कोरोना की आड़ में मज़दूरों के मेहनत की लूट का मौका नहीं गंवाना चाहती मोदी सरकार

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                  By विनीत तिवारी 
 

सरकार कोरोना वायरस से निपटने की आड़ में देश के मज़दूरों को मारने पर आमादा है। अचानक लॉकडाउन घोषित करने के बाद मज़दूरों को लग रहा था कि अब सरकार उनकी सुध लेगी। क़रीब दो महीनों से अपने घरों से दूर ये मज़दूर काम-धंधे से बेकार, खाने-पीने के लिए सरकार और दानदाताओं पर मोहताज हो गए है।

अब लॉकडाउन खोलकर रुकी हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सरकार जिनके जीवन को दाँव पर लगाने जा रही है, उन्हीं मज़दूरों से उनके हक़ छीनने के लिए सरकार ने श्रम कानूनों में बदलाव कर दिए हैं। इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय समीकरण भी छिपे हुए हैं।

मज़दूरों को नयी परिस्थिति में नयी तरह से अपने आपको संगठित करना, असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को अपने साथ जोड़ना होगा और संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।

उक्त बातें शहर के विभिन्न श्रम संगठनों द्वारा 10 मई 2020 को आयोजित एक वेबिनार में कही गईं। वेबिनार का विषय था – “कोरोना की आड़ में श्रम कानूनों में बदलाव।” वेबिनार की शुरुआत में संयोजक विनीत तिवारी (इंदौर) ने कहा कि कोविड-19 से निपटने के लिए सरकार ने तब लॉकडाउन कर दिया था जब भारत में कोविड-19 के केवल करीब 500 केसेस थे। सरकार के उस अदूरदर्शी निर्णय ने करोड़ों मज़दूरों को बेतहाशा मुश्किल में डाल दिया था।

जब केरल और ओडिशा जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर अन्य सभी प्रदेशों की सरकारें इन गरीबों की भोजन, राशन, दवाओं, या अपने घर से संपर्क की व्यवस्थाओं में नाकाम रहीं तो ये मज़दूर भूख से मरने के डर से उन जगहों को छोड़ कर वे निकल पड़े अपने गाँवों की तरफ। सूखी हड्डियों वाले महिला-पुरुष अपने बच्चों को गोद में लेकर सैकड़ों, और हज़ारों किलोमीटर लम्बे सफर पर, चप्पलें टूट गईं, चिलचिलाती गर्मी में कुछ ने दम भी तोड़ दिया।
उन्हें भी कहीं भी रोक लिया जाता है और उनसे बदतमीजी की जाती है, बजाय इसके कि उन्हें लज्जा और ग्लानि के साथ, माफ़ी मांगकर शासन और प्रशासन अपने घर छुड़वाने की व्यवस्था करे। यह दृश्य हमारे दिलों को दहला ही रहे थे कि पता चला मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा अन्य कुछ और भी राज्यों की सरकारों ने श्रम कानूनों में बदलाव का फैसला कर लिया है।  ऐसे फैसले लेते हुए न तो विपक्षी दलों से पूछा गया और न ही श्रम संगठनों के साथ कोई मशविरा किया गया।
इंदौर एटक के महासचिव कॉमरेड रुद्रपाल यादव ने कहा कि हमें प्रवासी मज़दूरों की समस्याओं पर सबसे पहले गौर करना चाहिए और सरकार ने जो बदलाव श्रम कानूनों में लाये हैं उनके खिलाफ इकट्ठे होकर लड़ाई लड़नी चाहिए। सीटू के मध्य प्रदेश के राज्य कमिटी सदस्य कॉमरेड कैलाश लिम्बोदिया ने सरकार के इन क़दमों की कड़ी भर्त्सना की।

उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार ने कारखाना अधिनियम, 1948, ठेका श्रमिक अधिनियम, दुकान एवं स्थापना अधिनियम आदि कानून बदल डालने का असर पूरे श्रमिक वर्ग पर बहुत प्रतिकूल पड़ेगा।
इंटक के प्रदेश महामंत्री श्याम सुन्दर यादव (इंदौर) ने कहा कि सरकार ने श्रम संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ कोई सलाह मशविरा नहीं किया और कानूनों में बदलाव कर दिया। आज़ादी के बाद पहली बार मज़दूरों के साथ इस तरह का तानाशाहीपूर्ण रवैय्या अपनाया गया है. इसका पुरज़ोर विरोध किया जाएगा। एटक के प्रांतीय उप महासचिव एस. एस. मौर्या  (भोपाल) ने कहा कि प्रदेश की भाजपा सरकार पहले भी अपने शासन के दौरान मज़दूर विरोधी रुख दिखा चुकी है और अब इस महामारी के दौरान पिछले दरवाज़े से श्रम क़ानून बदलने की उसकी चाल साबित करती है कि उसके केंद्र में पूंजीपति ही हैं।
उन्होंने कहा कि चार इन्वेस्टर्स मीट करने के बाद 4 लाख हेक्टेयर ज़मीन सरकार ने पूँजीपतियों को दे दी है। ये कॉर्पोरेटी लूट है और इसके ख़िलाफ़ लड़ाई सभी मज़दूर संगठनों को साथ मिलकर लड़नी होगी। इंटक के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बी. डी. गौतम (भोपाल) और इंटक के ही प्रांतीय महामंत्री कृपा शंकर वर्मा  (जबलपुर) ने कहा कि इन कानूनी बदलावों से मज़दूर पूरी तरह निहत्था और कमज़ोर हो जाएगा। अगर नियोक्ता उसे तनख्वाह भी न दे तब भी मज़दूर को अधिकार नहीं होगा कि वो इसके खिलाफ कोर्ट में जा सके।
एटक के प्रांतीय उपाध्यक्ष अधिवक्ता कॉमरेड अरविन्द श्रीवास्तव (जबलपुर) ने कहा कि ये तथाकथित सुधार दरअसल गैरकानूनी हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के ऐतिहासिक सम्मेलनों में यह बात कानूनी तौर पर मान्य है कि मज़दूरों से 8 घंटे से ज़्यादा काम नहीं लिया जा सकता,  फिर यह सरकार कैसे 12 घंटे के काम का नियम बना  सकती है? इसके अलावा भी संविधान में वर्णिंत अनेक अनुच्छेदों का उल्लंघन होगा अगर ये श्रम कानून अमल में लाये गए तो।

इंटक नेता रतिराम यादव (ग्वालियर) ने भी चर्चा में भाग लेते हुए इन बदलावों को मज़दूर वर्ग के हितों पर कुठाराघात बताया। ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय  उपाध्यक्ष  अरविन्द पोरवाल ने कहा कि 1990 में ग्लोबलाइजेशन से ही मज़दूरों के खिलाफ नीतियाँ बनने का दौर शुरू हो गया था और सरकारें पूँजीवादी नीतियाँ लागू कर रही थीं, लेकिन अभी के दौर में तो यह मज़दूर विरोध अपने चरम पर है।  ऐसा लगता है जैसे केन्द्र और राज्य सरकार ने मज़दूरों को कोरोना से भी ज़्यादा बड़ा दुश्मन मान लिया हो।  रतलाम से इंटक के श्री अरविन्द सोनी ने भी अपनी बात रखी।
अर्थशास्त्री जया मेहता (इंदौर) ने कहा कि श्रम कानूनों में बदलाव से जिन मज़दूरों की ज़िंदगी पर असर पड़ेगा, वैसे मज़दूर कुल मज़दूरों का बहुत थोड़ा प्रतिशत हैं।  जो असंगठित मज़दूर सैकड़ों – हज़ारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गाँव वापस जा रहे हैं , जो रेल-सड़क हादसों और भूख का शिकार हो रहे हैं, उनकी तादाद कुल मज़दूरों की लगभग 93 प्रतिशत है।  इन्हें रोज़गार की, या बेहतर जीवन की या काम के घंटों की या किसी और तरह की कानूनी सुरक्षा कभी भी मिली ही नहीं,  लेकिन मज़दूरों के ये दोनों तबके आपस में जुड़े हुए हैं। कॉर्पोरेट जगत का तर्क यह है कि अगर नियम ढीले हो जाएँगे तो वे अधिक मज़दूरों को काम दे सकेंगे और तब सडकों -पटरियों पर चल रहे इन मज़दूरों को भी बेहतर रोज़गार हासिल होने की सम्भावना बनेगी। लेकिन यह एक साफ़ झूठ है।
इतिहास गवाह है कि कानूनों में ढील देने से रोज़गार नहीं बढ़ा बल्कि मज़दूरों का शोषण ही बढ़ा है। उन्होंने कहा कि  मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात सरकार ने श्रम कानूनों में जो बदलाव किये हैं, वे केवल देश और प्रदेशों की राजनीति तथा अर्थव्यवस्था से भर जुड़े हुए मामले नहीं है। यह एक अंतरराष्ट्रीय बिसात का हिस्सा है।  अमेरिका चाहता है कि कोरोना का बहाना लेकर चीन से निर्माण का आधार छीन लिया जाये ताकि चीन की अर्थव्यवस्था चरमरा जाये और अमेरिका की प्रतिस्पर्धा में न रहे।

