कंपनी का आदमी होगा लेबर अफ़सर, मैनेजमेंट करेगा यूनियन की मान्यता का फैसलाः इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड

Maruti workers agitated in tau devilal park in march 2017 demanding release of co workers

By डाॅ. किंगशुक सरकार

बीते चार मई को केंद्रीय श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय ने इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड (औद्योगिक संबंध कोड) यानी आईआरसी, 2020 के तहत ट्रेड यूनियनों की मान्यता और उसके अधिकार क्षेत्र से संबंधित नियमों को लेकर नए मसौदे की अधिसूचना जारी की है।

सरकार ने मसौदे पर लोगों से एक महीने के अंदर प्रतिक्रियाएं और सुझाव मांगे हैं। आईआरसी को पिछले साल सिंतबर में संसद के दोनों सदनों में पास कराया जा चुका है। फिलहाल श्रम मंत्रालय इसके नियमों को अंतिम रूप देने में लगा है।

मसौदे में दो मुद्दे महत्वपूर्ण हैं- पहला वर्करों की रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन या ट्रेड काउंसिल को उस कंपनी में मज़दूरों की एकमात्र वार्ताकार यूनियन के तौर पर मान्यता देने संबंधी, और दूसरा वे मुद्दे जिन पर ट्रेड यूनियनें मालिक से वार्ता कर सकेंगी।

इन दोनों मुद्दों में कुछ खामियां हैं, जिन्हें हम आगे देखेंगे- मसौदे का सेक्शन 4, वर्करों की एक रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन के बारे में मानदंड बनाता है कि वो आईआरसी के सेक्शन 14 (2) के तहत मैनेजमेंट से वार्ताकार करने वाली वर्करों की एकमात्र यूनियन है।Download Workers Unity Android App

यूनियन की मान्यता टेढ़ी खीर

इसके मुताबिक, अगर किसी कंपनी में कोई एक ऐसी रजिस्टर्ड यूनियन है, जिसके सदस्यों की संख्या कुल वर्करों की 30% से कम नहीं है, तो मैनेजमेंट को इस यूनियन को ‘वर्करों की एकमात्र वार्ताकार यूनियन’ के तौर पर मान्यता देनी होगी।

लेकिन अगर इसी कंपनी में कई ट्रेड यूनियनें हैं तो आईआरसी ने अपने संविधान में वार्ताकार काउंसिल का नियम रखा है।

मसौदे के मुताबिक, वार्ताकार यूनियन अथवा काउंसिल के गठन की प्रक्रिया पहले से गठित यूनियन का कार्यकाल खत्म होने से तीन महीने पहले शुरू करनी होगी।

इसके साथ ही ट्रेड यूनियनों को अपने रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट की एक काॅपी, अपने सदस्यों की लिस्ट की एक काॅपी, सदस्यता के प्रमाण की एक काॅपी और सालाना रिटर्न की नवीनतम काॅपी ट्रेड यूनियनों के रजिस्ट्रार के पास जमा करानी होगी।

इसमें सबसे विवादास्पद मुद्दा यह है कि अगर किसी ट्रेड यूनियन के पास 30% वर्करों की सदस्यता है तो इसे एकमात्र वार्ताकार यूनियन के तौर पर मान्यता मिल जाएगी।

यह आईआरसी के सेक्षन 14 (3) के नियम का उल्लंघन हैं, जिसमें कहा गया है कि किसी कंपनी में कई यूनियनें होने पर एकमात्र वार्ताकार यूनियन की मान्यता उसे मिलेगी, जिसके सदस्य वर्करों की तादाद 51% होगी।

इस तरह संख्या को 51% से 30% सदस्यता तक लाना विरोधाभासी है। दरअसल अगर कहीं केवल एक ट्रेड यूनियन है तो इसमें एकमात्र वार्ताकार यूनियन का पैमाना तय करना ग़ैरज़रूरी है। ऐसी ट्रेड यूनियन अपने आप वार्ताकार बन जाती है।

अगर मापदंड बनाना है तो ये आईआरसी में बनाए गए नियमों के मुताबिक होना चाहिए, जो कि कहता है कि कुल सदस्यता का 51% होना चाहिए।

इसको यूं समझिए- किसी कंपनी में ट्रेड यूनियन रजिस्टर कराने के लिए न्यूनतम  कुल मज़दूरों का 10% या 100 सदस्य (जो भी कम हो) का नियम है। इसका मतलब है कि एक यूनियन 10 प्रतिशत वर्कर सदस्यता के साथ क़ानूनी रूप से रह सकती है। हालांकि अगर कंपनी में ये अकेली यूनियन है तो भी वो अकेली वार्ताकार नहीं होगी।

मसौदा के नियमों के अनुसार, इस यूनियन को मैनेजमेंट से वार्ता करने के लिए कम से कम 30% सदस्यता हासिल करनी होगी। अगर कई यूनियनें हैं तो वार्ताकार बनने के लिए ये संख्या 51% रखी गई है।

मान लीजिए किसी कंपनी में एक यूनियन के पास 25% वर्करों की सदस्यता है लेकिन, मसौदा नियमों के अनुसार, इसके बावजूद वो मैनेजमेंट से बातचीत करने की हकदार नहीं होगी। लेकीन व्यवहारिक रूप से चूंकि कंपनी में कोई और यूनियन नहीं है तो मैनेजमेंट के साथ बातचीत करने की ज़िम्मेदारी उसी की होगी। ऐसे में नए नियम अपने आप में विरोधाभासी दिखाई दे रहे हैं।

कंपनी खुद रखेगी अपना लेबर अफ़सर

मसौदे का सेक्शन 5 ट्रेड यूनियन की सदस्यता के वेरीफिकेशन से जुड़ा है, जो किसी कंपनी के लिए सेक्शन 14 की उपधारा (3 )और (4) के तहत आता है।

