नेपाल में अराजकताः क्या ये जेन ज़ी प्रोटेस्ट है या कुछ और, क्यों लोग जता रहे हैं विदेशी ताक़त पर शक
By पीवी भूषण
महज दो दिन के अंदर नेपाल की युवा पीढ़ी के गुस्से के पीछे से राजशाही समर्थकों ने काठमांडू को जला डाला। प्रधानमंत्री आवास, राष्ट्रपति भवन, राजनेताओं के घरों, पार्टी कार्यालयों को निशाना बनाया गया।
नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी-यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी के नेता केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री थे। इस सरकार का समर्थन कर रही थी नेपाली कांग्रेस, जिसके नेता शेर बहादुर देउबा हैं। केपी ओली को दूसरे दिन यानी मंगलवार को ही पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा जब सोमवार को हुए विरोध प्रदर्शनों में क़रीब 21 लोग मारे गए।
काठमांडू के तीन ज़िलों में सोमवार को कर्फ़्यू लगा दिया गया था लेकिन भीड़ फिर भी सड़कों पर उतरी, उसने पहले दिन संसद पर चढ़ाई की थी, मंगलवार को उसने संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट, प्रधानमंत्री आवास, सरकारी दफ़्तर, मीडिया हाउस कांतिपुर समाचार (जो काठमांडू पोस्ट अख़बार है) के बहुमंजिला दफ़्तर समेत कई जगहों को आग लगा दी।
एक पूर्व प्रधानमंत्री खनाल की पत्नी को ज़िंदा जला दिया, पुलिस थानों पर हमले किए गए और पुलिस भाग खड़ी हुई। ख़बर है कि शुरू में सेना हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और आख़िरी समय में कुछ प्रमुख नेताओं सेना के हेलीकॉप्टर के ज़रिए सुरक्षित निकाला गया जबकि वित्त मंत्री भीड़ के हाथों नहीं बच पाए और उन्हें सड़कों पर दौड़ाकर पीटा गया।
एक और मंत्री को उनके घर से घसीट कर निकाला गया, उनकी पिटाई का वीडियो वायरल है जिसमें वह सिर्फ अंडरवियर में दिखते हैं। इससे पहले सोमवार को ही नेपाली कांग्रेस के कोटे के मंत्रियों ने इस्तीफ़ा देना शुरू कर दिया था। मंगलवार की शाम तक आते आते पीएम ओली ने अपने इस्तीफ़े की घोषणा की।
लोकतंत्र के हर प्रतीक पर हमला
सेना अपने बैरकों में बैठी रही, सही समय का इंतज़ार करते हुए। और मंगलवार को उसने केपी ओली को इस्तीफ़ा देने को कहा। वरिष्ठ पत्रकार और नेपाल मामलों के जानकार, समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंदस्वरूप वर्मा ने एक इंटर्व्यू में कहा कि ऐसा पहली बार था जब नेपाल की सेना ने किसी प्रधानमंत्री को आदेश दिया हो। इससे पहले प्रचंड को एक बार तत्कालीन सेनाध्याक्ष ने कुछ आदेश देने की कोशिश की थी, तो उन्हें बर्ख़ास्त कर दिया प्रचंड ने।
उधर, जेन ज़ी प्रोटेस्ट के आयोजित करने वाले ग्रुप ने अपना प्रदर्शन वापस ले लिया और इसकी आड़ में हो रही हिंसा से खुद को अलग करने की घोषणा की और अराजकता को काबू करने के लिए सेना से कर्फ्यू लगाने को कहा है।
दंगाईयों के निशाने पर सिर्फ़ लोकतांत्रिक प्रतीक ही नहीं थे, बल्कि राजनीतिक पार्टियों और उसके नेताओं के घर दफ़्तर भी थे। कम्युनिस्ट पार्टियों के दफ़्तरों पर दंगाईयों ने चढ़कर हंसिया और हथौड़े वाला लाल झंडा खींच कर गिरा दिया, इमारत में आग लगा दी।
कई हाई प्रोफ़ाइल राजनेताओं के घरों पर हमला और तोड़फोड़ हुई, केपी शर्मा ओली और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के करीबी भी निशाने पर थे।
