गुड़गांव मिनी सचिवालय पर 14 नवंबर को मजदूर किसान प्रतिरोध धरना

Bellsonica protest

चार लेबर कोड और तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ गुड़गांव में 14 नवंबर को मजदूर किसान प्रतिरोध धरना आयोजित हो रहा है। प्रतिरोध धरने में संयुक्त किसान मोर्चे के किसान नेताओं को भी बुलाया गया है।

बेलसोनिका यूनियन ने बयान जारी कर कहा है कि प्रतिरोध धरने का आयोजन गुड़गांव के मिनी सचिवालय के सामने सुबह 4 बजे से शाम पांच बजे तक किया जाएगा।

बयान में निजीकरण और मज़दूरों पर होने वाले तीखे हमलों का ज़िक्र करते हुए मज़दूरों की दयनीय स्थिति के लिए मोदी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया गया है।

बयान के अनुसार, “गुड़गाव ओद्योगिक इलाके में ही नहीं वरन पूरे भारत में आज मजदूरों पर हमले बढ़ रहे हैं। 4 लेकर कोड्स पारित कर मोदी सरकार ने एक बड़ा हमला बोला है। उदारीेकरण की पूंजीपरस्त नितीयों की यह बहुत बड़ी सौगात पूंजीपति वर्ग को दी है। केवल इतना ही नहीं इससे आगे बढ़कर मोदी सरकार को सार्वजनिक उपक्रमों (रेल, सड़क, हवाई जहाज, गैस, बी.पी.सी.एल., बंदरगाह, आदि ) जो पैसे से खड़े किए गये थे को कौड़ियों के भाव पूंजीपति वर्ग के सुपुर्द कर रही है।”

“चार लेबर कोड्स की रोशनी में पूंजीपति वर्ग ने छिपी व खुली छंटनी की प्रक्रिया को फैक्ट्रियों में लागू कर दिया है। स्थाई रोजगार की जगह फिक्स टर्म इम्प्लायमेंट, नीम टेªनी व ठेका श्रमिकों को बड़े पैमाने पर भर्ती की प्रक्रिया को अजांम दिया जाएगा। स्थाई काम पर स्थाई रोजगार के गैर कानूनी प्रावधान को कानूनी बना कर ठेका श्रमिकों को ओर भी ज्यादा दयनीय स्थिति में धकेल दिया जाएगा।”

यूनियन का पूरा बयान-

मोदी सरकार केवल मजदूरों तक ही सीमित नहीं है। मोदी सरकार ने कांग्रेस की सरकार को पीछे छोड़ते हुए खेती को भी कार्पोरेट पूंजी के हवाले करने के लिए 3 कृषि कानूनों को कोरोना काल में संसद के दोनो सदनों से पारित किए गए। आवश्यक वस्तू अधिनियम 2020, कान्ट्रेक्टिग फार्मिंग व ए.पी.एम.सी. एक्ट जैसे 3 कृषि कानूनों के तहत खेती को भी कार्पोरेट पूंजी के नियन्त्रण में लाना चाहती है। तीन कृषि कानून छोटे व मझौले किसानों की पहले से जारी तबाही बर्बादी की प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाएगें। आवश्यक वस्तु अधिनियम 2020 के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खत्म कर एक बड़ी गरीब आबादी को भूखमरी की स्थिति में धकेला जाएगा। दूसरी ओर यह खेती उत्पाद की कीमतो का नियन्त्रण व निर्धारण स्वयं करेंगे। जिससे महगांई बढ़ेगी। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान पिछले 11 महीने से दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर संघर्षरत है। सरकारी दमन का सामना करते हुए किसान आन्दोलन ने फासीवादी मसंूबे पाले मोदी सरकार को पीछे हटने को विवश किया हुआ है।

फैक्ट्री यूनियनों की वैचारिक व राजनीतिक स्थिति बड़ी सोचनीय है। शासक वर्ग मजदूर वर्ग के उन कानूनों अधिकारों को खत्म कर रहा है जिनके पीछे मजदूर वर्ग के वैश्विक राजनीतिक आन्दोलनों का पूरा इतिहास रहा है। परन्तु आज मजदूर आन्दोलन एक फैक्ट्री के मजदूरों पर मालिक वर्ग के हमलों का जवाब दे पाने में असमर्थ है। जिन फैक्ट्रियों में यूनियनें ही नही है या फिर जिन फैक्ट्रियों में ठेका श्रमिकों की तादाद ज्यादा है उन फैक्ट्रियों के मजदूरों के हालात तो बहुत ही दयनीय है।

