तिरुपुर में 2 साल में 800 मज़दूर आत्महत्याएं और सुमंगली योजना की हकीकत पर ग्राउंड रिपोर्ट

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By विष्णु शर्मा

कमिटी ऑफ कंसर्न्ड सिटीजन-स्टुडेंट्स एंड यूथ द्वारा 22 मई को दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में जारी की गई  तिरुपुर रिपोर्ट, वहां के मजदूरों की दुर्दशा जानने का महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

तमिलनाडु का तिरुपुर शहर कपड़ा उत्पादन के लिए विश्व  प्रसिद्ध है। यह शहर वॉलमार्ट, सी एंड ए, डीज़ल, फिला रीबॉक अदि जैसे बड़े अंतरारष्ट्रीय ब्रांडों के लिए कपड़ों की आपूर्ति करता है।

लेकिन दूसरी ओर इसी शहर में पिछले दो सालों में 800 से अधिक मजदूरों ने आत्महत्या की है ओर हर रोज आत्महत्या की 20 कोशिशें दर्ज होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार, इसके लिए उत्पीड़न की वह परिस्थियाँ जिम्मेदार हैं जो अत्यधिक मुनाफा कमाने के लिए वहां के कारखाना मालिकों ने बना दी हैं।

तिरुपुर के कारखाना मालिकों ने उत्पीड़न के नए नए प्रयोग किये हैं। इसमें से एक है सुमंगली योजना। यह योजना विवाह योग्य लड़कियों के लिए है। कारखानों में नवयुवतियों को बतौर मजदूर तीन साल के लिए ठेके पर काम दिया जाता है।

ठेका अवधि की समाप्ति पर 30000 से 60000 के बीच एक मुश्त रकम दहेज़ के लिए इन नवयुवतियों को थमा दी जाती है। यदि इस अवधि में इन में से कोई बीमारी या किन्ही कारणवश काम में उपस्थित नहीं हो पता तो मालिक रकम देने से इनकार कर सकता है।

ठेके की अवधि के दौरान लड़कियां हॉस्टल में रहती हैं और अपने निकट के परिचितों (जिनका नाम और फोटो उनके रजिस्टर में दर्ज होता है) के आलावा किसी से नहीं मिल सकतीं। उनके बहार जाने में पाबन्दी होती है। हॉस्टल में घटिया किस्म का खाना दिया जाता है जो लगातार इनके स्वस्थ पर बुरा असर डालता है। सुमंगली के रूप में काम करने वाली लड़कियों को ‘प्रशिक्षार्थी’ या ‘प्रशिक्षु’ में वर्गीकृत किया जाता है और इस तरह वे नियमित मजदूरी दरों की हकदार नहीं होती।

एक अन्य ‘कैम्प कूली’ व्यवस्था के तहत श्रम ठेकेदार बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा तथा राजस्थान से सस्ते मजदूर लाते हैं। ठेकेदार इन मजदूरों पर नज़र रखते हैं तथा प्रबंधन ठेकेदारों के माध्यम से मजदूरों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। यह मजदूर फैक्टरी मालिक द्वारा उपलब्ध हॉस्टल में रखे जाते हैं।

ये मजदूर यूनियन से नहीं जुड़ सकते। इस तरह तिरुपुर के करीब 4 लाख मजदूरों में से केवल 10 प्रतिशत ही यूनियन के सदस्य है। यहाँ के मजदूरों को सप्ताह में करीब 1710 रु की मजदूरी मिलती है और ये अन्य किसी प्रकार की सुविधा के हकदार नहीं है।

यहाँ के मजदूर अलगाव का जीवन जीने को मजबूर हैं। ये अपने परिवार के साथ नहीं रह सकते सप्ताह में 6 दिन12 से 18 घंटे के बीच काम करना पड़ता है।

