फ़लस्तीन और इज़राइल का मज़दूर वर्ग

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By हान्ना ईद, पॉलिटिकल एनॉलिस्ट

अमेरिकी वामपंथ के भीतर एक विशेष अल्पसंख्यक समूह मौजूद है, जो अपनी राजनीतिक अप्रासंगिकता के बावजूद फिलस्तीन के सवाल पर काफी मुखर है. जबकि इस विषय के पड़ताल के बाद मुझे यह स्वीकार करना होगा कि वर्तमान में इज़राइल पर आम अमेरिकी लोगों की सोच में हम एक महत्वपूर्ण टर्निंग प्वाइंट पर हैं, दो तरह के विचार इस समय चल रहे हैं।

ट्रॉट्स्कीवादी वामपंथी समूह जो इस मसले पर बहुत मुखर है और उसका मानना है कि इजराइली मज़दूर वर्ग और फ़लस्तीनी मज़दूर वर्ग को इजराइली राज्य के ख़िलाफ़ एक साथ आना चाहिए। ये अलग बात है कि अमेरिका में ट्राट्स्कीवादी मुट्ठी भर हैं।

दूसरा समूह दक्षिणपंथी लिबरल लोगों का है, जो तर्क देते हैं कि इज़राइल के साथ अमेरिका का ‘विशेष संबंध’ वास्तव में ‘अमेरिकी रणनीतिक हितों’ के लिए खतरा है। और सरकार को अमेरिकी के हित वाली विदेश नीति को आगे बढ़ाना चाहिए।

हालाँकि इस लेख में हम केवल ट्रॉट्स्कीवादी समूह की प्रवृत्तियों की पड़ताल करेंगे। इतना कहना पर्याप्त है कि लिबरल समूह इस मामले में सही है कि जनता के टैक्स डॉलर को देश के अंदर परियोजना पर खर्च करना चाहिए, लेकिन ‘अमेरिका फर्स्ट’ विदेश नीति की पुरजोर पैरवी करना भारी ग़लती होगी क्योंकि ये साम्राज्यवाद या नव-उपनिवेशवाद को कोई चुनौती नहीं देता।

अमेरिका में ट्रॉट्स्कीवादी प्रवृत्ति ज्यादातर डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट्स ऑफ अमेरिका (डीएसए) और सोशलिस्ट अल्टरनेटिव और स्पार्टासिस्ट लीग जैसे अन्य छोटे छोटे समूहों के ईर्द गिर्द केंद्रित है। आगे बढ़ने से पहले ये स्पष्ट कर देना अच्छा होगा कि उनके इतिहास को देखते हुए ट्राट्स्कीवादियों का पक्ष हमेशा समस्या वाला रहा है।

लियोन ट्राट्स्की और पूर्व सोवियत संघ और विदेशों में मौजूद उनके अनुयायी एक अनोखा ऐतिहासिक रुख प्रदर्शित करते हैं, उदाहरण के लिए क्रांति के बाद सोवियत संघ कैसा हो, यूरोप और अमेरिका के साथ जंग और सत्ता में रहते हुए समाजवाद का सवाल।

ट्राट्स्की खुद बहुत जटिल शख़्सियत थे, जिन्हें पूरी तरह ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि उनके नाम पर चलने वाले ग्रुप वही कर रहे हैं जिसे अनवर अब्देल मलिके ने ट्राट्स्कीवादी-जॉयनिस्ट-अपरेटस (ट्राट्स्कीवादी यहूदीवादी गठजोड़)। इसलिए पाठकों की आसानी के लिए अब्देल मलिक की परिभाषा की प्रकृति को समझना होगा और इस लेख के उद्देश्य को ट्राट्स्कीवादी पूरा करते हैं।

इस राजनीतिक समझदारी की आलोचना की दो वजहें हैं। पहला, ‘इज़राइली समाज की बसाहट की संरचना को देखते हुए, इज़राइली मज़दूर वर्ग की धारणा में समस्या वाली लगती है। दूसरा, इन दोनों मज़दूर वर्ग के बीच एकता का विचार 1960 और 1970 के दशक में मात्ज़पेन (कम्पास) नामक एक संयुक्त फ़लस्तीनी-इजरायल समूह के ऐतिहासिक अस्तित्व पर आधारित है और वे नेतन्याहू सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों को काफी आशावादी नज़रों से देखते हैं और फ़लस्तीनी ट्रेड यूनियनों द्वारा इज़राइली ट्रेड यूनियनों और सामानों के बहिष्कार के आह्वान की अनदेखी करते हैं।

