भाग-3ः मोदी सरकार ने मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए एक पैसा नहीं जारी किया

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By राजकुमार तर्कशील

यह विडंबना है कि आज तक सरकारे सीवर में हुई मौतों व मैला ढोने वालों की संख्या को सही नहीं बता पाई है।

विडंबना ये भी है कि भारत की ब्राह्मणवादी फासीवादी सरकार को पता है कि बालाकोट हवाई हमले में कितने लोग मारे गए।

गैर सरकारी संगठन से जुड़़े आसिफ़ शेख़ का कहना है कि सरकार का मैनुअल स्कैवेंजर्स की गणना करने का तरीका हमेशा विवादास्पद रहा है।

पिछले 27 वर्षों में सरकार ने मैनुअल स्कैवेंजर्स की पहचान के लिए 7 राष्ट्रीय सर्वेक्षण करवाए हैं।

1992 के सर्वेक्षण के अनुसार, देश में 5,88,000 हाथ से मैला ढोने वाले मज़दूर थे। सन् 2002-03 में यह संख्या बढ़कर 6,76,000 हो गई। जिसे बाद में संशोधित कर ये संख्या 8 लाख की गई।

लेकिन 2013 के राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में यह संख्या केवल 13,639 ही बताई गई।

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सरकारी आंकड़ों की धांधली

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, एक कैबिनेट कमेटी ने देश में मौजूद हाथ से मैला ढोने वालों का आंकड़ा जारी किया।

इसके मुताबिक, देश के 12 राज्यों में 53,236 लोग मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं, जबकि 2017 का अधिकारिक आंकड़ा 13,000 था।

यानी साल भर में ये संख्या 4 गुना बढ़ गई। इसके दूसरी तरफ केंद्र के अधीन काम करने वाली संस्था नेशनल सफाई कर्मचारी फाइनेंस एंड डेवलपमेंट (एनएसकेएफडीसी) ने बताया कि 163 जिलों में कराए गए सर्वे में 20,000 लोगों की पहचान मैला ढोने वालों के तौर पर हुई है।

एनएसकेएफडीसी के एक अधिकारी ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि राज्यों ने हमें जो जानकारी दी है उसके मुताबिक, 50,000 लोगों ने खुद को मैला ढोने वालों के रूप में दर्ज करवाया था।

लेकिन सरकार यह संख्या जानबूझकर कम बता रही है। सरकार द्वारा दिए गए आंकडों का विरोधाभास देखिए सरकार द्वारा नेशनल सैंपल सर्वे में 53,000 मैनुअल स्कैवेंजर्स की संख्या बताई गई।

लेकिन राज्यों ने 6,650 को ही आधिकारिक रूप से स्वीकार किया है।

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राज्य सरकारों की धांधली

उदाहरण के तौर पर देखें तो उत्तर प्रदेश के अंदर रजिस्टर किए गए मैनुअल स्कैवेंजर्स की संख्या 28,796 बताई गई है।

दूसरी तरफ़ राज्य द्वारा 1,056 ही स्वीकार किए गए। वहीं राजस्थान में 6,643 मैनुअल स्कैवेंजर्स रजिस्टर किए गए और राज्य द्वारा 3143 का आंकड़ा दिया गया।

मध्यप्रदेश में 8016 रजिस्टर किए गए, लेकिन राज्य द्वारा एक भी मैनुअल स्कैवेंजर्स स्वीकार नहीं किया गया।

सरकारी झूठ देखिए गुजरात सरकार ने बताया था कि उनके यहां एक भी मैला ढोने वाला नहीं है, लेकिन एनएसकेएफ़डीसी की रिपोर्ट के अनुसार, यह बात सामने आई है कि गुजरात में 108 मैला ढोने वाले हैं।

एक तरफ तो सरकार 1993 में मैला ढोने की प्रथा के ख़िलाफ़ सूखे शौचालयों का निर्माण बंद कर रही है, वहीं 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत मे 26 लाख सूखे शौचालय होने की बात सामने आ रही है।

