विनाश की बुनियाद पर हो रहा है उत्तराखंड में बाँधों का निर्माण

यदि आपसे पूछा जाए कि एक नदी की स्वाभाविक प्रकृति क्या है? तो निश्चित ही आपका जवाब होगा-अपने तयशुदा मार्ग पर बहना और निरंतर आगे बढ़ते रहना। हमने नदियों को हमेशा इसी रूप में देखा है।

उत्तराखंड में गंगा की सहायक नदियों में सबसे बड़ी नदी है अलकनंदा। सतोपंथ ग्लेशियर से निकलकर यह नदी विष्णु प्रयाग में धौलीगंगा से मिलती है, आगे बढ़ती हुई नंद प्रयाग में नंदाकिनी नदी से मिलती है, कुछ और आगे बढ़कर कर्णप्रयाग में पिंडर तथा रूद्रप्रयाग में मंदाकिनी नदी से मिलती है और अंत में देवप्रयाग में भागीरथी नदी के साथ मिलकर गंगा नदी के रूप में आगे बढ़ती हुई मैदानी भागों को यथासंभव जीवन प्रदान करती बंगाल की खाड़ी में समाहित हो जाती है।

सुनने में ऐसा लगता है जैसे कल-कल करती हुई यह नदी ग्लेशियर से पहाड़ों में उतरकर मैदानी भागों की तरफ अपने प्राकृतिक पथ में बढ़ती चलती होगी। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। अकेले अलकनंदा नदी पर लगभग 37 जल विद्युत परियोजनाओं में से कुछ चलायमान हैं, कुछ निर्माणाधीन हैं और कुछ कागजों पर खुद के पास होने का इंतजार कर रही हैं।

इन तमाम जल विद्युत परियोजनाओं ने नदी की स्वाभाविक गति को अवरुद्ध कर के रखा हुआ है। 0.1मेगावाट से लेकर 530 मेगावाट तक की ये परियोजनाएँ न सिर्फ नदी के प्राकृतिक मार्ग को अवरुद्ध कर बनाई जा रही हैं बल्कि कुछ परियोजनाओं को लागू करने के लिए तो नदी के मार्ग को ही बदल दिया गया है।

नदी के मार्ग को बदलकर विद्युत परियोजना को चालू करने का सबसे नवीन उदाहरण है जीवीके ग्रुप द्वारा श्रीनगर गढ़वाल में बनाया गया 330 मेगावाट का अलकनंदा हाइड्रो इलैक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट।

श्रीनगर से लगभग 4-5 किलोमीटर दूर रूद्रप्रयाग जिले की तरफ पानी को एकत्रित करने के लिए एक विशालकाय बॉंध का निर्माण किया गया है।

इस बॉंध से 6 इनटेक टनल की मदद से पानी को डायवर्ट कर एक बड़े से डीसिल्टिंग टैंक में ले जाया जाता है जहॉं पानी में से सिल्ट यानी गाद को अलग कर पानी को एक 3.2 किलोमीटर लंबी नहर के माध्यम से पावर हाउस तक पहुँचाया जाता है।

जहॉं पानी की तेज गति से टर्बाइन घूमती है और बिजली पैदा कर पावर ग्रिड में भेजती है। इसी पावर ग्रिड से बिजली आगे सप्लाई की जाती है।

अलबत्ता यह विद्युत परियोजना बिजली आपूर्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है लेकिन पानी डायवर्ट किये जाने की वजह से अलकनंदा नदी बॉंध से लगभग 3-4 किलोमीटर की दूरी तक पूरी तरह बंजर नजर आती है।

जो अलकनंदा नदी कभी श्रीनगर और चौरास क्षेत्र के बीच से बहा करती थी वह आज की तारीख में एक परिवर्तित नहर के माध्यम से पावर हाउस से गुजरती हुई श्रीनगर के दूसरे छोर में निकलती है और पुन: अपने प्राकृतिक स्वरूप व पथ को तलाशती हुई देवप्रयाग की ओर बह चलती है।

एक नदी के इतने बड़े क्षेत्र को बंजर कर देना न सिर्फ उसमें रहने वाले जलीय जीवों व उसमें उगने वाली वनस्पतियों को खत्म करता है बल्कि नदी के आसपास रह रही आबादी के लिए भी पानी की कमी का संकट पैदा करता है।

