कोरोना की वैश्विक तबाही में भी धन कुबेरों की कैसे हुई पौ बारह?

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By रवींद्र गोयल

‘हुरून रिपोर्ट’ लन्दन आधारित एक शोध और प्रकाशन संस्था है जो दुनिया के धन कुबेरों की संपत्ति, उसमें फेर बदल, उनके कामों आदि पर सालाना रिपोर्ट प्रकाशित करती है । यूँ तो यह संस्था पुरानी है पर भारत में यह संस्था 2012 से काम कर रही है और सितम्बर माह के अंत में इस संस्था ने 2020 के मुकाबले 2021 में भारत के धनपतियों की सूची और पिछले एक साल में उनमें आये बदलाव सम्बन्धी अपनी रिपोर्ट ज़ारी की है।

रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल अडानी ग्रुप के मालिकन 1002 करोड़ रुपये रोज़ कमाकर यानि 42 करोड़ रुपये प्रति घंटा कमाकर भारत के दूसरे नंबर के अमीर बन गये हैं। पिछले साल उसकी संपत्ति 261 प्रतिशत बढ़कर 5,05,900 करोड़ रुपये हो गयी है। मुकेश अम्बानी भारत का सबसे धनी आदमी है जिसकी संपत्ति 7,18,000 करोड़ रुपये जोड़ी गयी है।

कोविड की दवा, covishield, बनाने वाले सीरम इंस्टिट्यूट के मालिक पूनावाला 190 करोड़ रुपये प्रतिदिन कमाकर भारत के छठे नंबर का अमीर बन बैठे हैं। उनकी संपत्ति अब 1,63,700 करोड़ रुपये है। रिपोर्ट के अनुसार, फिलहाल भारत में 279 डॉलर अरबपति, यानि जिनकी संपत्ति करीबन 7500 करोड़ रुपये से ऊपर है।

रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत में 1007 व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी संपत्ति 1000 करोड़ रुपये से ऊपर है। और रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 10 सालों में इन धनी व्यक्तियों ने समग्रता में 2020 करोड़ रुपये रोज़ के हिसाब से धन कमाया है।

यह जानना भी दिलचस्प होगा कि कोविड की वैश्विक तबाही के दौर में दुनिया के धनपतियों ने भी अपने भारतीय बिरादरों की ही तरह बेतहाशा धन कमाया है।

ट्रिकल डाउन थ्योरी धोखा है?

आम आबादी को, अस्सी के दशक से जारी नवउदारवादी नीतियों के, पिछले कई सालों के तज़रबे ने साफ़ कर दिया था कि उसके कल्याण हेतु बढ़ता विकास और संपन्नता का रिसाव सिद्धांत (theory of trickledown) का अर्थशास्त्र कितना बोदा है।

यह जनता के साथ धोखा है उनके जागरूक तबकों को गुमराह करने का षड़यंत्र है। भारत में विकास की ऊंची दर का फायदा केवल उपरी तबके या मध्यम वर्ग के एक छोटे से तबके को ही मिला था। ज्यादातर लोग अपने को ठगा ही महसूस कर रहे थे।

लेकिन हममें से ज्यादातर लोगों के लिए यह आश्चर्यजनक है कि आखिर कोविड जनित वैश्विक तबाही के बीच में भी इन धन्ना सेठों को बेतहाशा धन कमाने के अवसर कहाँ से मिल गए?

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 20-21 में भारत की राष्ट्रीय आय 7.3 प्रतिशत से गिरी है। लोगों का अपना तज़रबा भी बताता है कि उनको तो तबाही, बर्बादी का मुख देखना पड़ा है।

अप्रैल 2020 के सरकारी बंदी के फरमान के बाद करोड़ों की तादाद में उन्हें पैदल ही घर जाना पड़ा है। राह में कितने भूखे प्यासे मर गए उसका कोई हिसाब ही नहीं। मोदी सरकार ने यह कहकर मदद करने से हाथ खींच लिए कि उसके पास पैसे ही नहीं हैं।

बहुत से लोग इस तर्क से सहमत भी लगते हैं। सरकार अमीर लोगों पर टैक्स नहीं लगाना चाहती है और बहुत से लोग इस नीति को ठीक ही समझते हैं। नतीजा कोविड आबादी के बहुत बड़े हिस्से की तबाही का सबब बना है।

तब यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक ही है कि आखिर इस विपत्ति काल में धन कुबेरों की संपत्ति का अम्बार कैसे लग गया? उनके लिए उलटी गंगा कैसे बह रही है?