रिपोर्ट के अनुसार, ‘तिरुपुर की कामयाबी मजदूरों की लूटखसोट पर आधारित है। तिरुपुर के कपड़ा उद्योग के मजदूरों के रहने-सहने वा काम करने की परिस्थितियाँ उनके जीवन को भारी नुक्सान पहुचती है। मजदूरों को न केवल उद्योग से सम्बंधित पेशागत जोखिम उठाना पड़ता है बल्कि उनसे जो अत्यधिक काम किया जाता है उसके चलते कम उम्र में ही उनके काम करने की क्षमता का ह्रास हो जाता है।’

कार्यक्रम में बोलते हुए अशोक ने कहा कि यह घटना तिरुपुर की नहीं बल्कि पूरे देश की है। देश के राजनीतिज्ञ, साहित्यकार देश को विकसित देश बताते हैं जबकि वे उत्पीडन की इन परिस्थितियों को नजरंदाज करते है। उन्होंने कहा कि देश में जहाँ भी विकास हुआ है वहां उसकी की कीमत किसानो और मजदूरों को चुकानी पड़ रही है।बिहार के रोहतास को धन का कटोरा कहा जाता है और वहां लोग बेरोजगार हो गये है।

बिहार में कहावत है कि ‘नरेगा जो करेगा वो मरेगा’ इसका मतलब है कि नरेगा योजना के अंतर्गत काम करने वालों को 2वर्षों तक भुगतान नहीं किया जाता। और जब भुगतान होता है तो आमदनी का 30 प्रतिशत सरकारी अधिकार ले लेते है।

संतोष ने कहा कि आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों ने हमें दो वक्त से एक वक्त का खाना खाने की स्थिति में पंहुचा दिया है।और अब सरकार यह कह रही है कि एक वक्त का खाना खाने वाले गरीब नहीं है!

राजनीतिक कार्यकर्त्ता  अंजनी कुमार ने बताया कि तिरुपुर में जो हालत है उसका एक कारण मजदूर आन्दोलन का न होना है और किसानों के लिए भी ऐसा ही कहा जा सकता है।उन्होंने कहा कि मजदूरों और किसानों के बीच अंतर सम्बन्ध है और हमें सही दिशा में आन्दोलन को ले जाने के लिए इस लिंक को समझना होगा।

उन्होंने कहा कि गुडगाँव और अन्य जगह के आंदोलनों से पता चलता है कि वहां के मजदूरों के बीच एकता पुराने ट्रेड यूनियन के खिलाफ बनी है। इन आन्दोलनों में जो मांगे प्रमुखता से उठी है वे है, एक संगठन, ऊँची मजदूरी और मजदूरों के बीच बराबरी।जो मजदूर संगठन खुद को वामपंथी मानते है वे मजदूरों की मांगो पर काम करने की बजाये आंदोलनों को अपनी सुविधा के अनुसार आगे ले जाना चाहते हैं।

पीडीएफआई के संयोजक अर्जुन सिंह ने कहा कि देश के कपडा उद्योग में बहुत बदलाव आया है। कानपुर पूरी तरह उजड़ गया है और सूरत, कोयंबटूर के हालत भी ख़राब हैं। मजदूर एकता कमिटी के सतीश ने कहा कि इस रिपोर्ट को विस्तार से लोगों के पास ले जाना चाहिए। नागरिक पत्रिका के संपादक श्यामवीर ने कहा की फक्ट्रियों में यूनियन बनाना मुश्किल है।ठेकेदारी प्रथा का बोल बाला है।

मजदूरों के साथ मार पीट, गली गलौज आम चलन है। भारत में पूंजीवाद, सामंतवाद, दास प्रथा सब घुल मिल गई है।कम्युनिस्ट  ग़दर पार्टी की कामरेड रेखा ने कहा कि आज के दौर में मजदूर और किसानों को एक साथ खड़े होना होगा।इस कार्यक्रम के शुरू  में पार्थ  सरकार ने तिरुपुर रिपोर्ट को प्रस्तुत किया और अंत में धन्यवाद ज्ञापन जाँच समिति के  के संतोष ने दिया।

(यह रिपोर्ट  24 मई 2011 को जनज्वार ब्लॉग पर प्रकाशित हुई थी। यहां साभार प्रकाशित।) 

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