प्रदर्शनकारियों में एक एनजीओ टाइप महिला अपने हाथ में तख़्ती लिए खड़ी दिखती है जिसपर लिखा था- ‘कामरेड तम्रो क्रांति, तम्रो डिज़ाइनर सुटको खल्तीमा त हराएन।’ सोशल मीडिया पर काफ़ी दिनों से ये भी खूब वायरल है कि नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के नेता प्रचंड महंगी गाड़ी में चलते हैं और उनका सूट बहुत डिज़ाइनर है।
इस बीच सोशल मीडिया पर एक ट्रेंड चल रहा है जिसमें सवाल उठाया जा रहा है कि क्या सीआईए ने नेपाल को अपना अगला शिकार बना लिया है? और इसके पीछे लोग अटकल लगा रहे हैं कि नेपाल के प्रधानमंत्री रहे केपी ओली की चीन से क़रीबी बढ़ रही थी।
अभी हाल ही में ओली ने चीन का दौरा किया था और चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को नेपाल के अंदर भारत की सीमा तक बढ़ाने को हरी झंडी दी थी। इसके अलावा चीन के सैन्य शक्ति प्रदर्शन के दौरान ओली ने शी जिनपिंग से हाथ मिलाया था। इस जनउभार के एक दिन पहले ही ख़बर आई थी कि नेपाल की सेना और चीन की सेना के बीच काठमांडू में एक सैन्य अभ्यास होने जा रहा है।
सवाल उठता है कि ये दंगाई कौन थे, जिन्होंने काठमांडू के हर लोकतांत्रिक प्रतीक पर हमला किया। राष्ट्रपति भवन को आग लगा दी गई और उसके हर हिस्से में लगी आग आनन फानन में पश्चिमी मीडिया में सुर्खियां बन गईं।
श्रीलंका, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, फिलीपींस और अब नेपाल? क्या अगला नंबर भारत का आने वाला है?
यह सीआईए की किसी ‘प्ले बुक’ की तरह दिखता है, वैसे ही जब 2011 में अरब देशों में एक के बाद एक जनता सड़कों पर उतरी, पहले ट्यूनीशिया फिर लीबिया , मिस्र , यमन , सीरिया और फिर बहरीन। इसे अरब स्प्रिंग या अरब बसंत कहा गया है।
इस कड़ी में अमेरिकी दादागीरी के ख़िलाफ़ बड़े दिनों से खटक रहे लीबिया के शासक मुअम्मार गद्दाफ़ी को इसी बर्बरता के साथ मार डाला गया था, जिसने अपने देश के संसाधनों को अमेरिकी कंपनियों के हवाले न करने की क़सम खाई थी। और इसी तथाकथित विद्रोह के बहाने अमेरिका ने लीबिया को खंडहर बना दिया।
2020 के बाद जन आक्रोश के बहाने अमेरिका के निशाने पर इस समय दक्षिण एशिया है- पहले श्रीलंका, फिर बांग्लादेश और अब नेपाल। अभी इंडोनेशिया और फिलीपींस में भी कथित जनता सड़कों पर है।
श्रीलंका में राष्ट्रपति भवन को निशाना बनाया गया, राष्ट्रपति के बेडरूम में प्रदर्शनकारी गद्दे पर लेटे हुए थे, उनके स्वीमिंग पूल में छलांग लगा रहे थे…बिल्कुल क्रांति का नज़ारा था। बांग्लादेश में उस देश के संस्थापक शेख़ मुजीबुर रहमान के घर को जला दिया गया, म्यूज़ियम जला दिया गया….संसद के ऊपर भीड़ खड़ी होकर यलगार कर रही थी।
और मंगलवार को काठमांडू धू धू कर जल रहा था और संसद और राष्ट्रपति भवन पर इन कथित प्रदर्शनकारियों का कब्जा था। वही तस्वीर राष्ट्रपति भवन की। जो रिपोर्टर नेपाल में हैं वो दावा करते हैं कि काठमांडू में 24 घंटे में ही इतनी इमारतों को आग लगा दिया गया कि काठमांडू एयरपोर्ट पर विजिबिलिटी की समस्या पैदा हो गई थी और उड़ानों को रोकना पड़ गया था।
भारत सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आनन फानन में बहुत सधे अंदाज़ में बयान जारी किए, पीएम ने सोमवार को प्रदर्शनकारियों की मौतों पर दुख जताया और शांति की अपील की, तो विदेश मंत्रालय ने एडवाइज़री जारी की।
