही अमेरिका के माथे पर बल डाल दिया है।

अपनी मशहूर किताब ‘द एसेंट ऑफ़ मनी’ (The Ascent of Money: A Financial History of the World) में नील फर्गुसन (Niall Campbell Ferguson) लिखते हैं- “दुनिया को डॉलर कमाना पड़ता है, लेकिन अमेरिका को बस छापना होता है।”

इस कथन से आप अमेरिका के डर को बखूबी समझ सकते हैं।

लेकिन असल सवाल तो यही है कि जिस कीन्स की थ्योरी (लोक कल्याणकारी राज्य) पर ये वाम सरकारें चलने की कोशिश कर रही हैं, वह दरअसल कुछ समय का एक ‘वर्ग समझौता’ है। मौका देखते ही पूंजीपति इससे निकल जायेगा, और जनता फिर उसी गरीबी में धकेल दी जाएगी।

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भूमिहीनों को किया वादा पूरा करेंगे लूला?

ब्राज़ील में भूमिहीनों के बड़े आन्दोलन ‘एमएसटी’ (Landless Workers’ Movement) ने 2003 में लूला को समर्थन दिया था, लेकिन अभी तक उनसे किये गये वायदे पूरे नहीं हुए हैं। लूला ने जरूर उन्हें कुछ सस्ते लोन वगैरह उपलब्ध कराये हैं, लेकिन उन्हें ज़मीनें नहीं मिली हैं।

ज़मीन के बंटवारे के मामले में ब्राज़ील दुनिया का सबसे असमान देश है। महज 2.8 प्रतिशत लोगों के पास कुल खेती योग्य जमीन का करीब 56 प्रतिशत है। इसलिए बिना क्रांतिकारी भूमि सुधार के कोई भी सुधार स्थाई नहीं हो सकता।

यही स्थिति कमोवेश लातिन अमेरिका के सभी देशों में है। ‘एमएसटी’ लूला की सरकार (तब दिल्मा राष्ट्रपति थी) के ख़िलाफ़ 2015 में एक बड़ा आन्दोलन भी कर चुका है। लूला निश्चित रूप से इस फ्रंट पर बेहद कमजोर साबित हुए हैं। अन्य वाम सरकारों की भी कमोबेश यही स्थिति है।

पैट्रीसिया गुज़मान (Patricio Guzmán) की बेहद महत्वपूर्ण फिल्म ‘बैटल ऑफ चिली’ के तीसरे भाग में एक फैक्ट्री में मज़दूर चर्चा कर रहे हैं कि अगर अमेरिका चिली में तख्ता पटल करवाता है तो हम क्या करेंगे। लड़ने के लिए हमारे पास हथियार कहाँ हैं।

लेकिन अलेंदे ने मज़दूरों को हथियार नहीं दिया। न ही वहां की तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी (जो अलेंदे को उस समय सपोर्ट कर रही थी) ने इस दिशा में कोई पहलकदमी ली। और उसके बाद जो हुआ वह इतिहास में दर्ज हो गया।

जबकि कुछ सालों पहले ही इंडोनेशिया में यह हो चुका था। वहां तख्ता पलट में करीब 10 लाख कम्युनिस्ट/ट्रेड यूनियन कार्यकर्त्ता/ व अन्य सामाजिक कार्यकर्त्ता यातना देकर मार डाले गये थे। ‘द एक्ट ऑफ़ किलिंग’ (Joshua Lincoln Oppenheimer() फ़िल्म में इसे बखूबी दर्ज किया गया है।

कहने का मतलब यही है कि लातिन अमेरिका के इस वर्तमान वाम का भविष्य क्या होगा, यह कोई सुलझ चुका सवाल नहीं है।

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इस राहत के आगे क्या?

एक समय जब लातिन अमेरिका में चे ग्वेरा और फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में क्यूबा की क्रांति हुई तो इसके प्रभाव से अनेक देशों में छापामार युद्ध शुरू हो गया था। इन्हें तब चीन, सोवियत रूस का नैतिक/कूटनीतिक/भौतिक समर्थन प्राप्त था।

तब किसी वर्ग समझौते की बात नहीं थी। बल्कि वर्ग को खत्म करने की बात थी। तब देशों के आमूलचूल बदलाव की बात थी।

यानी क्रांति की बात थी, जनता के कल्याण की नहीं बल्कि जनता के ख़ुदमुख़्तार होने की बात थी। तब शायद आज की इन वाम कही जाने वाली पार्टियों को हम वाम नहीं बल्कि मध्यमार्गी पार्टी कह रहे होते।

लेकिन तब से बहुत कुछ बदल गया। ‘इतिहास के अंत’ ने दुनिया को एक कदम पीछे तो धकेल ही दिया। लेकिन इसके बावजूद अभी भी वह विचार नहीं बदला है, जिसका समय अब आ गया है। वह है, जनता की ख़ुदमुख़्तारी का विचार।

असल सवाल अब यही है कि लातिन अमेरिकी जनता और वहां की प्रगतिशील/ क्रांतिकारी ताकतें इस अपेक्षाकृत अनुकूल समय का इस्तेमाल कैसे करती हैं और जनता के ख़ुदमुख़्तार होने के क्रन्तिकारी प्रोजेक्ट को कैसे आगे बढ़ाती हैं।

दक्षिण अमेरिका के मशहूर मुक्ति योद्धा सिमोन बोलिवर (Simon Bolivar) का एक मशहूर उद्धरण है- ’जो स्वतंत्रता को प्यार करता है, उसे अंत में स्वतंत्रता मिल ही जाती है।’

और लातिन अमेरिकी जनता से ज्यादा स्वतंत्रता को कौन प्यार करता है!

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और लेख में दिए गए उनके अपने विचार हैं।)

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