कारपोरेट और आरएसएस के सामने सरेंडर कर चुका है ट्रेड यूनियन आंदोलन? भाग-1

Protest at Jantar Mantar Aituc Citu Hms

By प्रदीप कुमार

भारत का मज़दूर आंदोलन बहुत गंभीर संकट से जूझ रहा है। नब्बे के दशक से ही एक ओर समूचे औद्योगिक मज़दूरों को लगातार असंगठित नौकरियों में धकेलने का प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है और दूसरी ओर असंगठित क्षेत्र में वर्करों को ख़तरनाक काम में डाला जा रहा है।

लेकिन 2014 में जबसे मोदी के नेतृत्व में आरएसएस का राज आया है इसमें और तेज़ी आई है।

जिन ट्रेड यूनियनों को माना जाता था कि वो मज़दूरों को पूंजीवाद और फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ जुझारू आंदोलनों के लिए तैयार करने के ट्रेनिंग स्कूल की तरह काम करेंगी, वे मुट्ठी भर परमानेंट वर्करों की क़ानूनी सहायता देने और उनके बहुत ही संकीर्ण आर्थिक हितों  को पूरा करने तक सीमित हो गई हैं।

मज़दूरों की पहचान, शोषण के अलग अलग वर्गों में बंट चुकी है, मसलन कांट्रैक्ट लेबर, ट्रेनी, अप्रेंटिस, टेंपरेरी वर्कर आदि।

केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की अगुवाई में चल रहे ट्रेड यूनियन आंदोलन ने मान लिया है कि उनकी नई भूमिका परमानेंट वर्करों के ‘क़ानूनी अधिकारों’ को सुरक्षित रखने में महज एक वार्ताकार की है। जबकि हालत ये है कि ये भी अधिकार पूंजीवादी शासक वर्ग और फ़ासिस्टों के द्वारा लगातार बदले जा रहे हैं।

ऐसे घनघोर समय में मुख्य धारा के वाम और उनसे जुड़ी केंद्रीय ट्रेड यूनियनें अपनी प्रासंगिकता, अपने असरदार होने और प्रतिरोध खड़ा करने की चाहत को कैसे देखती हैं, इस पर विचार करने की ज़रूरत है।

ट्रेड यूनियन आंदोलन मज़बूत हो रहा है या कमज़ोर?

कुछ साल पहले एक साक्षात्कार में जाने माने अर्थशास्त्री और राजनीतिक टिप्पणीकार प्रभात पटनायक ने दावा किया था कि भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन बहुत मजबूत है।

लेकिन जब मज़दूरों का असंगठित क्षेत्र में हिस्सा बढ़ रहा है, दमन करने वाले श्रम क़ानून लगातार बन रहे हैं और एक के बाद एक यूनियनों पर प्रतिबंध लगाया जा रहा हो, ये बात हैरान करती है कि आखिर इतना आशावाद कहां से आता है?

शायद इसका जवाब केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के नेताओं के उन मानदंडों में खोजा जा सकता है, जिसमें वो मज़दूर वर्ग के आंदोलन में खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की कोशिश करते हैं।

और ये मानदंड क्या हैं? सालाना देशव्यापी प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले वर्करों की संख्या!

साल में एक बार होने वाली देशव्यापी हड़ताल के दौरान केंद्रीय एजेंडे में वही दशकों पुरानी मांगें होती हैं, जिनमें समय के साथ कोई बदलाव नहीं दिखता।

इनमें से कोई भी मांग आज तक सरकार की ओर से नहीं मानी गई, बल्कि दूसरी तरफ वर्करों के अधिकार इस हद तक ख़त्म कर दिए गए हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

केंद्रीय ट्रेड  यूनियन नेताओं के दावे के अनुसार, 2015 में इन हड़तालों में 15 करोड़ मज़दूरों ने हिस्सा लिया और 2016 में 16 करोड़ मज़दूरों ने।

इससे ऊपरी तौर पर तो मज़दूर वर्ग का आंदोलन बहुत मज़बूत दिखाई देता है और ये भी लगता है कि उनके नेतृत्व में ये आंदोलन और मजबूत हो रहा है।

यूनियनों ने आरएसएस और कारपोरेट के सामने सरेंडर कर दिया है?

