धनी और गरीब किसानों के हित अलग होने के बावजूद कैसे आगे बढ़ रहा आंदोलन: एमएसपी से खरीद गारंटी तक-3

farmers at Ugrahan

                                                              By एमअसीम

किसी भी उत्पादक को उत्पाद के उच्च दाम स्वाभाविक तौर से ललचाते ही हैं चाहे उसे अंतिम तौर पर बहुत कम लाभ ही क्यों न हो(बिकाऊ उत्पाद की मात्रा बहुत कम होने की वजह से।

दूसरे अभी छोटे सीमांत किसान भी कम उत्पादन के बावजूद बाजार में बिक्री के लिए आ रहे हैं चाहे उनका उत्पाद बहुत कम कई बार खुद के उपभोग से भी कम क्यों न हो।

दूसरे अभी छोटे सीमांत किसान भी कम उत्पादन के बावजूद बाजार में बिक्री के लिए आ रहे हैं चाहे उनका उत्पाद  बहुत कम या कई बार खुद के उपभोग से भी कम क्यों न हो।

अकबर इलाहाबादी जैसे शायर बेशक कह सकते हैं कि बाजार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ, पर असली जीवन में ऐसा मुमकिन नहीं हैं।

क्यों कि मौजूदा वक्त में जीवन की कई न्यूनतम जरूरतों के लिए बाजार में जाना ही पड़ता है। और व्यक्ति खरीदार हो तो उसका विक्रेता बनना विवशता है।

इसीलिये अपने उपभोग से कम उत्पादन करने वाले भी उस वक्त उसे बेच कुछ रूपया जुटाने के लिए उसे बेच रहे हैं हालांकि बाद में वे मजदूरी कर वही उत्पाद बाजार से खरीदते हैं।

भैंस पालकों के बच्चे खुद दूध नहीं पीते क्योंकि दूध बाजार में बेच कुछ रूपया जुटाना उनकी विवशता है। ऐसे उदाहरण गाँवों में खूब मिल जायेंगे।

देहात की अर्ध सर्वहारा आबादी के लिए इस आंदोलन के आकर्षण का दूसरा कारण पिछले सालों में बढ़ता बेरोजगारी का विकराल संकट है।

नोटबंदी से लेकर अभी की तालाबंदी ने खेती छोड़ उद्योगों में नौकरी से जीविका चलाने के विकल्प को भी काफी हद तक बंद कर दिया है। इससे दोनों ओर से संकट की चपेट में आई यह आबादी खेती की उपज के दामों की गारंटी की माँग से आकर्षित हो रही है।

उपरोक्त कारणों से ही इस आंदोलन को,जो धनी किसानों के नेतृत्व में है, के लिए व्यापक किसान आबादी की हिमायत हासिल हुई है और यह इतना शक्तिशाली बन गया है।

पर इसने खुद इसके नेतृत्व के समक्ष भी समस्या खड़ी कर दी है क्योंकि अब उनके लिए निश्चित दाम पर खरीद की गारंटी की माँग से पीछे हटना मुश्किल हो गया है।

कई नेता इस पर समझौते की बात कहने भर से आंदोलन की पाँतों के गुस्से का स्वाद झेल चुके हैं। अतः जो आंदोलन की शक्ति है वही इस आंदोलन का सबसे बड़ा अंतर्विरोध भी है।

यह भी समझना होगा कि नये कानून सभी धनी किसानों के लिए हानिकारक नहीं हैं।

धनी किसानों का एक हिस्सा कोल्हू, क्रशर, तेल-धान मिल,आदि एग्रो प्रोसेसिंग इंडस्ट्री से होते हुए खाद-बीज वितरक, पेट्रोल डीजल पंप, ईंटभट्ठों, ट्रैक्टर-बाइक डीलर आदि ही नहीं आढ़तिया, चीनी मिलों से लेकर कोऑपरेटिव सोसायटी-बैंक का संचालक अर्थात छोटा मोटा पूँजीपति बन बैठा है और उसके हित पूरी तरह कॉर्पोरेट पूँजी के साथ जुड़ गये हैं।

नये फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियों का संचालन भी यही तबका कर रहा है। यह तबका आंदोलन को खरीद गारंटी पर टिके रहने में दिलचस्पी नहीं रख सकता क्योंकि कृषि उत्पाद इसके लिए कच्चा माल हैं और उनके दाम कम होना इसकी अपनी जरूरत है।

इसे सिर्फ बडी पूँजी के सामने कुछ सुरक्षा की जरूरत है जिसे मानने का प्रस्ताव सरकार पहले ही दे रही है।

क्रमश:

(प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं। ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यूनिटी सहमत हो।)

(यथार्थ पत्रिका से साभार)

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