जिस दिन प्रोटेस्ट शुरू हुआ उसी दिन नेटो कहे जाने वाले देशों- अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी और यूरोप के बाकी देश और संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार संगठन और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बयान जारी किए जिसमें ‘शॉकिंग’ या ‘आक्रोश’ जैसे शब्द थे और बांग्लादेश की तरह ही प्रदर्शनकारियों की मौतों की तुरंत पारदर्शी जांच कराए जाने की मांग की।
चीन ने कोई बड़ा बयान जारी नहीं किया है। ब्रिक्स गुट के देशों की ओर से कोई ख़ास प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आई है। यानी सभी इस आंदोलन और तख़्तापलट को समझने की कोशिश कर रहे हैं।
भारत सन्न है और यहां का सत्ताधारी वर्ग सकते में है। ऑप इंडिया, जोकि आरएसएस से जुड़ा उसका एक प्रमुख मीडिया संस्थान है, उसने इस आंदोलन में बाहरी देशों की साज़िश का आरोप लगाया है। उसे लग रहा है कि अगला नंबर भारत का हो सकता है।
ट्रंप चीन के ख़िलाफ़ जिस तेज़ी से युद्ध की तैयारी में लगे हैं, उसमें भारत की बहुत अहम भूमिका है, शायद यही वजह है कि कई महीनों से चली आ रही अपनी बयानबाज़ी में ट्रंप ने चीन के शक्ति प्रदर्शन के बाद नरमी दिखानी शुरू कर दी है। लेकिन एक बाद तो तय है कि भारत के लगभग सभी पड़ोसी देशों में अस्थिरता पैदा कर अमेरिका ने भारतीय सत्ताधारियों को डरा तो दिया ही है।
भारतीय सत्ताधारी वर्ग के लिए अभी मोदी सबसे महान हैं, जो अमेरिका से उसके लिए भारी मुनाफ़े का दरवाज़ा खोल सकते हैं और अमेरिका के साथ बराबरी का साझेदार बना सकते हैं, लेकिन उसे डर है कि भारत में भी अमेरिका अपनी चाल न चल दे, यही कारण है कि यहां विदेशी फंडिंग वाले एनजीओ, ख़ासकर यूरोपीय और अमेरिकी एनजीओ का फंड बंद कर दिया गया है।
भारतीय सत्ताधारी वर्ग बहुत फूंक फूंक कर कदम रख रहा है, ऐसा वह अपनी उस महत्वाकांक्षा के चलते कर रहा है जिसमें उसे इस सदी में ही महाशक्ति बनना है और यह संभव न भी हो तो दूसरे तीसरे नंबर पर पहुंचना है।
नेपाल में जेन ज़ी प्रोटेस्ट या कुछ और?
इसे जेन ज़ी यानी आधुनिक युग के युवाओं छात्रों का आंदोलन कहा जा रहा है। यह ऐसी पीढ़ी है जो 2020 के लाकडाउन के बाद होश में आई, यानी वयस्क कहलाने लायक हुई है।
इसके हाथ में किसी अन्य पीढ़ी के मुकाबसे सबसे अधिक स्मार्ट फ़ोन हैं, जिनपर अमेरिकी कंपनियों के बनाए सोशल मीडिया ऐप्स- फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, यूट्यूब, व्हाट्सऐप जैसे अनगिनत ऐप हैं और लाखों वेबसाइटें मौजूद हैं।
इस नई पीढ़ी को पूरी दुनिया में पाला पोसा है भ्रष्ट मुनाफ़ाख़ोर और साज़िश रचने वाली इन्हीं टेक कंपनियों ने और पूरी पीढ़ी को ज़ॉम्बी बना कर रख दिया है। एक लत की तरह स्मार्ट फ़ोन ने युवाओं के दिमाग को कचरे का डब्बा बना डाला है।
यह लत इतनी भारी हो चुकी है कि स्मार्टफ़ोन के लिए बच्चे अपने मां बाप की हत्या तक कर दे रहे हैं। असल में वह स्मार्टफ़ोन का आदी नहीं हुआ है बल्कि उसे अमेरिकी टेक कंपनियों की लत लग गई है।
इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि इन अमेरिकी टेक कंपनियों ने दुनिया के एक बड़े हिस्से के युवाओं को अपने ऐप और वेबसाइटों का मानसिक गुलाम बना दिया है। जॉम्बी बन चुकी इसी पीढ़ी के सहारे अमेरिका अब पूरी दुनिया में गैरज़रूरी बम बरसाए बिना ही किसी देश में विद्रोह करा सकता है, सत्ता बदल सकता है, तोड़ सकता है और यह सब कुछ अमेरिका के ‘रणनीतिक हित’ या ये कहें ‘राष्ट्रीय हित’ के अंतर्गत आता है।
