‘कैंडल्स इन द विंड’ : खुदकुशी के साये में पंजाब की महिलाओं की ज़िंदगी

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By मनीष आज़ाद

गेहूं कटने और बोझा बंध जाने के बाद गाँव के गरीब दलित बच्चों का झुंड खेत मे यहां वहां बिखरे गेहूँ के दाने अपने अपने झोले में जमा करने आ जाता है। यह दृश्य यूपी -बिहार के गांवों में तो आम है। लेकिन पंजाब में ‘हार्वेस्टर कंबाइन’ से गेहूं कट जाने के बाद दलित महिलाओं का एक झुंड उसी तरह बिखरे दाने उठाने आ जाता है।

‘कैंडल्स इन द विंड’ (Candles in the wind) नामक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म का यह शुरुआती दृश्य पंजाब की ‘समृद्धि’ की पोल खोल देता है।

‘कविता बहल’ और ‘नंदन सक्सेना’ की यह महत्वपूर्ण फ़िल्म पंजाब की उन महिलाओं पर बनी है जो अपने पति या बेटों की आत्महत्या के कारण अब व्यवस्था की क्रूरता से लड़ते हुए अपने परिवार का रथ खुद खींच रही हैं।

हरित क्रांति पंजाब में ‘समृद्धि’ के साथ साथ कैंसर और कर्ज की समस्या लेकर आया। कैंसर के सेल की तरह कर्ज भी दिन दूनी रात चौगुनी दर से बढ़ता है। कैंसर जहां जीवन को निगल लेता है, वहीं कर्ज किसान की जमीन और उसके स्वाभिमान को निगल लेता है। दोनों का गठजोड़ पंजाब में बहुत गहरा है।

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नंदन सक्सेना और कविता बहल अपने एक साक्षात्कार में किसानों की आत्महत्या को विश्व इतिहास का अब तक का सबसे बड़ा जनसंहार कहते हैं, जो आज भी चुपचाप हमारे सामने घटित हो रहा है।

प्रत्येक जनसंहार अपने पीछे अनगिनत लहूलुहान कहानियां छोड़ जाता है। ऐसी ही कुछ कहानियां इस फ़िल्म का हिस्सा हैं। लेकिन ये कहानियां लिखी नहीं गयी हैं, सीधे ‘युद्ध क्षेत्र’ से कैमरे में कैद की गई हैं।
डाक्यूमेंट्री में एक परिवार ऐसा है, जहाँ ‘पेस्टीसाइड’ के कारण पिता को कैंसर होता है और पिता के कैंसर के इलाज के लिए बेटा कर्ज लेता है।

कैंसर का सेल चक्रवृद्धि व्याज की तरह बढ़ते बढ़ते अंततः पिता का जीवन लील जाता है। पिता की मृत्यु के बाद बेटे का कर्ज कैंसर के सेल की तरह बढ़ता जाता है और पहले उसकी जमीन जाती है, फिर एक दिन वह आत्महत्या कर लेता है।

अब सारा दारोमदार महिलाओं के कंधों पर है। उनके पास आत्महत्या का विकल्प नहीं है। वे जीवन के रथ को अब अकेले ही खींचने को मजबूर हैं।

फ़िल्म को देखते हुए रंजना पाढ़ी की शोध पुस्तक ‘खुदकुशी के साये में’ याद आ जाती है, जो इसी विषय पर है।

दरअसल इस फ़िल्म को कविता बहल और नंदन सक्सेना की दूसरी फिल्म ‘Cotton For My Shroud’ के साथ देखा जाना चाहिए, जो उन्होंने विदर्भ में किसानों की आत्महत्या पर बनाई है। दोनों फिल्में भारत में खेती के संकट की एक मुकम्मिल तस्वीर पेश करती हैं। और इस व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करती हैं।

फ़िल्म में बीकेयू (उग्राहां) की एक महिला कार्यकर्ता से बातचीत के बहाने पंजाब की इस समस्या के हल की ओर भी संकेत किया गया है। ‘उग्राहां’ की महिला कार्यकर्ता बेहद आत्मविश्वास से कहती हैं कि पंजाब में 18 एकड़ की सीलिंग ईमानदारी से लागू करके यदि गरीबों-दलितों में जमीन बाटी जाए तो समस्या के समाधान की ओर पहला लेकिन निर्णायक कदम बढ़ाया जा सकता है।

फ़िल्म में कविताओं का इस्तेमाल एक तरफ़ इन महिलाओं के दुःख को और गाढ़ा बनाता है, तो दूसरी ओर हवा से जूझते दीपक की तरह एक आशा भी जगाता है।

फ़िल्म का अंत पंरपरा से हट कर है। बाप-बेटे की खुदकुशी वाले घर की महिलाओं से विदा लेते हुए फ़िल्म डायरेक्टर कविता बहल की आंख नम हो जाती है।

कैमरामैन नंदन सक्सेना के यह पूछने पर की क्या हुआ, कविता बहल कहती हैं कि मैं उनकी स्थिति देखकर परेशान हो गयी और उनकी कुछ मदद करना चाहती थी। लेकिन उस बूढ़ी महिला ने कहा कि तू मेरी बेटी जैसी है और बेटी से कुछ लिया नहीं जाता बल्कि उसे दिया जाता है। उन्होंने मदद लेने से इंकार कर दिया।

लगभग रोते हुए डायरेक्टर आगे कहती हैं कि इतनी बुरी स्थिति में भी ये लोग अपनी नैतिकता पर खड़े है और लूटने वालों के पास कोई नैतिकता नहीं है। उन्हें तो बस किसी भी तरह अपनी तिजोरी भरनी है।

दरअसल यहां डायरेक्टर ने विषय के साथ अपनी भावना को ‘एडिट’ नहीं किया है और फ़िल्म के अंत मे डाक्यूमेंट्री के फ़िक्शन हो जाने या ‘सब्जेक्टिव’ हो जाने का खतरा उठाते हुए भी अपनी भावना को खुलकर स्क्रीन पर आने दिया है। इससे फ़िल्म और मजबूत होकर उभरती है।

इससे जीवन और कला के अंतर-संबंधों पर भी एक नई रोशनी पड़ती है। सच्ची कला सबसे पहले कलाकार को ही बदलती है। बरबस संजीव की कहानी ‘प्रेरणास्रोत’ याद आ जाती है।

2014 में आयी यह फ़िल्म पिछले दिनों आनन्द पटवर्धन के प्लेटफार्म से दोबारा रिलीज़ हुई है। आज के किसान आंदोलन में इस फ़िल्म को एक नया अर्थ मिल जाता है।

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