इसके लिए जापान और योरप के अनेक देश भी तैयार हैं। भारत इस मौके का फायदा उठाकर विदेशी निवेश को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहा है।
भारत ने 1000 अमेरिकी कंपनियों को ये आश्वासन दिया है कि अगर वे चीन से अपना निर्माण आधार भारत शिफ्ट करना चाहें तो उनका भारत स्वागत करेगा। भारत में संगठित क्षेत्र में प्रति मज़दूर प्रति माह औसत खर्च 143 अमेरिकी डॉलर है जबकि चीन में यह दर 234 अमेरिकी डॉलर है।
मतलब भारत में श्रम सस्ता है और उसे और भी सस्ता और असुरक्षित बनाकर अंतरराष्ट्रीय पूँजी के सामने थाली में हमारी सरकार पेश कर रही है।
ज़ाहिर है हमारी सरकार के सामने मज़दूर तबके की इतनी ही अहमियत है कि उसके ज़रिये रुकी हुई अर्थव्यवस्था चल सके चाहे ऐसा उनकी ज़िंदगियों की कीमत पर भी क्यों न हो। बीएसएनएल के वरिष्ठ ट्रेड यूनियन नेता एस. के. दुबे ने भी अपने विचार साझा किये।

वेबिनार में इंदौर से वरिष्ठ ट्रेड यूनियन नेता वसंत शिंत्रे, अजय लागू, प्रलेस और इप्टा से केशरी सिंह चिड़ार, प्रमोद बागड़ी, रामआसरे पांडे, भारतीय महिला फेडरेशन की राज्य  सचिव सारिका श्रीवास्तव, विवेक मेहता, सुनील चंद्रन, डॉ. रत्नेश खरे, शरीफ़ खान. सुरेश उपाध्याय, प्रणय, महिमा, नेहा, गीतेश, शिवपुरी से मनीषा,  पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र के श्रमिक नेता यशवंत पैठणकर, धर्मपाल अधिकारी, राजेश सूर्यवंशी, किसान नेता अरुण चौहान, छत्तीसगढ़  इप्टा और प्रलेस से नथमल शर्मा, राजेश श्रीवास्तव, उषा आठले, अजय आठले, जीवेश चौबे, तस्लीम, पुणे से विजय दलाल, भोपाल से सत्यम, परशुराम तिवारी, सीमा, काशीराम अहिरवार, कोतमा से सुषमा कैथल, कोलंबिया (अमेरिका) से तुहिन चक्रबॉर्ती, गुना से मनोहर मिरोटे, अशोकनगर से मयंक जैन, होशंगाबाद से प्रियम सेन दिल्ली से विनोद कोष्टी, मनीष श्रीवास्तव, पंखुरी ज़हीर, राजीव कुमार, आदि अनेक लोग शामिल हुए।

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