इसके अनुसार, कंपनी का मैनेजमेंट एक स्वतंत्र और निष्पक्ष अधिकारी नियुक्ति करेगा जो ट्रेड यूनियन की सदस्यता का सत्यापन करेगा। इस अधिकारी का उस ट्रेड यूनियन से कोई संबंध नहीं होगा जिसका सत्यापन किया जाना है।

इसमें भी खामी है क्योंकि ‘स्वतंत्र’ अधिकारी, जिसे कंपनी ने ज़िम्मेदारी दी है, कंपनी के हितों के प्रति वफ़ादार होगा, यूनियन के प्रति नहीं। वह कैसे निष्पक्ष रह सकता है? अगर उसे बाहर से भी लाया जाता है तो भी वो मैनेजमेंट के पूर्वाग्रह से ही संचालित होगा।

सामूहिक मोल भाव (समझौता वार्ता) में चूंकि मैनेजमेंट एक पक्ष होता है इसलिए यूनियन की ओर से कौन प्रतिनिधि होगा, उसे ये तय करने का हक़ नहीं होना चाहिए।

फिलहाल किसी यूनियन की सदस्यता का सत्यापन वर्करों के द्वारा वोटिंग करा कर किया जाता है, उदाहरण के लिए ओडिशा और आंध्र प्रदेश में। ऐसे चुनाव राज्य सरकार के श्रम विभाग की देखरेख में कराए जाते हैं। डिप्टी या असिस्टेंट लेबर कमिश्नर चुनाव अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं।

मसौदा क़ानून में ये ज़िम्मेदारी उस वेरिफ़िकेशन अधिकारी को दी गई है जिसे मैनेजमेंट ज़िम्मेदारी सौंपेगा। चूंकि ये मामला बहुत संवेदनशील है और बहुत निष्पक्षता की मांग करता है, ऐसे में सरकार को अपने वैरिफ़िकेशन अधिकारी नियुक्त करना चाहिए।

नए क़ानून में वैरिफ़िकेशन अधिकारी को ही चुनाव अधिकारी बनाने का प्रावधान बनाया गया है। अगर ऐसा होता है तो चुनाव प्रक्रिया का उद्देश्य और निष्पक्षता ख़तरे में पड़ जाएगी।

बातचीत सरकार तय करेगी

मसौदे के सेक्शन 3 में उन मामलों की सूची दी गई है, जिन पर वार्ताकार यूनियन और मैनेजमेंट के बीच आईआरसी के सेक्शन 14 (1) के तहत समझौता वार्ता हो सकेगी।

ये मुद्दे हैं- वर्करों के ग्रेड और कैटेगरी का वर्गीकरण करना, मैनेजमेंट की ओर से कंपनी में लागू होने वाले स्टैंडिंग ऑर्डर, मज़दूरों की सैलरी, उनके वेतन की अवधि, डीए, बोनस, वेतन वृद्धि, परम्परागत छूट या सुविधाएं और अन्य भत्ते।

इसके अलावा ट्रेड यूनियन वर्करों के काम के घंटे, छुट्टी के दिन, हफ़्ते में काम के दिन, आराम का अंतराल, शिफ़्ट, सवैतनिक छुट्टी, प्रमोशन एवं ट्रांसफ़र नीति, अनुशासनात्मक कार्यवाही और अवकाश के दिनों पर भी समझौता कर सकती हैं।

आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका है, जब कंपनी और ट्रेड यूनियनों के बीच बातचीत के मुद्दों की सीमा तय करने का नियम बनाया जा रहा है।

कंपनी और ट्रेड यूनियनों के बीच संबंध समय के साथ बदलते रहते हैं और उनके बीच बातचीत के तमाम नए पहलू निकलते हैं, इसलिए पहले से उनकी सीमा तय करने का कोई मतलब नहीं है।

कुल मिलाकर इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड ट्रेड यूनियनों के विकास और उनकी सक्रियता को कम करता है और वर्करों व कंपनी के बीच समझौता वार्ताकार की उसकी भूमिका को सीमित करता है।

सरकार का इरादा क्या है?

समझौता वार्ता, ट्रेड यूनियन की मान्यता और वेरिफ़िकेशन अधिकारी से संबंधित मोदी सरकार जो नए नियम बना रही है,  वो पहले से ही अधिकार विहीन यूनियनों की सामूहिक समझौता वार्ता की क्षमता को बिल्कुल भोंथरी कर देगा।

एकमात्र समझौता वार्ताकार होने के लिए जो नियम बनाए गए हैं वो मनमाने हैं और इंडस्ट्रिय रिलेशंस कोड के अपने प्रावधानों के ही ख़िलाफ़ हैं।

कंपनी के द्वारा वैरिफ़िकेशन अधिकारी की नियुक्ति तो इस पूरी प्रक्रिया के उद्देश्य से ही उलट है। कुल मिलाकर मज़दूरों की सामूहिक समझौता वार्ता की क्षमता को ये नए क़ानून ख़त्म कर देंगे।

(लेखक स्वतंत्र शोधकर्ता और पश्चिम बंगाल सरकार में लेबर एडमिनिस्ट्रेटर हैं। वो नोएडा में वीवी गिरी नेशनल लेबर इंस्टीट्यूट, नोएडा में फैकल्टी मेंबर भी रह चुके हैं। ये लेख द लीफ़लेट वेबसाइट से साभार प्रकाशित है। अंग्रेज़ी से हिंदी तर्ज़ुमा दीपक भारती ने किया है। मूल लेख यहां पढ़ सकते हैं।)

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