मज़दूर यूनियनें और ट्रेड यूनियन सैंटर किसान संसद को लेकर क्यों चुप हैं?

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By अजीत सिंह

लगभग आठ माह का समय बीत जाने के बाद भी किसान तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलनरत हैं। अनेक उतार-चढ़ावों के बीच किसान अपने आन्दोलन को लगातार आगे बढ़ा रहे हैं।

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के समय ( अप्रैल-मई) में जब पूरे देश में जब हाहाकार मचा हुआ था, उस समय भी किसान दिल्ली बाॅर्डर की सीमाओं पर आन्दोलनरत थे। अप्रैल-मई में मुख्य धारा की मीडिया द्वारा किसान आन्दोलन के खिलाफ यह प्रचार करना शुरू कर दिया था कि कुछ मुट्ठी भर किसान दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हुये हैं, बाकी किसान अपने घरों को जा चुके हैं। यही वह समय है जब किसानों की गेंहू की फसलों का कटाई का समय था।

22 जुलाई 2021 से देश की संसद का मानसून सत्र जारी है। लेकिन किसानों ने भी तीन काले कृषि कानूनों को रद्द कराने को लेकर ‘‘किसानों की संसद‘‘ दिल्ली जंतर मंतर पर चला दी है। देश की संसद के विपरीत किसानों ने अपनी संसद लगाकर दिखा दिया है कि देश का किसान संसद भी चला सकता है।

इस किसान संसद में सरकार द्वारा 200 किसानों को सुबह 11 बजे से सायं 5 बजे तक की मंजूरी दी गई है। प्रतिदिन 200 किसान सिंघु बाॅर्डर, टीकरी बाॅर्डर व गाजीपुर बाॅर्डर से किसान संसद चलाने के लिये आते हैं। इसके साथ-साथ संयुक्त किसान मोर्चा ने विपक्ष के नोताओं को व्हीप जारी कर संसद के भीतर तीन काले कृषि कानूनों को रद्द कराने की मांग उठाने को कहा है।

किसानों द्वारा लगाई गई इस संसद का प्रभाव यह है कि विपक्ष के नेता संसद के मानसून सत्र में किसानों के ऊपर थोपे गये कृषि कानूनों के ऊपर संसद में बहस कर रहे हैं। हांलाकि विपक्ष के नेताओं द्वारा कृषि कानूनों को रद्द कराने की संसद में मांग जोर शोर से नहीं उठाई जा रही है।

क्योंकि कृषि कानूनों को उन्हीं उदारीकरण की नीतियों के तहत पारित किया गया है जिनकी अगुवाई खुद कांग्रेस सरकार ने की है। कृषि कानून बड़ी एकाधिकारी पूंजी की मांग है ताकि कृषि उत्पाद को भी बड़ी पूंजी नियन्त्रित कर सके।

देशी-विदेशी पूंजी की नज़रें लम्बे समय से कृषि उत्पाद के बाजार पर नियन्त्रण करने पर टिकी हुई थी। इसलिये अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने इन कृषि कानूनों के समर्थन में बयान जारी किया। श्रम कानूनों को खत्म कर 4 लेबर कोड्स तथा 3 कृषि कानूनों को पारित कर मोदी सरकार ने एकाधिकारी पूंजी को एक बड़ी सौगात दी है।

भले ही मज़दूर वर्ग घोर मजदूर विरोधी लेबर कोड्स को लेकर चुप है परन्तु किसान संगठनों ने 3 काले कृषि कानूनों को निरस्त कराने को लेकर जनता की संसद का गठन कर जनता के बीच में एक नई बहस को जन्म दिया है और आन्दोलन का एक नया तरीका निकाल कर किसी भी प्रकार के कानूनों पर ‘‘जनवाद‘‘ को मद्देनज़र रख कर कानून बनाने की ओर ध्यान दिलाया है।

