1942 की अगस्त क्रांतिः आज़ादी की एक रुकी हुई जंग

अगस्त क्रांति 1942 आैर व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष का सवाल अभी भी सुलझा नहीं

(कमल सिंह, वरिष्ठ पत्रकार)

भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के गौरवपूर्ण इतिहास में 1942 की अगस्त क्रांति का विशेष महत्व है। आजादी के आंदोलन में अनेक महत्वपूर्ण मोड़ आए। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद पहला जनउभार 1905 में बंगाल के विभाजन के विरोध में आया। यह स्वतःस्फूर्त जनांदोलन देश के विभिन्न भागों में फैल गया। इसे हम स्वदेशी या स्वराज आंदोलन के नाम से भी जानते हैं। हालांकि इस आंदोलन की प्रमुख मांग औपनिवेशिक स्वराज अर्थात ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वराज थी। इसके बावज़ूद, इस आंदोलन ने देश में आज़ादी की ललक जगार्इ और जनता के विभिन्न वर्गों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध संघर्ष के मैदान में उतार दिया।

यह आंदोलन भले ही स्वतःस्फूर्त रहा हो परंतु इसकी वैचारिक तैयारी में कांग्रेस के भीतर गरम दल एवं अनुशीलन जैसी क्रांतिकारी ताकतें थीं। इस आंदोलन के साथ देश में क्रांतिकारी संघर्ष की नयी धारा संगठित हुर्इ, अनुशीलन पार्टी, युगांतर पार्टी जैसे क्रांतिकारी दलों के नौजवान हथियारबंद संघर्ष के जरिए भारत को आज़ाद कराने के लिए जान हथेली पर रखकर आगे बढ़े। उनके क्रांतिकारी कारनामों की गाथा और बलिदानों से हमारा स्वतंत्रता आंदोलन गौरवान्वित है।
आज़ादी के आंदोलन में दूसरा बड़ा जन उभार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आया। इतिहास में यह असहयोग आंदोलन के नाम से दर्ज है। इस आंदोलन की खासियत थी संवैधानिक सुधार के संसदीय रास्ते का बहिष्कार। अंग्रेजों ने आज़ादी के संघर्ष को गुमराह करने के लिए मिर्लों-मंटो सुधार उसके बाद, मांटेग्यू-चैम्सफोर्ड सुधार के रूप में संसद जैसी काउन्सिल के चुनावों का जाल फैलाया। क्रांतिकारियों ने काउन्सिल के चुनावों के बहिष्कार का ऐलान किया था। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि क्रांतिकारियों ने प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) में रखी थी। अनुशीलन व युगांतर जैसे दलों ने हिंदुस्तान रिपब्लकन पार्टी (एचआरए) बनार्इ। विदेश में गदर पार्टी व अन्य क्रांतिकारी दलों ने भारत में क्रांति संगठित करने के प्रयास किए। इसमें राजस्थान से भी श्याम जी कृष्ण वर्मा और अर्जुन लाल सेठी, केसरी सिंह बारहठ, जोरावर सिंह बारहठ, प्रताप सिंह बारहठ की विशेष भूमिका रही। रासबिहारी बोस, शचीन्द्र नाथ सान्याल एवं शहीद करतार सिंह सराबा और उनके साथियों की शहादतों की देन थी 1919 में पंजाब का जन उभार, जिसकी परिणति जलियांवाला कांड के रूप में हुर्इ। देशव्यापी प्रतिरोध में संवैधानिक सुधार के रास्ते को ठोकर मारकर ‘एक वर्ष में स्वराज’ के संकल्प के साथ असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया गया था।