कुछ लोग इसे किस्मत का खेल मान सकते हैं। पर मामला इतना सीधा नहीं है। बढ़ती बेरोज़गारी, घटती छोटे और मंझोले व्यक्तियों की आय के बीच चल रहे इस गोरख धंधे को समझने के लिए हमें उन्ही नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के सार को समझना पड़ेगा जो सामान्य हालात में धनिकों को फायदा पहुंचता है और धनी बनाता है।

मेहनत या सरकारी नीति का मिला फायदा?

नव उदारवादी नीतियों का सिद्धांत वाक्य है कि विकास ही किसी समाज की भलाई की कुंजी है और उसके लिए वो सब किया जाना चाहिए जो धनपतियों को निवेश के लिए प्रोत्साहित करे- उनको सस्ते ब्याज पर पैसा उपलब्ध कराओ, उनको सरकारी संपत्ति सस्ते में बेचो, कर में रियायत दो, कानून में छूट दो, सरकारी देनदारियों में रियायत दो, ताकि वो विकास को आगे बढ़ायें।

कोविड तबाही के बीच भी दुनिया की सरकारों की नज़र इस मंत्र को ही लागू करने पर लगी हुई थी। भारत कोई इसका अपवाद नहीं था। ब्याज दर को कम से कम रखा गया।

बड़े उद्योगपतियों को इस आधार पर कि उनकी बिक्री कम है उन्हें सस्ते दर पर क़र्ज़ दिया गया। इन दोनों से मिलकर उनके पास नकद धन का भंडार जमा हुआ। इस धन भंडार को उसने अपने से कमजोर इकाइयों की संपत्ति हड़पने में, सरकारी संपत्ति को सस्ते दाम में खरीदने में, सट्टे और शेयर बाज़ार में लगाया।

यह ऐसे ही नहीं हुआ कि इस भारी तबाही के बीच शेयर बाज़ार झूमने लगा है और धनपतियों की संपत्ति अनाप शनाप दर से बढ़ने लगी है।

आम जनता की गरीबी और सेठों के धन में बढोत्तरी कोई पहली बार नहीं हो रही है। साल 2007-08 के अमरीकी ‘सब प्राइम क्राइसिस’ के दौर में भी यही देखा गया था। अपने विशाल निवेश और क्रय शक्ति के साथ, अरबपतियों के पास आर्थिक उथल-पुथल के दौरान लाभ के लिए अपने स्वयं के संसाधनों के अलावा सरकारी संसाधन भी हैं और उनको अनुकूल कर कानून और उसकी कमियां इनको भरपूर पैसा बटोरने के अवसर देते हैं।

जीवन को आसान बनाने वाली नीति कहां

संक्षेप में कहा जाए तो जबतक नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और आम आदमी के कल्याण के नाम पर उच्च विकास की दर और रिसाव सिद्धांत (theory of trickledown) के आर्थिक षड़यंत्र से मुक्ति नहीं पाई जाएगी यह सिलसिला जारी रहेगा।

यदि इससे मुक्ति पानी है तो आर्थिक संयोजन के ताने बाने को ‘व्यापर करने की आसानी ‘ (ease of doing business) से हटाकर ‘जीने की आसानी’ (ease of living) के अनुसार ढालना होगा।

सरकार को ‘लोगों के ऊपर मुनाफे को वरीयता’ देने के चिंतन को उलटकर ‘मुनाफे के ऊपर आम आदमी को वरीयता’ की सोच पर चलना होगा।

इसके लिए जरूरी है कि एक सीमा से ज्यादा संपत्ति के मालिकों पर संपत्ति कर, धनी तबके पर उच्च कर आदि द्वारा जनउपयोगी जरूरतों जैसे सिंचाई , अस्पताल और विद्यालय भवनों का निर्माण, जन परिवहन सेवाएँ आदि पर सार्वजनिक निवेश तथा सबको स्तरीय शिक्षा, स्वस्थ्य और रोज़गार उपलब्ध कराने पर सरकारी खर्च करना होगा।

लेखक वर्कर्स यूनिटी के सलाहकार संपादकीय टीम का हिस्सा हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। https://www.workersunity.com/wp-content/uploads/2021/10/ravindra-goel.jpg

 

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