जबकि देश की संसद में ऐसे कानून बनाए जा रहे हैं जिनके द्वारा ‘‘जनवादी अधिकारों‘‘ को सीमित कर दिया गया है। 3 काले कृषि कानूनों का मामला हो, चाहे 4 लेबर कोड्स का मामला हो या फिर यू.ए.पी.ए. जैसे जन विरोधी काले कानून हो ये हिन्दु फासीवादी मोदी सरकार की बानगी भर है।

किसान संगठनों की ‘‘किसान संसद‘‘ की इस कार्यवाही से किसानों के अन्दर उत्साह व जोश का संचार अवश्य हुआ है। किसानों की इस संसदीय कार्यवाही को मुख्य धारा की मीडिया द्वारा भले ही कवरेज ना दिया जा रहा हो लेकिन किसानों ने देश की संसद के विपरीत अपनी संसद लगाकर देश की संसद को खारिज कर दिया है।

किसानों ने यह दिखा दिया है कि उनकी वोटों से चुने हुये प्रतिनिधि संसद में बैठकर उन्हीं के खिलाफ नीतियां बनाते हैं, ये जनता के प्रतिनिधि ना होकर कार्पोरेट के प्रतिनिधि हैं।

किसानों की इस आगे बढ़ी हुई कार्यवाही का सरकार विरोध कर रही है। 21 जुलाई को भाजपा की केन्द्रीय राज्य विदेश मंत्री श्रीमती मिनाक्षी लेखी ने अपने एक बयान में कहा है कि सड़कों पर बैठे किसान, किसान नहीं बल्कि मवाली हैं।

भाजपा मंत्री का यह ब्यान केवल ब्यान नही है बल्कि यह भाजपा व संघ की जनता विरोधी विचारधारा को दर्शाता है। यह मोदी सरकार कि मेहनतकश जनता के प्रति नफरत व कार्पोरेट के प्रति प्यार उदाहरण है।

यह दिखाता है कि जब भी मज़दूर मेहनतकश जनता अपने अधिकारों, मांगों व जनवाद के लिये संघर्ष करते हैं तो भाजपा व संघ मिलकर उन्हें देशद्रोही, आतंकवादी, पाकिस्तानी, मवाली व सरकार विरोधी करार देते हैं।

ऐसा नहीं है कि मिनाक्षी लेखी ही भाजपा की ऐसी मंत्री हैं जिन्होंने अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वालों को (किसानों) को ऐसा कहा हो, बल्कि भाजपा-संघ के लगभग सभी मंत्री व नेता आन्दोलन करने वालों को नित नए नए नामों से नवाजते व बदनाम करते रहे हैं।

स्वयं प्रयानमंत्री ने संसद के शीतकालीन सत्र में आन्दोलन को नेतृत्व देने वालों को और आन्दोलन को समर्थन करने वालों को ‘‘आन्दोलनजीवी‘‘ कहा था।

जे.एन.यू. के छात्रों का फीस वृद्वि के खिलाफ चले आन्दोलन ( जनवरी 2019) हो, या फिर सीएए और एनआरसी का आन्दोलन हो, या फिर जेएनयू व जामिया विश्वविद्यालय के छात्रों का आन्दोलन हो, इन सभी आन्दोलनों को बदनाम करने के लिये तरह तरह से झूठा प्रचार किया गया, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया गया और यहां तक कि इन छात्रों पर पलिस व गुंडों द्वारा हमला भी करवाया गया।

सीएए-एनआरसी का दमन किस तरह दंगे करवाकर किया गया इस बात को सब जानते हैं। किसान आन्दोलन को भी इसी तरह भाजपा व उसकी आईटी सेल द्वारा खालिस्तानी, आतंकवादी, व नक्सली आदि कहकर बदनाम किया गया।

26 जनवरी की किसान ट्रैक्टर परेड को भी मोदी सरकार व कार्पोरेट मीडिया ने साम्प्रदायिक रूप देने की कोशिश की। संघ व भाजपा समर्थकों द्वारा बाॅर्डर पर बैठे किसानों पर पथराव कर उनके टेंटों को उखाड़ने के प्रयास किये गये।