अगस्त क्रांति 1942 स्वतंत्रता आंदोलन में तीसरा बड़ा जन उभार था। यह 1930 के दशक से प्रारंभ से ही जन आक्रोष की क्रांतिकारी अभिव्यक्ति थी। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद इसे दूसरी जंगे आज़ादी कहा जाता है। यह जनक्रांति थी। हिंदुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन पार्टी (एचएसआरए) के चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और उनके साथियों की शहादत के साथ भारतीय आज़ादी के आंदोलन में औपनिवेशिक स्वराज या उत्तरदायी शासन की जगह पूर्ण स्वतंत्रता की मांग जन-जन में प्रतिध्वनित हो चुकी थी। हालांकि सिविल नाफरमानी या सविनय अवज्ञा आंदोलन या व्यक्तिगत सत्याग्रह के रूप में जन असंतोष की सीमित अभिव्यक्ति की नीति अपनार्इ गर्इ थी। परंतु आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस के अंदर समाजवादी दल जिसमें भूमिगत कम्युनिस्ट पार्टी भी बड़ी ताकत थी, किसान व मज़दूर संघर्षों का नया दौर प्रारंभ हो चुका था। ऐसे में कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में समाजवादी, क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट ताकतें एक जुट हो गर्इ थीं। द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45) के अवसर का लाभ अंग्रेजों की सहायता के एवज में दान के रूप में औपनिवेशिक राज या उत्तरदायी शासन की जगह लड़कर आज़ादी छीनने की नीति इस नेतृत्व ने आगे बढ़ार्इ।
अगस्त क्रांति आज़ादी के आंदोलन के पहले के जन उभारों में इस मायने में अलग थी कि पहली बार पूर्ण स्वतंत्रता के उद्घोष के साथ जनता संघर्ष के मैदान में कूदी थी। इस क्रांति का नारा था ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’! जनता के लिए आह्वान था ‘करो या मरो’! ब्रिटिश शासन व्यवस्था को अपना कर संवैधानिक सुधार के जरिए नहीं बल्कि जन क्रांति के रास्ते से जनता का राज स्थापित करने का यह जन क्रांतिकारी संघर्ष था। अभी तक कांग्रेस के नेतृत्व में आज़ादी का आंदोलन ब्रिटिश राज तक सीमित था। कांग्रेस ने रियासतों को इस आंदोलन में सम्मिलित नहीं किया था। भारत का 40 प्रतिशत हिस्सा देशी राजा-महराजा-नवाबों की रियासतों में बंटा था। राजस्थान भी 19 रियासतों में बंटा था। यहां की जनता तिहरी गुलामी से त्रस्त थी। जनता अंग्रेजों, राजा-महाराजाओं और जागीरदारों के अत्याचारों की शिकार थी। हालांकि यहां के किसान व मध्यवर्ग आंदोलित थे परंतु 1942 की जनक्रांति ही थी जहां से रियासतों में आज़ादी के आंदोलन की संगठित शुरूआत मानी जा सकती है। असहयोग आंदोलन के समय तक यहां प्रजा मंडल तक नहीं थे। 1942 में यहां आज़ाद मोर्चे ने आंदोलन की बागडोर संभाली।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के तीन बुनियादी निष्कर्ष हैं- स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र। धर्मनिर्पेक्षता और सामाजिक समता लोकतंत्र के आधार हैं। इनके बिना लोकतंत्र का अस्तित्व संभव नहीं। भारत में सांप्रदायिकता संवैधानिक सुधार और धर्म के आधार पर वोट बैंक की देन है। नगर पालिकाओं में सांप्रदायिक आधार पर वोट की देन थी मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठन। भारत का (1935) का संविधान ब्रिटिश संसद के गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट की देन है और वर्तमान संविधान का मूल आधार। इसमें पृथक मतदान की व्यवस्था थी। इसी की बदौलत अंततः भारत और पाकिस्तान के रूप में देश दो टुकड़ों में विभाजित हो गया। आजादी के बाद विकास का जो रास्ता अपनाया गया उसमें न तो भूमि सुधार इस तरह से लागू किए गए कि जोतने वाले को जमीन के जरिए कृषि क्रांति संपन्न हो सकी न ही आर्थिक आज़ादी ही हासिल हो सकी। विदेशी पूंजी पर निर्भरता आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुलामी का रूप ले चुकी है। देश में गरीबी और असमानता बढ़ रही है, खेती-किसानी तबाह है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, नौजवानों को रोजगार नहीं हैं, महंगार्इ पर कोर्इ नियंत्रण नहीं है। वोट बैंक की राजनीति में कांग्रेस के नरम हिंदुत्व और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नीत भाजपा के उग्र हिंदुत्व के रास्ते पर राजनीति का सांप्रदायिकरण उत्तरोत्तर बढ़ रहा है।

आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति में दो बड़े मोड़ आए हैं। एक 1967 में और दूसरा 1977 में। ब्रिटिश राज की धारावाहिकता में कांग्रेस राज की निरंतरता को चुनौती 1967 में मिली। देश के नौ सूबों में कांग्रेस की हार और संयुक्त विपक्ष (संयुक्त विधायक दल) की सरकारों की स्थापना हुर्इ। इस व्यापक एकता के वैचारिक व सांगठिनक सूत्रधार डॉ राम मनोहर लोहिया थे। वे 1942 के अगस्त क्रांति के प्रमुख नेता और देश के समाजवादी आंदोलन के शीर्ष नेता थे। उनकी खासियत यह थी कि वे संसद से अधिक सड़क पर भरोसा करते थे। वे संसद में बहुत की कम समय के लिए रहे परंतु इसका इस्तेमाल उन्होंने नेहरू-इंदिरा शासन को बखूबी बेनकाब करने और जनांदोलन विकसित करने के लिए किया। उनके द्वारा प्रतिपादित गैर कांग्रेसवाद की नीति में सैद्धांतिक दृष्टि पर यह सवाल आज जरूर किया जाना चाहिए कि इसके बदौलत जनसंघ जैसी सांप्रदायिक पार्टी को पनपने का अवसर मिला, जो कि लोहिया के समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पूरी तरह खिलाफ रही है। इससे अलग 1967 में एक और मोड़ तब आया जब वहां बांग्ला कांग्रेस के अजय मुखर्जी के नेतृत्व में माकपा और वाम दलों की सरकार ने नक्सलबाड़ी में ‘जोतने वाले को जमीन’ के नारे पर अमल कर रहे किसान आंदोलन को सीआरपीएफ़ बुलाकर गोलियों से भून दिया। इसने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में तीसरी धारा को विकसित किया। चारू मजूमदार के नेतृत्व में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) नामक तीसरी पार्टी बनी। इस आंदोलन के प्रमुख नेताओं में चारू मजूमदार कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में रहे थे और सत्य नारायण सिंह 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की उपज थे। इस आंदोलन ने भी देश के युवकों एवं बुद्धिजीवियों को अत्यंत प्रभावित किया। परंतु भारतीय ठोस परिस्थियों से व्यापक जनसंघर्ष की नीतियों की अहमियत को नहीं समझने के कारण यह आंदोलन अतिवामपंथी भटकाव का शिकार होकर लक्ष्य से भटक गया।