गुजरात हमें यह बताता रहा की हमारे यहां एक भी मैला ढोने वाले नहीं हैं, लेकिन 32,690 सूखे शौचालय गुजरात में हैं। यहां स्थिति कितनी गंभीर है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

रोज़गार और पुनर्वास

कानून के मुताबिक, मैला ढोने वालों का पुनर्वास कर उन्हें वैकल्पिक रोज़गार देने का प्रावधान भी है।

मैला ढोने वालों का पुनर्वास सामाजिक न्याय और अधिकारिक मंत्रालय की पुनर्वास के लिए स्वरोजगार योजना यानी एस. आर. एम. एस. के तहत किया जाता है।

पुनर्वास योजना के तहत मैला ढोने वाले परिवार के एक सदस्य को एक बार नगदी के रूप में 40,000 रुपये देकर उनका पुनर्वास किया जाता है।

दूसरी तरफ ऐसे लोगों को प्रशिक्षण देकर उनका पुनर्वास किया जाता है। इसके तहत प्रति माह 3,000 रुपये के साथ दो साल तक कौशल विकास प्रशिक्षण दिए जाने का प्रावधान है।

इसी तरह एक निश्चित राशि तक के कर्ज़ पर मैला ढोने वालों के लिए सब्सिडी देने का प्रावधान है।

आरटीआई के जवाब में एनएसकेएफ़डीसी ने जानकारी दी कि सरकार ने 2006-07 से अब तक कुल 226 करोड़ रुपये जारी किए हैं। सभी राशि वित्त वर्ष 2013-014 तक ही जारी की थी।

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फंड खर्च करने में कोताही

साल 2015-016 में 8,627 लोगों को कर्ज़ दिये गतए। 2016-017 में 1567 लोगों को, 2017-018 में 890 लोगों को कर्ज़ दिये गए।

जबकी हम पीछे देख चुके हैं की देश मे मैला ढोने वालों की संख्या कितनी विवादित रही है।

द वायर मे छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए कोई राशि जारी नहीं की गई।

आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार, साल 2006-07 से लेकर साल 2017-018 के बिच सिर्फ पांच बार ही फंड जारी किया गया है।

जितनी भी राशि मंत्रालय द्वारा जारी की गयी, उसका भी एक अच्छा खासा हिस्सा खर्च नहीं किया गया।

आंकड़ों के अनुसार, 2006-07 में 56 करोड रुपये जारी किये गए, लेकिन सिर्फ 10 करोड़ रुपये ही खर्च किये गए।

इसी तरह 2014-15 में 63 करोड़ रुपये की राशि बची रही, वहीं 2017-018 में 24 करोड रुपये बचे रहे।

bezwada wilson safai karmchari andolan बैजवाड़ा विल्सन। 

मोदी सरकार का दोमुहापन

बैजवाड़ा विल्सन कहते हैं कि सरकार मैला ढोने वालों को बाहर फेंकना चाहती है, इसमें महिला कर्मचारियों की गणना नहीं कि गई।

दरअसल सरकार की पुनर्वास योजना भी सफेद हाथी निकली।

सरकार का दोगलापन हम यही समझ सकते हैं कि एक तरफ हमारे प्रधानमंत्री स्वच्छता के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने की बात करते हैं, दूसरी तरफ रोज़गार व पुनर्वास का बजट काट लेते हैं।

यह भी साफ कर देना चाहिए की स्वच्छता अभियान या कुछ एनजीओ मात्र ये मांग करते रहे हैं कि उन्हें प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, सीवर कर्मियों को सुरक्षित किट देनी चाहिये, अच्छा मुआवजा मिलना चाहिए, आदि आदि।

लेकिन वह सामाजिक समानता व जाति उत्पीड़न के सवालों पर पर्दा डाल देते हैं।

(लेखक हरियाणा से हैं और पत्रकारिता में स्वेच्छा से बदलाव के लिए लिखते हैं। ये इस सीरिज़ की आख़िरी कड़ी है।)

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