इसलिए प्रासंगिक रहने के लिए ये मानदंड उनके अपने बनाए गए हैं, जिसे शार्ट में जीडीपी कहा जा सकता है यानी प्रदर्शन में लोगों की सकल घरेलू हिस्सेदारी, जोकि ट्रेड यूनियन आंदोलन में क्रांतिकारी संभावना नापने के एक पैमाने के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।

हालांकि ये पैमाना बहुत दिखावे वाला और दिग्भ्रमित करने वाला है।

प्रदर्शनों में शामिल होने वालों की भारी संख्या असल में ऐसे वर्करों की होती है जो अपने काम से एक दिन की छुट्टी लेते हैं और उन मीटिंगो में शामिल होते हैं जहां उनके नेता मोदी सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ शानदार भाषण देते हैं।

इस दौरान देश के अधिकांश हिस्से में बहुत कम फ़ैक्ट्रियां बंद होती हैं और सरकार पर इस एक दिन के लिए ही सही बहुत मामूली असर पड़ता है।

असल में यूनियनों से जुड़े वर्करों की ज़िंदगी में भी ये राष्ट्रीय हड़ताल बस एक दिन की रस्म साबित होकर रह जाती है।

ये रस्म भी हड़ताल की तैयारी में वर्करों को शामिल नहीं करा पाती, उन्हें शिक्षित नहीं करती और कोई लंबे संघर्ष का मंच भी नहीं दे पाती।

हर साल घड़ी की सुई की तरह हालात अपनी जगह पर होते हैं, जहां शुरुआत और अंत भी उसी मांग पत्र और उसी भाषणों से होता है।

ऐसा लगता है कि आरएसएस और कारपोरेट के द्वारा जो नव उदारवादी फ़ासिस्ट प्रोजेक्ट तैयार किया गया है उसमें केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने अपनी भूमिका से समझौता कर लिया है। एक किस्म का शांतिपूर्ण सहअस्तित्व क़ायम हो चुका है।

अपने ही वर्ग से दूर होता ट्रेड यूनियन आंदोलन

सैद्धांतिक राजनीतिक विचारधार की कमी और क़ानूनी और आर्थिक लड़ाइयों पर फ़ोकस ने मज़दूरों को घनघोर रूप से अराजनीतिक बना दिया है, ख़ासकर परमानेंट वर्करों को भी।

अगर केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के कामों को ठीक से शब्द दें तो उनका काम बस लेबर कमिश्नर के ऑफ़िस और अदालतों के चक्कर लगाना रह गया है।

तथ्य ये है कि असगंठित क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा इस ट्रेड यूनियन आंदोलन के बाहर छूट गया है और ट्रेड यूनियन आंदोलन तेज़ी से अपने ही वर्ग से दूर होते आंदोलन में तब्दील हो गया है।

अगर मज़दूर वर्ग के आंदोलन को आगे जाना है, तो उसे इस पतन से अलग होकर अपनी राजनीति और व्यवहार को नया आकार देना होगा और ये तभी हो सकता है जब सुधारवादी और क़ानूनी लड़ाईयों के केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के उपदेशों को खारिज कर दिया जाए।

ये संकट ऐसे हवा में पैदा नहीं हुआ है। असल में मुख्य धारा के वाम के वैचारिक पतन से ये पैदा हुआ है और इसके तमाम उदाहरण मिल जाएंगे।

हाल ही में सीटू और एटक नेताओं का एक इंटरव्यू देखा जिसमें एटक की नेता को ये कहते हुए सुना जा सकता है कि ‘पांच अगस्त को राम मंदिर का भूमि पूजन असल में जनता की समस्या से ध्यान भटकाने के लिए किया गया।’ उनके अनुसार, ‘राम मंदिर निर्माण को अभी टाला जा सकता था क्योंकि राम तो हम सभी के दिलों मे हैं और हमेशा रहेंगे।’

विचारशून्य होता ट्रेड यूनियन आंदोलन

एक कम्युनिस्ट के लिए बाबरी मस्जिद ढहाने के ख़िलाफ और इस्लाम विरोधी नफ़रत और समाज के साम्प्रदायिक-करण के ख़िलाफ़ एक सैद्धांतिक रुख़ न अपनाना बल्कि इससे उलट हिंदू पहचान को हरेक के दिल और मन की बात बताना दिखाता है कि इन नेताओं ने कट्टर दक्षिणपंथी ताक़तों के सामने पूरी तरह सरेंडर कर दिया है।

