क्या किसान आंदोलन की तमाम मांगें मौजुदा व्यवस्था में संभव हैं : एमएसपी से खरीद गारंटी तक- 4 :एमएसपी से खरीद गारंटी तक-4

protesters

धनी किसानों का तबका आंदोलन को खरीद गारंटी पर टिके रहने में दिलचस्पी नहीं रख सकता क्योंकि कृषि उत्पाद इसके लिए कच्चा माल हैं और उनके दाम कम होना इसकी अपनी जरूरत है।

इसे सिर्फ बडी पूँजी के सामने कुछ सुरक्षा की जरूरत है जिसे मानने का प्रस्ताव सरकार पहले ही दे रही है।

अगर हम निश्चित दाम पर समस्त कृषि उपज की सरकारी खरीद की गारंटी की माँग का विश्लेषण करें तो यह निश्चित दाम पर खाद्य पदार्थों के सार्वजनिक वितरण तक लेकर जाती है।

परंतु पूँजीवादी व्यवस्था का तो आधार ही बाजार और व्यापार है जबकि यह माँग कृषि उत्पादों के समस्त निजी व्यापार का निषेध करती है।

चुनांचे पूँजीवादी राज्य इस माँग को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है। दूसरे पहलू से देखें तो यह कॉंट्रेक्ट फार्मिंग का नहीं निजी पूँजी के साथ कॉंट्रेक्ट का विरोध करते हुए सीधे राज्य को किसानों के साथ कॉंट्रेक्ट फार्मिंग करने की माँग है। परंतु क्या पूँजीवादी राज्य ऐसा कर सकता है?

निश्चित दामों पर कृषि उत्पादों की खरीद की गारंटी अर्थात राज्य और किसानों के मध्य कॉंट्रेक्ट फार्मिंग सिर्फ समाजवादी व्यवस्था में ही मुमकिन है।

सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नियोजित समाजवादी व्यवस्था ही किसानों के साथ यह कॉंट्रेक्ट कर सकती है कि वह उन्हें समस्त इनपुट और यंत्र उपलब्ध कराये और निश्चित दामों पर उनका समस्त उत्पाद गैर खेतिहर आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खरीद ले।

सोवियत संघ, चीन जैसे समाजवादी देशों में सामूहिक कृषि इसी कॉंट्रेक्ट पर आधारित थी। इस तरह हम पाते हैं कि बाजार के उतार चढाव से पीडित किसान बिना स्पष्ट वैचारिक समझ के भी अपने व्यवहारिक अनुभव से पूँजीवादी व्यवस्था की हदों को पार करने वाली माँग पर जा पहुंचे हैं, हालांकि इस आंदोलन के नेतृत्व का बडा हिस्सा इस माँग से हर हालत में पीछा छुडाने की हर चंद कोशिश करेगा।

इस स्थिति में अगर मजदूर वर्ग सचेत और अपनी वर्गीय राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में संगठित होता तो क्या करता?

क्या मजदूर वर्ग की पार्टी किसानों से कहती कि पहले आप पूँजीवादी व्यवस्था की अनिवार्य गति से सर्वहारा बनजाओ, तब हम आपको लेकर इंकलाब करेंगे?

1917 में जब रूसी किसान जमीन और शांति की माँगों पर जारशाही और बुर्जुआ सत्ता के खिलाफ उठ खड़े हुए थे तो लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने क्या किया था?

उसने आगे बढ़ किसानों को कहा था कि यह माँग सिर्फ मजदूर वर्ग की राजसत्ता पूरा कर सकती है। आज भी किसानों की अधिसंख्या की माँग पूँजीवादी राजसत्ता नहीं मजदूर वर्ग की समाजवादी राजसत्ता ही पूरा कर सकती है।

इतिहास के सबसे अगुआ वर्ग के रूप में किसानों के प्रति सर्वहारा वर्ग का ऐतिहासिक कार्यभार यही है।

(प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं। ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यूनिटी सहमत हो।)

(यथार्थ पत्रिका से साभार)

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.