भारतीय रेलवे यूनियन में पहली बार ‘लाल झंडे’ को ‘लाल झंडे’ से चुनौती

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 By आशीष सक्सेना

2019 के इस लोकसभा चुनाव के बाद होने जा रहे  ‘रेलवे यूनियन मान्यता चुनाव’ खासा दिलचस्प होने वाला है। साथ ही इस लोकसभा चुनाव के नतीजों से भी बहुत कुछ तय होगा।

यूनियनों के समीकरण से लेकर सरकार की मंशा से कई बदलाव होने की संभावनाएं हैं।

फिलहाल नई बात यह है कि दशकों से एकछत्र राज कर रही एचएमएस से संबद्ध ऑल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन (एआईआरएफ) को बड़ी चुनौती वामपंथी खेमे के ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस (एक्टू) से मिलने की संभावना है।

जबकि अब तक उसकी भिड़ंत केवल कांग्रेस समर्थित नेशनल फेडरेशन ऑफ रेलवे मैन (एनएफआईआर) से ही रही थी।

उधर एक्टू और ट्रेड यूनियन के  ऑर्डिनेशन सेंटर से जुड़े इंडियन रेलवे इंप्लाइज फेडरेशन का दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन 30-31 मार्च को इलाहाबाद में होगा ।

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कोई फेडरेशन नहीं तोड़ सका एआईआरएफ का ‘तिलिस्म’

एआईआरएफ़ रेलवे के सभी 16 जोन में मौजूद संबद्ध यूनियनों के दबदबे में दशकों से जमी हुई है।

कहा जाता है कि काँग्रेसी शासनकाल से  एकछत्र राज कर रही इस यूनियन को कमजोर करने के इरादे से (एनएफ़आईआर) का गठन हुआ था और दो यूनियनों के  मान्यता के  नियम भी बनें ।

उसके बाद से दोनों यूनियनों की झोली में ही सत्ता रही, किन्तु एआईआरएफ़ इसके बाद भी मजबूत बनी रही।

सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाईकोर्ट के आदेश से 2007 में यूनियन मान्यता चुनाव की शुरुआत हुई, जिसमें इन स्थापित फेडरेशनों को झटका लगा।

हालांकि 35 फीसदी वोट मिलने पर मान्यता होने के नियम से भी एआईआरएफ के  तिलिस्म को तोड़ने की हैसियत किसी दूसरे फेडरेशन की नहीं रही।

सत्ता विरोधी फेडरेशन होने के साथ ही वामपंथी लबादा भी एआईआरएफ़ के काम आता रहा। हर नेता के नाम से पहले ‘कॉमरेड’ और ‘लाल सलाम’ का नारा लगता रहा है।

लाल झंडे की पहचान से किसी  अन्य राष्ट्रीय वामपंथी ट्रेड यूनियन की दाल भी कभी नहीं गल सकी।

लेकिन कुछ ही महीने में भाकपा (माले) लिबरेशन ग्रुप से जुड़े सेंट्रल ट्रेड यूनियन ‘एक्टू’ ने सबसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम रेलवे में एंट्री  मार दी।

एआईआरएफ से छीन लिया गढ़

एक्टू की ओर से रेलवे फ्रंट के प्रमुख डॉ.कमल ऊसरी ने बताया कि इफ़को के फूलपुर प्लांट में आंदोलन के दौरान इलाहाबाद में पहचान बनी। कई छोटे-बड़े आंदोलनों से अस्थायी मजदूरों का विश्वास हासिल हुआ।

एक बार इलाहाबाद में आम हड़ताल के साझे कार्यक्रम में एआईआरएफ के महासचिव व उत्तर मध्य रेलवे मैन्स  यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिवगोपाल मिश्रा से रेल कर्मियों के मुद्दे पर झड़प हो गई।

इस घटना के बाद एआईआरएफ की यूनियन से जुड़े लगभग सभी पदाधिकारी उनसे अलग हो गए और हमने यूनियन बनाकर उनके साथ रेल श्रमिकों को नया विकल्प दे दिया।  कुछ दिनों के बाद हुए कोऑपरेटिव चुनाव में हमने ऐतिहासिक जीत दर्ज करा दी।

आज एनसीआर में, जहां रेलवे के सबसे बड़े फेडरेशन के महासचिव अपनी यूनियन के अध्यक्ष हैं वहां रेलवे श्रमिकों ने एआईआरएफ को नकार दिया है।