सरकारों द्वारा फैक्ट्रियों में कार्य करने वाले श्रमिकों के इतने ज्यादा विभाजन पैदा कर दिए गए है और यह विभाजन की प्रक्रिया आज भी जारी है को फैक्ट्री यूनियनें चुनौती पेश नही कर पा रही है। यह सवाल मजदूरों के लिए अपने वर्ग का सवाल है। इस सवाल से इस समय कोई भी फैक्ट्री यूनियन जूझती नजर नही आ रही है। शायद यूनियन बनने के बाद यूनियनों व उनके नेतृत्व के द्वारा इस महत्वपूर्ण सवाल को भूला दिया जाता है। इस वर्गीय सवाल से यूनियनों व नेतृत्व का बचने का परिणाम यह है कि आज यूनियन अपने वेतन, भत्तो, व सुविधाओं की बात तो दूर अपनी स्थाई नौकरी तक नही बचा पा रही है। आज जब स्थाई मजदूरों व उनकी यूनियनों पर शासक वर्ग का चैतरफा हमला हो रहा है तो यूनियनें अपने आप को असहाय स्थिति में पाती है। वह अपने पास की मशीनों पर कार्य करने वाले ठेका मजदूरों की तरफ देखती है। क्योंकि मुट्ठी भर स्थाई श्रमिकों से फैक्ट्री मालिक व शासन सत्ता से नही लड़ा जा सकता है।

मजदूर यूनियनों ने जब से अपने वर्ग व वर्ग संघर्ष का रास्ता छोड, स्थाई मजदूर व वर्ग सहयोग के रास्ते को चुना है तो मालिक वर्ग के हमले मजदूर वर्ग पर बढ़े है। इसका बड़ा परिणाम यह हुआ है कि आज तमाम मजदूर अधिकारों (कानूनी) को शासक वर्ग द्वारा तिलांजलि दी जा रही है। जिन कानूनी अधिकारों के इर्द-गिर्द हम मजदूर एकजुट होते थे, हमनें इन तमाम कानूनी अधिकारो के साथ साथ मजदूर वर्ग के प्रतीको को भी धुधंला कर दिया है। जिन्होने कठिन व लम्बे वर्ग संघर्ष, कुर्बानियों के दम पर पूंजीपति वर्ग को मजदूरों के लिए कानूनी अधिकार देने के लिए विवश कर दिया था। अपनी कुर्बानियों का परचम लहराते हुए शिकागो के मजदूरों ने 8 घण्टे के काम की लड़ाई की शुरूआत की थी। अपने वर्ग संघर्ष की बुनियाद पर इग्लैंड के मजदूरों ने यूनियन बनाने का अधिकार हासिल कर दुनिया के मजदूरो को एकजुट होकर पूंजीपति वर्ग के खिलाफ लड़ने का आह्ान किया था।

वर्ग गोलबंदी व वर्ग संघर्ष के कार्य को मजदूरों व उनके नेतृत्व ने पिछले चार दशको से छोड़ रखा है। ऐसा नही है कि मजदूरों के नेतृत्व ने वर्ग संघर्ष को छोड़ने के बाद फैक्ट्री मजदूरों ने इसे भूला दिया हो। फैक्ट्री में यूनियन गठन के दौरान वर्ग संघर्ष की काफी अच्छी मिशाले मजदूरों ने पूंजीपति वर्ग व शासन सत्ता को पेश की है। होण्डा के मजदूरों का वर्ष 2005 का आन्दोलन हो या फिर 2012 का मारूति मजदूरों का आन्दोलन हो। इन सब आन्दोलनों में मजदूरों ने वर्ग के तौर पर अपने को संगठित कर मालिक वर्ग के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

आज मजदूर वर्ग के जो हालात बने हुए है वह सोचनीय है। आज मजदूर वर्ग जिस स्थिति में पहुंच गया है वह लगभग चार दशको की एक लम्बी प्रक्रिया है। मजदूर वर्ग अपने वर्ग की राजनीति व विचारधारा से विहीन शासक वर्ग के सामने एकदम निहत्या और असहाय स्थिति में नजर आता है। यही परिणाम है कि मजदूर आंदोलन में उभार की स्थिति नजर नही आ रही है। यह समय मजदूरों का शासकवर्ग के खिलाफ पहल कदमी लेने का समय है। अपनी फैक्ट्री के भीतर व अन्य फैक्ट्रियों के मजदूरों को मजदूर वर्ग की राजनीति व विचारधारा पर खड़ा करने का लम्बे व कठिन संघर्ष की शुरूआत करनी होगी। उन तमाम विभ्रमों व मिथकों को तोड़ना होगा जो शासक वर्ग ने मजदूर वर्ग के बीच में फैला रखे है। ठेका, नीम टेªनी, अप्रेन्टिस, फिक्स टर्म आदि मजदूरों को फैक्ट्री यूनियनों ने गोलबंध कर शासक वर्ग को चुनौती पेश करनी होगी। शासक वर्ग मजदूर वर्ग की लामबंदी व उसकी विचारधारा से काम्पता है। बिना वर्गीय लामबंदी के शासक वर्ग के हमलो का मुकाबला नही किया जा सकता।

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