परन्तु किसानों ने भाजपा समर्थित गुंडों का जवाब बड़े धैर्य व सूझबूझ के साथ दिया। एक तरीके से किसान आन्दोलन ने हिन्दू फासीवाद के आगे बढ़ते हुए रथ को कुछ समय के लिये रोक दिया है। किसानों द्वारा लगाई गई ‘‘किसान संसद‘‘ ने हिन्दू फासीवादियों को ज़रूर सकते में डाल दिया है।

21 सितम्बर 2020 को भाजपा सरकार ने 3 कृषि कानूनों को संसद के दोनो सदनों से पारित करा कानून बना दिये थे। उसी दिन कृषि कानूनों के साथ साथ मजदूरों के 3 श्रम कोड भी पारित किये गये थे। 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म कर यह 4 श्रम कोड्स लाए गए हैं।

कृषि कानूनों की तरह ये श्रम कोड्स भी घोर मज़दूर विरोधी व काले हैं। किसानों के लिये 3 कृषि कानूनों को रद्द कराना जीवन मरण का प्रश्न बन चुका है। इसलिये किसान पिछले 8 माह से सर्दी-गर्मी-बरसात- कोरोना महामारी को सहन करते हुये दिल्ली बाॅर्डर पर संघर्षरत हैं।

सैकड़ों किसानों की शहादत के बावजूद किसान अपने आन्दोलन को आगे बढ़ा रहे हैं। आन्दोलन अब किसानों की संसद चलाने तक जा पहुंचा है। इसके उलट 4 लेबर कोड्स को लेकर मज़दूर यूनियन व ट्रेड यूनियन सैंटर किसान आंदोलन की तरह संगठित व जुझारू मजदूर आंदोलन नहीं खड़ा कर पा रहे हैं।

मजदूर व ट्रेड यूनियन सैंटरों ने अभी तक जो भी लेबर कोड्स का विरोध किया है, वह किसान आंदोलन की रोशनी में ही किया है। जबकि यूनियनें द्वारा सक्रिय भागीदारी किसान आंदोलन में उस तरह से सामने नहीं आई है। आज जब किसान देश की संसद के विपरीत अपनी संसद चला रहे हैं तो मजदूर यूनियनें इस ‘‘किसान संसद‘‘ से गायब हैं।

किसानों के 8 माह आन्दोलनरत रहने का परिणाम यह है कि देश की संसद में कृषि कानूनों पर बहस हो रही है। लेकिन मजदूरों के 4 लेबर कोड्स पर बहस तो दूर की बात, चर्चा का विषय भी नही हैं।

इसका साफ मतलब यह है कि ट्रेड यूनियनें 4 लेबर कोड्स को लेकर ना तो स्वयं गम्भीर हैं और ना ही मजदूरों में उद्वेलन पैदा कर पा रहे हैं।

अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि ना तो मजदूर यूनियनें और ना ही ट्रेड यूनियन सैंटर ‘‘किसानों की संसद‘‘ में भागीदारी तक नहीं कर पा रहे हैं। हम इतिहास के उस दौर में हैं जहां किसान पूरे दम से संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मजदूर यूनियनें 4 घोर मज़दूर विरोधी लेबर कोड्स पर चुप्प हैं।

इस भयानक चुप्पी का परिणाम यह है कि मज़दूर अधिकारों पर किये गये हमलों पर देश की संसद में कोई चर्चा नहीं हैं। एक तरीके से मज़दूर यूनियनें इन मजदूर विरोधी लेबर कोड्स को स्वीकार कर लिया है। नहीं तो मजदूर भी इस किसान संसद में सक्रिय भगीदारी कर देश की संसद को ‘‘मज़दूर‘‘ होने का आभास ज़रूर करवाता।

(लेखक ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट हैं। लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।)

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