साझा कसरत कर रही एक्टू

डॉ. कमल बताते हैं कि बिहार के  जमालपुर रेल कारखाने और चितरंजन डीजल इंजन निर्माण यूनिट में भी एक्टू की टीम सक्रिय थी।

साथ ही पूर्वोत्तर रेलवे, पूर्व रेलवे और साउथ रेलवे में भी यूनियन बनाकर काम जारी था।

सभी यूनियनों को लेकर ऑल इंडिया रेलवे वर्कर्स फेडरेशन बनाने की शुरुआत ही हुई थी।

करीब आठ महीने पहले ट्रेड यूनियन को केन्द्रीय ऑर्डिनेशन  (टीयूसीसी) से संबद्ध इंडियन रेलवे इंप्लाइज फेडरेशन (आईआरईएफ) के नेता अमरीक सिंह व सर्वजीत सिंह से एक कार्यक्रम में मुलाकात के बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ।

कई दौर के बैठक के बाद एकता के मुद्दे पर बात हुई, इसके साथ ही साथ काम करने  के लिए संयुक्त टीम बनी।

 साझेदारी की प्रमुख बातें

साझेदारी की पहलुओं में ये भी प्रमुख बात यह रही कि जहां एक्टू थी, वहां आईआरईएफ नहीं थी और जहां आईआरईएफ थी वहां एक्टू नहीं थी।

केवल पूर्वोत्तर रेलवे ही ऐसा जोन है जहां एक्टू से संबद्ध एनईआर वर्कर्स यूनियन के साथ ही आईआरईएफ की घटक पूर्वोत्तर रेलवे कार्मिक

यूनियन भी है। वर्कर्स यूनियन जहां निष्क्रिय अवस्था में है, वहां पीआरकेयू भी खासी सक्रिय।

ट्रेड यूनियन स्तर पर भी कई बदलाव होने की संभावना

ट्रेड यूनियन स्तर पर भी कई बदलाव होने की संभावना है।

डॉ.कमल के अनुसार एक्टू और आईआरईएफ ने एक-दूसरे को  एनपीएस मुद्दे पर परख लिया है ।

यदि यह बात सही है तो आईआरईएफ के साथ सक्रिय वामपंथी राजनीति का छौंका लगते ही एआईआरएफ को उन जोन में चुनौती पैदा होगी,

जहां आईआरईएफ मजबूत हैं। एक संभावना यह भी है कि आईआरईएफ का दो फाड़ हो जाए और नये फेडरेशन का गठन हो जाये ।

बताई जा रही है कि  आरईएफ का एक महत्वपूर्ण घटक पूर्वोत्तर रेलवे कार्मिक यूनियन ने एक्टू में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया है।

साथ ही पीआरकेयू के साथ कुछ दूसरे कुछ जोन भी सहमति जता कर टीयूसीसी में ही बने रहने की बात कर रहे हैं।

जबकि एक जोन भारतीय रेल मजदूर संघ (बीएमएस घटक) से जुड़ चुका है।

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एआईआरएफ के इतिहास में रही है उथल-पुथल

ऑल इंडिया रेलवे मैन्स   फेडरेशन (एआईआरएफ) 1925 में भारतीय रेलवे में स्थापित पहला संघ है। जो मुख्य सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन, हिंद मजदूर सभा से संबद्ध के बाद तक, एआईआरएफ में समाजवादी और कम्युनिस्टों का प्रभाव में  रहा।

वर्ष 1947 और 1953 के बीच इस संघ के अध्यक्ष समाजवादी विचारक जयप्रकाश नारायण थे। जबकि पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री रहे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ज्योति बसु उपाध्यक्ष थे।

सत्ता में रही काँग्रेस पार्टी ने इस बात से चिंतित होकर  1948 में अपनी विंग इंडियन नेशनल रेलवे वर्कर्स फेडरेशन (आईएनआरडब्ल्यूएफ) बनाई।

7000 श्रमिक गिरफ्तार और 2000 श्रमिक बर्खास्त

मार्च 1949 में एआईआरएफ ने हड़ताल की तैयारी की, लेकिन सरकार से समझौते के बाद नोटिस वापस लेने वाली थी किन्तु एआईआरएफ में मौजूद कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े नेताओं ने उग्र प्रदर्शन शुरू कर दिया था ।

जिसे  तोड़ने के लिए सरकार ने सैन्य बलों को उतार दिया। उस समय 7000 श्रमिकों की गिरफ्तारी हुई और  2000 श्रमिकों को बर्खास्त कर दिया गया।

नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन रेलवेमैन्स का गठन

उस घटना के बाद एआईआरएफ से कम्युनिस्ट यूनियनों और कम्युनिस्ट विचार रखने वालों को निष्कासित कर दिया गया।

वर्ष 1953 में एआईआरएफ ने राष्ट्रीय संघ बनाने के लिए आईएनआरडब्ल्यूएफ के साथ मिलकर  कर नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन रेलवेमैन  (एनएफआईआर) बना ली थी ।

किन्तु वह एकता कुछ ही समय तक टिकी और दो साल बाद 1955 में एआईआरएफ फिर स्वतंत्र होकर काम करने लगी।

मई 1 9 74 में एआईआरएफ के अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडीज ने देशभर में रेल आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसका भारत सरकार ने दमन कर दिया।

इसके बावजूद एआईआरएफ और एनएफआईआर को बिना चुनाव लगातार मान्य होने का लाभ मिलता रहा।

रेल की राजनीति में बदलाव के आसार

रेल यूनियनों के बीच यह चर्चा आम है कि केंद्र की मोदी सरकार किसी भी सूरत में बीएमएस के भारतीय रेल मजदूर संघ (बीआरएमएस) को

मान्यता में लाना चाहती है। एआईआरएफ, आईआरईएफ, एनएफआईआर से जुड़े नेता भी यही कह रहे हैं।

जबकि सुप्रीम कोर्ट के अब तक लागू आदेश में 35 फीसद वोट पाने वाली यूनियन को मान्यता का नियम है। ऐसे में अब तक केवल दो यूनियनों को ही लाभ मिलता रहा ।

रेल यूनियन के  अधिकांश नेताओं का कहना है कि बीआरएमएस को मान्यता में लाने के लिए वोटिंग फीसद 15 प्रतिशत तक हो सकती है।

एनएफआईआर के अस्तित्व पर संकट

क्या भाजपा सरकार विधेयक लाकर ही ऐसा कर पाएगी? ऐसा हुआ तो बीआरएमएस ही नहीं, कई दूसरे फेडरेशन भी मान्यता पा सकते हैं।

 अगली सरकार भाजपा की ही रहती है तो श्रमिक मुद्दों पर वार्ता का मौका बीआरएमएस को ही अधिक  मिलेगा।

जिससे वह स्थापित हो सकता है  और बाकी फेडरेशन कमज़ोर पड़ सकते हैं।

फिर भी इस कयास पर छोटे फेडरेशन भी 15 प्रतिशत वोट पाने को ही दौड़ लगाने की योजना बनाने में जुटे हैं।

इस मामले में एक नजरिया ये भी है कि एक जोन एक यूनियन का नियम भी बन सकता है।

ऐसा होने पर खासतौर पर एआईआरएफ और एनएफआईआर के अस्तित्व पर संकट आ सकता है।

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में उठा का चुनाव का सवाल

रेलवे में एआईआरएफ और एनएफआईआर को ही मान्यता की चुनौती अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भाजपा के सहयोगी मजदूर संघ माने जाने वाले बीएमएस ने दी ।

बीएमएस ने अपने रेलवे फेडरेशन बीआरएमएस को भी मान्यता देने का दबाव बनाया, तो तीसरी यूनियन बतौर शनिवार को छुट्टी के दिन रेलवे बोर्ड के दफ्तर खोलकर प्रक्रिया पूरी की गई। दो दिन बाद जब इसका पहले से मौजूद दोनों फेडरेशनों को पता चला तो विरोध हुआ।

एआईआरएफ़ से जुड़ी दक्षिण भारत की यूनियन ने मद्रास हाईकोर्ट में याचिका दायर की, जहां से अपेक्षित निर्णय न मिलने पर प्रकरण सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया।

कोर्ट में सरकार ने तीसरे फेडरेशन को मान्यता देने में कोई अतिरिक्त खर्च न होने का हवाला देकर अपनी कार्यवाही को सही ठहराया।

इस पर विरोधी फेडरेशनों ने तर्क दिया कि मान्यता प्राप्त होने पर फेडरेशन की यूनियनों को कार्यालय से लेकर अन्य लाभ भी होते हैं जिसका खर्च करोड़ों में है।

सभी फेडरेशन ने अपनी सदस्य संख्या का जो आंकड़ा पेश करके मान्यता को सही ठहराया तो  कुल कर्मचारियों की संख्या  तीन गुना तक पहुंच गई।

इस समस्या को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में चुनाव में जीतने वाली यूनियन और फेडरेशन को मान्यता के नियम तय कर दिए।

