आज लेफ़्ट कहां है और क्या कर रहा है?- पीपुल्स रिव्यू का नज़रिया

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कोविड -19 की दूसरी लहर और ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे भारत में गरीबों के लिए बड़ी तबाही इंतजार कर रही है।

पीपल्स रिव्यू ने अपने एडिटोरियल में कहा है कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जान लेने की निर्दनीय नीति के कारण फेल होने वाले स्वास्थ्य ढांचे और राज्यों में फिर से लगने वाले लाॅकडाउन से गरीब आर्थिक तौर पर पूरी तरह बर्बाद होेने वाले हैं।

मोदी न तो इतने बुरे हालात पैदा करने के लिए किसी तरह की जिम्मेदारी ले रहे हैं और न ही गरीब को सहारा देने के लिए पिछले साल की तरह किसी आर्थिक पैकेज का एलान कर रहे हैं।

पिछले साल आत्मनिर्भर भारत प्लान के तहत उनकी सरकार ने एक विशाल राहत पैकेज का एलान किया था, इस साल ऐसा कुछ नहीं किया गया।

इन हालातों में तथाकथित लेफ्ट और एंटी फासिस्ट लोगों ने जरूरतमंदों की मदद करना शुरू किया है। वे सोशल मीडिया पर कोविड-19 एसओएस ग्रुप बनाकर बीमार और जरूरतमंद लोगों को स्वैच्छिक सेवाएं दे रहे हैं।

पिछले साल लाॅकडाउन के दौरान भी उन्होंने इसी तरह से प्रवासी मजदूरों को उनके गांव लौटने के रास्ते में खाना और दूसरी चीजों देकर उनकी मदद की थी।

हालांकि उनकी नेकनीयती की तारीफ की जानी चाहिए लेकिन ऐसा करके वे राज्य को इस मुसीबत, खासकर लाॅकडाउन में अपनी जिम्मेदारी से बचने की छूट दे रहे हैं, जबकि यह कोई नेचुरल आपदा नहीं बल्कि इसे इंसानों ने पैदा किया है।

नेचुरल आपदा के समय ऐसे काम अच्छे लग सकते हैं, जब राज्य के संसाधन बर्बाद हो चुके होते हैं लेकिन लाॅकडाउन के दौरान केंद्र और राज्य दोनों सरकारों का फर्ज है कि वे गरीबों को उनके नुसान की भरपाई के लिए राहत दें।

मोदी सरकार को ऐसे समय में गरीबों को राशन देने, न्यूनतम मासिक आय की व्यवस्था करने और स्वास्थय सेवाओं को सुधारने की जिम्मदारियों से बचने की छूट कौन दे सकता है। क्या तथाकथति लेफ्ट और लोकतांत्रिक ताकतें सरकार को तानाशाही लागू करने की इजाजत दे सकती हैं।

क्या मजूदरों की प्रतिनिधत्व करने वाली ताकतें, किसान और मेहनतकश लोग सरकार को इसकी इजाजत दे सकते हैं कि वह सब कुछ लोगों के भरोसे छोड़कर बच निकले।

यही तथाकथित लेफ्ट और एंटी फासिस्ट लोग जो मोदी सरकार की कट्टर हिंदूवादी और काॅरपोरेट परस्त नीतियों के खिलाफ कोई जनांदोलन खड़ा नहीं कर रहे, जो हर गरीब परिवार, खासकर असंगठित क्षे़त्र में काम करने वाले मजूदरों के लिए न्यूनतम मासिक आय की मांग नहीं कर रहे, जो स्वास्थ्य क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण की मांग नहीं कर रहे, वे सरकार की अपराधों में उसके साथी हैं।

वे लोगों के गुस्से को दबा रहे हैं और सरकार को बचने का रास्ता दे रहे हैं।

बीते एक मई को मजदूर दिवस पर भारत की मुख्यधारा की मीडिया ने मजदूर वर्ग, खासकर असंगठित क्षे़त्र में काम करने वाले मजूदरों के हितों से जुड़ा कोई सवाल नहीं उठाया जबकि लाॅकडाउन में सबसे ज्यादा मार इसी तबके को झेलनी पड़ रही है, उसके पास वर्क फ्राॅम होम का विकल्प नहीं है।

काॅरपोरेट नियंत्रित प्रेस को छोड़ भी दे तो तथाकथित मुख्यधारा की लेफ्ट और एंटी फासिस्ट मीडिया ने भी ऐसा कुछ नहीं किया।

जिन मजदूरों के खून और पसीने की बात लेफ्ट और एंटी फासिस्ट ताकतें करती रही हैं, उन्हें अपने भरोसे छोड़ दिया गया है। जबकि यही समय है, जब उन्हें इस सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ सड़कों पर उतरकर आंदोलन करना चाहिए।

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