पहली धारणा पर सबसे ग़ौर करने वाली बात है कि इसराइली मज़दूर वर्ग अधिक से अधिक दुनिया के मज़दूरों एक हो का नारा तो लगाता है लेकिन फ़लस्तीन के साथ वर्गीय एकजुटता ज़ाहिर करने में सबसे पीछे की पांत में होता है। दूसरी धारणा पर कहना होगा कि इसराइल की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन फ़ेडरेशन ने फ़लस्तीनी मज़दूरों को यूनियन में शामिल होने का अधिकार छीन लिया जिसके कारण 1836-39 में फ़लस्तीन में विद्रोह भड़क उठा। नकबा (1948 अरब-इजरायल युद्ध के बाद फ़लस्तीनी लोगों के बड़े पैमाने पर विस्थापन की घटना) और ज़ायनिस्ट उपनिवेश की स्थापना में हिस्ताद्रुत (Histadrut) की बेहद अहम भूमिका रही थी। हिस्ताद्रुत इज़रायली ट्रेड यूनियन फ़ेडरेशन है, जो वर्तमान में अधिकांश इज़रायली मज़दूरों का प्रतिनिधित्व करता है और फिलहाल इसके लगभग 800,000 सदस्य हैं।

फ़लस्तीन के प्रसिद्ध लेखक और राजनीतिज्ञ गासान कनफ़ानी के अनुसार, “ज़ायोनिस्ट समझौते ने न केवल फ़लस्तीन में यूरोपीय-यहूदी पूंजी की धारा खोल दी बल्कि ‘केवल यहूदी मज़दूर’ की नीति के भयंकर परिणाम निकलने वाले थे और यहूदी बाशिंदों के समाज में तेज़ी से फ़ासीवादी पैटर्न उदय हुआ।

ये फासीवादी पैटर्न 1967 के बाद और विशेष रूप से ओस्लो संधि के बाद भी फलते-फूलते रहे। अली कादरी की पुस्तक ‘ए थ्योरी ऑफ फोर्स्ड लेबर माइग्रेशन’ में उन्होंने इजराइली और फ़लस्तीनी मज़दूरों दोनों की वास्तविकताओं का विवरण दिया है। वो बताते हैं कि इस औपनिवेशिक देश में इज़राइली यहूदियों के बीच नस्लीय भेदभाव वाला पदसोपान मौजूद है, और फ़लस्तीनी इस पदानुक्रम में बहुत नीचे हैं।

कादरी अपनी किताब में जिक्र करते हैं कि कैसे अरब और अफ़्रीकी यहूदियों को अकुशल शारीरिक श्रम वाली नौकरियों में फ़लस्तीनियों की तुलना में बहुत अधिक मेहनताना दिया जाता था जबकि वे इज़रायली समाज में सबसे कम वेतन पाने वाले मज़दूर थे। 1990 तक, “इज़राइल” में 94% निर्माण मज़दूर वेस्ट बैंक से आने-जाने वाले फ़िलिस्तीनी थे।

कादरी की किताब में एक इज़राइली शोध के हवाले से कहा गया है कि “कुछ मामलों में, इज़राइली मज़दूरों का वेतन समान नौकरियों में अरबों की तुलना में 30% अधिक था।”

उपनिवेश के अंदर अरब मज़दूर सीधे यहूदी सामाजिक सुरक्षा कोष में टैक्स भर रहे हैं, और इनका कम से कम 40% हिस्सा सैन्य और सुरक्षा बलों को सब्सिडी देने में जा रहा है।

ओस्लो संधि के बाद फ़लस्तीनियों के बढ़ते प्रतिरोध के बीच इजरायल अब थाईलैंड, नेपाल और भारत से सस्ते मज़दूरों के आयात करने की प्रणाली की ओर बढ़ गया है। 2005 में फ़लस्तीन द्वारा इजरायल के विरुद्ध शुरू बीडीएस (Boycott, Divestment and Sanctions) आंदोलन की शुरुआत के साथ, और विशेष रूप से ऑपरेशन अल-अक्सा फ्लड के लॉन्च के 6 महीने बाद और यहूदियों द्वारा जनसंहार की प्रतिक्रिया के बाद फ़लस्तीनी जनरल फ़ेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियंस  इज़राइली मज़दूर यूनियनों के बहिष्कार का आह्वान कर रहा है।

फ़िलिस्तीनी ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं के अनुसार, “अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कब्जे वाले क्षेत्र की ट्रेड यूनियनों पर प्रतिबंध लगाने के लिए हम संघर्ष करते रहेंगे क्योंकि वे जनसंहार के युद्ध में भागीदार हैं।”

ट्रॉट्स्कीवादी धारणा का दूसरा तत्व मैट्ज़पेन के अस्तित्व पर आधारित है, जो एक संयुक्त अरब-इज़राइली समाजवादी पार्टी है, जिसके चरम पर इसके लगभग बीस सदस्य थे। पार्टी अकिवा ऑर, जबरा निकोला और मोशे माचोवर के आसपास केंद्रित थी, और 1967 से 1982 तक सक्रिय थी। बाद में इसके कई लोग मर गए, निर्वासित हो गए, या कई अन्य छोटे गुटों में विभाजित हो गए।