पहला चुनाव भी 2007 में ही हुआ। दूसरी बार चुनाव 2013 में हुआ ।

इस बार तीसरी बार चुनाव होगा। एक कार्यकाल छह वर्ष तय है।

चुनाव से तीन महीने पहले आचार संहिता लागू की जाती है। चुनाव से पहले रेलवे बोर्ड चुनाव के नियमों का सर्कुलर भी जारी करता है।

12 साल पहले हुआ बड़ा बदलाव

वर्ष 2007 में, भारतीय रेल को सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार गुप्त मतपत्रों के द्वारा चुनाव कराने का आदेश दिया  था ।

अदालत ने किसी क्षेत्र में मान्यता के लिए मानदंड तय कर दिया। मतदान का 35 फीसद या किसी दिए गए क्षेत्र में कुल मतदाताओं का 30

प्रतिशत वोट मिलने पर मान्यता तय की गई। जिसमें दो यूनियनों को मान्यता मिलने का आधार बना रहा।

साथ ही  50 प्रतिशत से अधिक वोट जीतने वाली यूनियनों को एकमात्र ‘मान्यता प्राप्त संघ’ का दर्जा मिलने की बात कही गई।

फिर भी दूसरी यूनियनों को भी मान्यता मिलने का रास्ता तो खुल ही गया। चुनावों में एआईआरएफ फिर सबसे बड़े संघ के रूप में उभरा, चार

जोन में क्लीन स्विप कर मान्यता प्राप्त संघ बना। कांग्रेस की सहयोगी इंटक से संबद्ध एनएफआईआर ने नौ में मान्यता प्राप्त की ।

पहली बार  पूर्वोत्तर रेलवे जोन में बीआरएमएस से संबद्ध पूर्वोत्तर रेलवे श्रमिक संघ (पीआरएसएस) ने बाजी मार ली।

इस बार 13 लाख रेल कर्मचारी करेंगे फैसला

रेलवे में मान्यता के लिए यूनियनों का चुनाव एक साथ सभी 16 जोन में होता है, जिसमें इस बार लगभग 13 लाख रेल कर्मचारी वोटर होंगे।

सभी जोन मंडलों में बंटे हुए हैं, जिनमें रेलवे के कई विभाग के कर्मचारी काम करते हैं।

कैडर बेस की भी एसोसिएशन बनी हुई हैं, जैसे लोको पायलट और गार्ड, कंट्रोलर, ट्रैकमैन आदि की। लेकिन इन एसोसिएशनों को मान्यता चुनाव में भागीदारी की अनुमति नहीं है।

इसके लिए ट्रेड यूनियन एक्ट में रजिस्टर्ड यूनियन ही भाग लेती है, जिनका पंजीकरण न्यूनतम दो साल पुराना हो चुका हो। कैडर बेस यूनियनों के लोग भी इन यूनियनों में सदस्य होते हैं।

चुनाव के समय सेक्शन में कर्मचारियों की संख्या के हिसाब से बूथ बनाए जाते हैं। मतदान किसी एक यूनियन के पक्ष में करना होता है और मतगणना जोन स्तर पर होती है।

अधिकतम दो यूनियनों को ही मान्यता

सुप्रीम कोर्ट के हाल तक लागू निर्णय के अनुसार जिस यूनियन को कुल डाले गए मतों का 35 फीसद या कुल मतदाताओं के सापेक्ष 30 प्रतिशत मिलने पर मान्यता दी जाती है।

इस तरह एक जोन में अधिकतम दो यूनियनों को ही मान्यता मिल सकती है।

सत्तर फीसद वोट पाने वाली यूनियन को एकल मान्यता मिलती है, क्योंकि कोई दूसरी यूनियन 35 फीसद वोट पा ही नहीं सकती। इस आधार पर एआईआरएफ से जुड़ी यूनियनों को चार जोन में एकल मान्यता मिली हुई है।

जीतने वाली यूनियन आमतौर पर किसी फेडरेशन का घटक होती है। ऐसे में वही फेडरेशन ताकतवर होता है जिसकी यूनियनों में सबसे ज्यादा जोन जीते हों।

अभी तक के नियम के हिसाब से नौ जोन में से पहले या दूसरे नंबर पर जिस फेडरेशन की यूनियन जीत चुकी हों, उसे रेलवे बोर्ड श्रमिक मुद्दों पर बातचीत के लिए मान्य करता है।

(रिकवरी डेट- )

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