महामारी के समय बाबा साहेब अंबेडकर यूं न छोड़ते मुसीबत से घिरे गरीब बहुजनों का हाथ

dalit movement

कोरोना महामारी के समय देशभर से मजदूर बेगाने होकर घर की चौखट तक भूखे-प्यासे लौटने की कोशिश कर रहे हैं। वे मजदूर, जिनमें से ज्यादातर घृणित जाति व्यवस्था का भी सामना करते हैं। वे उन गांवों में लौटने को विवश हैं, जहां उनको मानवीय गरिमा के साथ जीने नहीं दिया जाता।

शहरों में भी तमाम ऐसे श्रमिक या घरेलू कामों को करके जीवन गुजारने वालों का हाल खराब है। तमाम रियायतों और सहूलियत का रोना रोने वाला मध्यवर्ग उनको कोई रियायत इस वक्त भी देने को तैयार नहीं है। ये अफसोसनाक बर्ताव गैर दलित ही नहीं, दलित मध्यवर्ग भी कर रहा है।

शायद यही चरित्र रहा होगा शिक्षित दलित मध्यवर्ग का, जिसको लेकर बाबा साहेग डॉ.भीमराव अंबेडकर ने निराशा जाहिर की थी कभी। निराशा इस बात की थी कि शिक्षित होकर संपन्न बनने वाले दलित अपने समुदाय की रक्षा, संगठन और संघर्ष के विचार को भूल जाते हैं।

उन्होंने 1918 के स्पेनिश फ्लू, प्लेग और अकाल के समय भी अपने लोगों का हाथ नहीं छोड़ा, उनके जीवन और भविष्य के लिए हर परिस्थिाति में संघर्ष करते रहे। ये फर्ज दलित आंदोलन के कर्णधार शायद भूल गए हैं।

इस बात को समझने के लिए हम एक उदाहरण दे रहे हैं। उत्तरप्रदेश के बरेली महानगर का एक मुहल्ला है, कॉलोनी कह सकते हैं, जहां बड़ी संख्या में मध्यवर्गीय दलित परिवार रहते हैं, जो अछूत की श्रेणी में नहीं आते वाल्मीकि समुदाय की तरह। मकान, अच्छा वेतन, खाते-पीते लोगों वाली जीवन शैली है। वहां एक मंदिर भी है, जहां अधिकांश रोज पूजा पाठ करते हैं और भंडारा से लेकर जागरण का भी आयोजन करते हैं। होली, दीवाली, भैयादूज से लेकर सभी प्रमुख हिंदू त्योहारों पर उल्लास मध्यवर्गीय सवर्ण परिवारों से इंच भर भी कम नहीं होता, कई बार तो ज्यादा।

कोरोना वायरस की महामारी फैलने के दौरान का वाकया है। मुहल्ले में एक दिन नगर निगम की गाड़ी आती है। वाहन के साथ मौजूद सुपरवाइजर ने बताया कि यहां के लोग अपना कूड़ा हमें रोज दे सकते हैं, इसका चार्ज मकान मालिक के लिए 100 रुपये प्रति माह होगा और किराएदार के लिए 25 रुपये प्रतिमाह।

अलबत्ता, ये व्यवस्था यहां के मध्यवर्गीय दलित परिवारों को रास नहीं आई। उनका कूड़ा पहले से एक वाल्मीकि समुदाय की बुजुर्ग महिला पल्ला में रखकर ले जाती हैं और लगभग पचास मीटर दूर एक जगह डाल देती हैं। इसके एवज में कोई परिवार 50 रुपये तो कोई 30 रुपये देता है। वे बुजुर्ग महिला से टॉयलेट भी साफ कराते हैं, जिसके एवज में 20 रुपये देते हैं।

इन मध्यवर्गीय दलित परिवारों की दलील है कि हम नगर निगम वालों को कूड़ा देंगे तो आंटी का नुकसान होगा, इसलिए हम कूड़ा उन्हीं को देंगे। इसके पीछे एक कथित हमदर्दी ये भी है कि आखिरकार ये हैं तो बहुजन बिरादर ही, लिहाजा उनका नुकसान क्यों किया जाए।

बहरहाल, उनको न इस बात की फिक्र है कि ‘हमदर्दीÓ में बहुजन बिरादर को हाइजीन उपकरण मुहैया करा दें और न इस बात में दिलचस्पी नहीं कि कूड़ा वाली गाड़ी के साथ आने वाला अधेड़ व्यक्ति भी वाल्मीकि समुदाय का ही है और उसे इस काम के पांच हजार रुपये मानदेय मिल रहा है।

असल में, अब वे अपनी आदत ये बना चुके हैं कि अपने कूड़े की बाल्टी भी खुद नहीं उठाना है और अपने घर का टॉयलेट भी साफ नहीं करना है। वे अपने निचले पायदान के बहुजन बिरादर को अपना सेवक बनाने का हक अंतर्मन में बसा चुके हैं। जिससे वे सवर्ण परिवार के सेवक न रहें।

वे ये भी नहीं चाहते कि उनको बिना काम के पैसे दे दिए जाएं या पचास की जगह सौ रुपये दे दिए जाएं। शायद यही वजह है कि अधिकांश दलित मध्यवर्गीय परिवारों में कथित बहुजन समुदाय के ही घरेलू कामगार महिलाएं कोरोना महामारी के समय भी ड्यूटी बजा रहे हैं। अछूत बिरादर उनके घर में भी पलंग, सोफा या कुर्सी पर नहीं बैठते। अपने कप में चाय भी शायद एकाध जगह मिल जाती है, इतना ही फर्क है, जो सकारात्मक कहा जा सकता है।

कमोबेश यही स्थिति देशभर में दिखाई देती है, कहीं कोई मदद के कैंप, रसद, राशन, बचाव और राहत के काम नहीं दिखाई दे रहे। ऐसा भी नहीं कि दलित आंदोलन लाचारी के दौर से गुजर रहा हो।

इस सिलसिले में हमने कभी बसपा के संस्थापक कांशीराम के सहयोगी रहे और दलित आंदोलन में सक्रिय सुभाष चौधरी से जानकारी ली। उन्होंने कहा, ‘हमने अपने घर कामवाली को मना कर दिया है, बाकी ने किया है या नहीं, इसकी जानकारी नहीं है।Ó गरीब दलित समुदाय की इस समय मदद को लेकर क्या चर्चा है? इस सवाल पर उन्होंने कहा, ‘कोई विशेष बात तो नहीं, सभी घरों में हैं और जो सरकार के दिशानिर्देश हैं, उनका पालन किया जा रहा है।Ó

बहुजन समुदाय के लिए महामारी में मदद पर बामसेफ की रणनीति जानने की कोशिश की गई तो अध्यक्ष वामन मेश्राम का यूट्यूब पर वीडियो मिला, जिसमें वे मास्क लगाने का तरीका और वायरस के संक्रमण की जानकारी देकर सावधानी बरतने को कह रहे हैं। इसके अलावा कोई रणनीति या चर्चा बामसेफ की तरफ से जानकारी में नहीं आई।

आर्थिक तौर पर संपन्न मध्यवर्गीय दलित अंबेडर जयंती की तैयारी सोशल मीडिया के जरिए ही कर रहे हैं। हो सकता है, कुछ लोग घरों में ही पासपड़ोस के बिरादर परिवारों को बुलाकर छोटे आयोजन हों। उनको भी आमंत्रित किया जाए शायद, जो उनकी सेवा में महामारी के वक्त भी लगे हैं।