वर्तमान में अगर देखा जाए तो बॉंध से लेकर पावर हाउस की दूरी तक अलकनंदा नदी किसी बरसाती नाले जैसी नजर आती है जिसमें सर्दियों में श्रीनगर शहर का सीवर का पानी बहता हुआ आता है जो अंत में जाकर पावर हाउस के पास ही अलकनंदा में मिलकर उसे प्रदूषित करता है।

वहीं दूसरी ओर बरसातों में पानी की अधिकता होने के कारण बॉंध की क्षमता से अधिक पानी एकत्रित हो जाता है जिस वजह से बॉंध के दरवाजों को खोलकर पानी अलकनंदा के बंजर हो चुके मार्ग में छोड़ दिया जाता है और मात्र 1-2 महीनों के लिए अलकनंदा नदी पुन: जी उठती है।

लेकिन बरसात के इन दिनों में पानी अपने साथ इतनी अधिक गाद लेकर चलता है कि उसका रंग हमेशा मटमैला ही नजर आता है जिसके उपयोग की गुंजाइश न के बराबर होती है।

नदी की दिशा परिवर्तित किये जाने की वजह से ही शायद श्रीनगर व चौरास क्षेत्र में भूमिगत जल की मात्रा में कमी आई हो क्योंकि पिछले कुछ सालों में देखने में आया है कि चौरास क्षेत्र में रह रहे लोगों को पीने के पानी की भारी किल्लत का सामना करना पड़ रहा है।

लोग कई किलोमीटर दूर जाकर सरकारी नलों या फिर टंकियों से पानी भरकर ढोने को मजबूर हैं। साथ ही आपदा जैसी परिस्थितियों में ऐसे भारी भरकम बॉंध हमेशा ही मन में एक डर का भाव बनाए रहते हैं।

2013 की केदारनाथ आपदा के समय भी इसी बॉंध के निर्माणाधीन होने के कारण श्रीनगर शहर को काफी नुकसान उठाना पड़ा था। पावर हाउस तो तहस-नहस हुआ ही साथ में नदी के आस-पास रहने वाले तमाम घरों को भी भारी नुकसान हुआ।श्रीनगर का आईटीआई तो पूरी तरह मलबे से ढक गया।

हाल ही में तपोवन व रैणी गॉंव में आई त्रासदी के बाद श्रीनगर बॉंध में पानी की मात्रा को बहुत ही कम कर दिया गया था ताकि ऊपर से आने वाले पानी के नकारात्मक प्रभाव को रोका जा सके।

तपोवन की घटना के सुबह घटित होने की वजह से प्रशासन को तुरंत एक्शन लेने का समय मिल गया और हरिद्वार तक हाई अलर्ट जारी कर दिया गया लेकिन अगर यही घटना रात में या फिर बरसात के दिनों में होती तो इसके दुष्परिणाम शायद श्रीनगर शहर को भी भुगतने पड़ते।

उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पहाड़ी राज्य में विकास के नाम पर अंधाधुंध बॉंधों का निर्माण खतरे की घंटी के सिवाय और कुछ नहीं है।

केदारनाथ आपदा के बाद बनी रवि चोपड़ा कमेटी ने भी यह माना है कि बाँधों ने आपदा के दुष्प्रभावों को कई गुना बढ़ा दिया था।

बॉंधों के यही दुष्प्रभाव हाल ही में ऋषिगंगा व तपोवन पावर प्रोजेक्ट के कारण रैणी गॉंव में आई आपदा में भी देखने को मिले।

बशर्ते राज्य को विकास की जरूरत है लेकिन विनाश की बुनियाद पर नहीं। सरकार को एक बार पुन: बॉंधों को बनाए जाने के अपने फैसलों का पुनरावलोकन करना चाहिये और सौर ऊर्जा व पवन ऊर्जा जैसे वैकल्पिक स्रोतों को अपनाकर सतत विकास के मॉडल पर आगे बढ़ना चाहिये।

कमलेश जोशी

(काफल ट्री की खबर से साभार)

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