इतिहास हमें बताता है कि वैचारिक पतन का शिकार हर वाम आंदोलन, जनता के साथ जुड़ाव और वर्ग संघर्ष की सैद्धांतिक धुरी और लोकलुभावन नारों में फर्क करने की क्षमता खो बैठता है।

ये साक्षात्कार इसका प्रातिनिधिक उदाहरण है कि भ्रमित विचार किस कदर वाम को संक्रमित कर चुका है।

ध्यान देने वाली बात है कि ये केंद्रीय ट्रेड यूनियन और ट्रेड यूनियन आंदोलन की मोटे तौर पर आलोचना है, न कि इन यूनियनों में मौजूद प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की।

ये आलोचना इनके व्यवहार में कम्युनिस्ट विचारधारा का पूरी तरह ख़त्म होने की है। अलग थलग पड़ी मेहनतकश आबादी दशकों से इस आंदोलन के बारे में यही महसूस कर रही है। (दूसरा और अंतिम भाग 21 अगस्त सुबह छह बजे देखें। )

(ये लेखक के स्वतंत्र विचार हैं और इसपर अगर कोई प्रतिक्रिया देता है तो उसे भी प्रकाशित किया जाएगा। अपनी प्रतिक्रिया [email protected] पर भेज सकते हैं।)

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One Comment on “कारपोरेट और आरएसएस के सामने सरेंडर कर चुका है ट्रेड यूनियन आंदोलन? भाग-1”

  1. जबरदस्त आत्मगत हो के लिखा है ये प्रचार लेख।

    तथ्य के तौर परकुछ नही,बस अपने हिसाब से अपना प्रचार, उसी को तथ्य मनवा लो।सेंट्रल ट्रेड यूनियन में जो फर्क है उसकी रत्ती भर भी समझ नही है लेखक को, हाँ अपनी ट्रेड यूनियन के प्रचार के लिये सब को एक ठहराना जरूरी जो हुआ।मेहनत से बचने वाले कामचोर ऐसा करते हैं। वार्ना ट्रेड यूनियंस में संरचना के संगठन में जो फ़र्क है उन्हें सामने लाते ओर बताते की कोन से ट्रेड यूनियन नई आर्थिक नीति के जवाब में बने और किसने ट्रेड यूनियन आंदोलन में सबसे असंगठित मजदूर वर्ग को केंद्रित कर मजदूर वर्ग आंदोलन में क्याक्या योगदान किया। ओर कौन कौन है जो मजदूर आंदोलन में तब भी भरम फैला रहे थे और आज भी फैला रहे हैं? क्यो वे आलोचनाएं 30 साल में मजदूर आंदोलन में खुद रस्मी कार्यवाही में उतरी हुए है और क्यो वे एक मजदूर आंदोलन का एक भी मॉडल देने में विफल हैं?मजदूरकी 1000की गोलबंदी क्यो वे कर पाने में विफल हैं?

    क्या NEP की आलोचना सिर्फ बातों में रही ? कोन सी वो आलोचना है जो संघटन स्वरूप में ट्रेड यूनियन में सामने आई ?

    ट्रेड यूनियन या मजदूर वर्ग आंदोलन को इन बातों से छुपाया जाना किसके लिये लाभदायक है?

    आपकी वेबसाइट ही उन तमाम सच्चाई की गवाह है जिसे आप उनके संघटनो से अलग करके सिर्फ मजदूरों की करवाई के तौर पर प्रस्तुत करने को मजबूर हैं। क्या वे कार्रवाई वे गोलबंदी सम्बंधित मजदूर संघटनो की राजनीति से स्वतंत्र हैं?

    ये फ़ासीवाद के दौर में ट्रेड यूनियन की जरूरतों को चलताऊ प्रचार से पूरा करने की कोशिश का मतलब फ़ासीवाद को आधार देना है।

    जो जैसा है उसे वैसा ही बताओ सबको एक मत ठहराओ। आपके प्रयासों की असफलता के कारण तलाशिए उनका जवाब दिजीये, दूसरे को दोसी ठहराया कर आप जायज नहॉ हो सकते। जब तक आप सही मॉडल।को सामने नहॉ दिखाते ।

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