प्रभावी तरीके से काम करने की बजाय विचारधारा के साथ चिपकने रहने ने तांगे को घोड़े के आगे खड़ा कर दिया और उन्हें अप्रासंगिक बना दिया।

यहाँ पर यहूदी अदालत में मुकदमे के दौरान एहुद आदिव के बयान को विस्तार से उद्धृत करना उचित है। एहुद आदिव मैट्ज़पेन स्प्लिंटर समूहों में से एक, रेड फ्रंट के सदस्य हैं।

वो कहते हैं “दर्जनों वर्षों से यहूदीवाद से लड़ रहे अरबों के सामने यदि यहूदी यह साबित कर देंगे कि वे (यहूदी) उनके पक्ष में हैं, कि वो अपना सब कुछ बलिदान करेंगे करने के लिए तैयार हैं और उनके साथ सब कुछ साझा करेंगे तब तक किसी भी अरब को यह विश्वास नहीं होगा कि ईमानदार यहूदी क्रांतिकारी वास्तव में क्रांतिकारी हैं। कोई भी विचारधारा चाहे वो कितना भी न्यायसंगत और प्रगतिशील ही क्यों न हो अरबों को तब तक राजी नहीं कर सकती जब तक कि अपने आचरण से ये प्रदर्शित नहीं करते।”

मात्ज़पेन के प्रतिक्रियावादी चरित्र और इसके एक समाजवादी, नस्ल विरोधी बुक क्लब से अधिक न होने के बावजूद 7 अक्टूबर से पहले और बाद में इज़राइल को हिला देने वाले विरोध प्रदर्शनों की वर्तमान लहर ने थोड़ी सी उम्मीद को भी बढ़ाकर एक बड़ी आकांक्षा में बदल दिया था।

लिबरल और नेतन्याहू विरोधी प्रदर्शनकारियों ने एक के बाद एक ओपिनयन पोल्स में दिखाया कि वे चाहते हैं कि बेनी गैंट्ज़ नेतन्याहू की जगह लें. जैसा कि अब सर्वविदित है, बेनी गैंट्ज़ नेतन्याहू से भी ज्यादा युद्ध पिपासु है जो इजरायलियों को प्रतिरोध के असर से बचाने की पूरी कोशिश करेगा और इस तरह नेतन्याहू के विपरीत, उन्हें बिना किसी रुकावट के अपनी अलग काल्पनिक दुनिया में रहने की इजाज़त देगा।

इनमें से किसी भी विरोध प्रदर्शन ने फ़लस्तीन पर कब्ज़ा ख़त्म करने अपील नहीं की है। ‘वामपंथी’ +972 पत्रिका के अनुसार “यह अस्पष्ट है कि क्या इज़राइली यह स्वीकार करेंगे कि सतत युद्ध से कुछ हासिल नहीं होता है और एक ऐसा समाज जहां सभी के लिए समान अधिकार हों, यही एकमात्र उपाय है।”

इस कथित वामपंथी मैग्ज़ीन के लेखक द्वारा सबसे पेश की गई एकमात्र धुंधली उम्मीद ओस्लो संधि है, जहां यित्ज़ाक राबिन ने यित्ज़ाक शमीर की जगह ली और फ़लस्तीनी ज़मीन को हड़पने में आगे मदद की, इसने नव औपनिवेशिक दलाल फ़लस्तीनी अथॉरिटी (पीए) बनाया और फ़लस्तीनी प्रतिरोध का अपराधीकरण करने में तेज़ी दिखाई और दमन को बेलगाम कर दिया।

जब तक यहूदीवाद (ज़ॉयनिज़्म) जैसी एक सक्रिय विचारधारा और औपनिवेशिक व्यवस्था टिकी रहेगी तब तक इज़रायली और फ़लस्तीनियों के बीच मज़दूर वर्ग की एकजुटता का रास्ता बंद है। इज़रायली मज़दूर वर्ग यहूदी उपनिवेशवाद की परियोजना के लिए पूरी तरह से समर्पित है और ज़मीन हड़पने, यूनियन को और व्यापक बनाने, सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल और ऊंची दर की मज़दूरी के माध्यम से इसका लाभ उठाता है।

जबकि फ़लस्तीनी क्रांतिकारियों और तीसरी दुनिया के क्रांतिकारियों द्वारा इस समस्या का एकमात्र समाधान नदी से समुद्र (रिवर टू द सी) तक पूरी आज़ादी को माना है।

(यह लेख लेबानी वेबसाइट अल मायादीन में 19 अप्रैल को प्रकाशित हुआ था, जिसे अभिनव कुमार ने हिंदी में किया है। इस लेख में दिए गए विचार वर्कर्स यूनिटी के विचार को प्रदर्शित नहीं करते, बल्कि ये लेखक के हैं। )

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