1977 में छात्र युवा आंदोलन, जिसकी परिणति जेपी आंदोलन के रूप में हुर्इ, आज़ादी के बाद दूसरा बड़ा उभार था। जनता कांग्रेस और विपक्ष दोनों को नकार कर व्यवस्था परिर्वतन की उम्मीद में अगस्त क्रांति के नायक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में सड़कों पर निकल आर्इ थी। जेपी ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था। यह लोहिया की सप्त क्रांति की धारावाहिकता थी। उन्होंने उल्टा पिरामिड के रूप में संसदीय लोकतांत्रिक ढांचे को नकार कर दलविहीन लोकतंत्र, सत्ता के नीचे गांव-निकाय स्तर पर लोकशक्ति के संगठन के जरिए नए भारत का सपना जगाया था। यह गांधी के ग्राम स्वराज जैसा था। परंतु जेपी आंदोलन की दुःखांत परिणति जनता पार्टी और जनता सरकार के रूप में हुर्इ। जनता के राज का सपना बिखर गया। ठुकराए हुए सिद्धांतहीन अवसरवादी नेताओं ने आंदोलन का अपहरण कर लिया। जिस तरह सागर मंथन से विष निकला था उसी तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ के नए रूप भारतीय जनता पार्टी का जन्म जेपी आंदोलन का सबसे नकारात्मक परिणाम है। जनता पार्टी सरकार बनने पर जेपी की वही गति हुर्इ जो 1947 के बाद महात्मा गांधी की हुर्इ थी। गांधी आज़ादी के किसी जश्न में शामिल नहीं थे। उन्होंने कोर्इ संदेश तक देने से इंकार कर दिया था। गांधी न केवल भारत विभाजन के खिलाफ़ थे, वे पश्चिमी लोकतंत्र पर आधारित संसदीय व्यवस्था को भी भारत के अनुकूल नहीं मानते थे।

आज भारत में ‘संविधान बचाओ’ और ‘लोकतंत्र बचाओ’ की आवाज़ गूंज रही है। बहुराष्ट़्रीय कंपनियों को भगाओ का नारा इस बीच खो गया नज़र आता है। महंगार्इ का सवाल भी हाशिए पर है। सांप्रदायिकता और दलित उत्पीड़न का मुद्दा प्रमुख है। जिस तरह से मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं, इसका व्यापक विरोध है। अभी तक सांप्रदायिक दंगे होते थे अब मॉब लिंचिंग हो रही है। हिंदुत्व के नाम पर हो रही इस गुंडागर्दी से समाज आवाक् है। सचमुच यह देश में कायम कथित लोकतंत्र और तथाकथित कानून के राज के लिए चुनौती है। हालांकि यह संविधान और लोकतंत्र भी पूंजीवादी व सामंती ताकातों के हित में ही है। इसीलिए कहा जा रहा है पूंजीवादी लोकतंत्र की जगह हिंदुत्व के नाम पर फासीवादी शासन की ओर देश को धकेला जा रहा है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल उन्हीं आर्थिक नीतियों के पैरोकार हैं, जिनपर आज भाजपा चल रही है। विपक्ष की एकता उसी प्रकार गैर भाजपावाद पर बन रही है जिस तरह एक समय गैर कांग्रेसवाद के नाम बनी थी। इस तरह भारतीय राजनीति में छायी धुंध में व्यवस्था परिवर्तन के लिए जनसंघर्ष के रास्ते की जगह चुनाव द्वारा सत्ता परिवर्तन का रास्ते में त्राण नज़र आ रहा है।

भगतसिंह ने इंकलाब का नारा दिया था। उन्होंने इंकलाब का अर्थ बताया था कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज आने से फर्क नहीं पड़ेगा। उन्होंने मौजूदा व्यवस्था जो पूजीपतियों और सामंतों पर आधारित है उसमें आमूल परिवर्तन को इंकलाब कहा था। सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद दोनों में से किसी एक को विरोध के लिए नहीं चुना जा सकता है। अंग्रेजों ने सांप्रदायिकता का इस्तेमाल कर ही आज़ादी के आंदोलन को विभाजित किया था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरोध और व्यवस्था परिर्वतन के संघर्ष से ध्यान हटाने के लिए ही सांप्रदायिकता को उकासाया जा रहा है। अगस्त क्रांति का स्मरण करते हुए भगत सिंह के इंकलाब के रास्ते पर चलने के लिए राह ढूंढनी होगी।

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