अमेरिका का राष्ट्रीय हित ये है कि अगर कोई देश उसकी सैन्य दादागीरी की राह में बाधा बन रहा है, भले ही वो अमेरिका के लिए और कोई मुश्किल नहीं खड़ा कर रहा है, तो वह अमेरिका के लिए दुश्मन है।
इस तथाकथित अमेरिकी दादागीरी या ये कहें उसके राष्ट्रीय हित की रक्षा में सबसे आगे है गैंगस्टरनुमा अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए।
वरिष्ठ पत्रकार आनंदस्वरूप वर्मा ने एक इंटरव्यू में कहा कि जब नेपाल में माओवादी आंदोलन तेज़ी पर था तो उस समय अमेरिका के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा था कि यह अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के ख़िलाफ़ है।
वर्मा ने स्वीकार किया है कि पहले उन्हें लगा था कि यह जनता का आक्रोश है क्योंकि पिछले एक डेढ़ दशक में एक दर्जन के क़रीब प्रधानमंत्री आए और गए लेकिन जनता की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, उसकी उम्मीद और आकांक्षा वैसी ही बनी रही। जबकि भ्रष्टाचार चरम पर पहुंचता गया। लेकिन जब सरकारी इमारतों को आग के हवाले किया जाने लगा तब उन्हें लगा कि यह सिर्फ जनता का आक्रोश नहीं है कुछ और है।
नेपाल और सीआईए
जबसे नेपाल में माओवादियों का प्रभाव बढ़ा, वहां के सत्ताधारी वर्ग ने अमेरिका से करीबी बढ़ाई। यही कारण रहा कि देश के अधिकांश हिस्से में अपनी पैठ बनाने के बावजूद माओवादी कभी काठमांडू पूरी तरह अपना नहीं बना पाए। यह देश भर के राजशाही समर्थकों, सत्ताधारी वर्ग के लोगों, आंदोलन विरोधियों, प्रतिक्रियावादियों का गढ़ बना रहा। सीआईए ने इस प्रतिक्रियावादी वर्ग को सालों से पाला पोसा है, उनके अंदर पैठ बनाई है।
जिस तरह हर देश के लिए सीआईए की अपनी अलग शाखा है या स्लीपिंग सेल है, नेपाल में भी है। सीआईए की वेबसाइट पर जाएंगे तो वहां उसका मोटो वाक्य लिखा हुआ है- “हमारा मिशन साफ़ लेकिन महत्वपूर्ण है: अपने राष्ट्र को सुरक्षित रखने के लिए सूचना की ताक़त का भरपूर लाभ उठाना.”
और बताया गया है कि उसके चिह्न का क्या मतलब है- ‘सीआईए की मुहर पर कई प्रतीक अंकित हैं: सतर्कता के लिए एक चील, रक्षा के लिए एक ढाल और वैश्विक खुफिया जानकारी एकत्र करने के लिए एक कंपास।’
और फिर सीआईए नेपाल चैप्टर में एक से एक बारीक़ चीज़ें वहां दर्ज हैं, कितनी जनसंख्या है, क्या संसाधन हैं, कितनी जातियां और जनजातियां हैं, जन्मदर मृत्युदर कितनी है। यहां तक कि यहां सबसे अधिक किस आपदा का ख़तरा है। कितनी पार्टियां हैं, उनका क्या इतिहास है। कौन से रोग हैं, अस्पताल, शिक्षा और अन्य नगारिक सुविधाओं की जानकारियां।
ये वो जानकारियां हैं जो सार्वजनिक हैं, अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वे धरातल पर और क्या जानकारी इकट्ठा कर रहे होंगे, किस पार्टी के कितने समर्थक हैं, किस दल का भामाशाह कौन है, पर्दे के पीछे कौन रणनीति तय करता है…भू राजनीति में किस पार्टी के क्या विचार हैं।
वरिष्ठ पत्रकार आनंदस्वरूप वर्मा ने उसी साक्षात्कार में कहा है कि, “पिछले दस सालों में अमेरिकी सेना की नेपाली सेना में जितनी पैठ बढ़ी, वह अभूतपूर्व है।”
दूसरी तरफ़, सीआईए ने यहां यूएसएड और पीस कॉर्प्स के भाड़े के जासूसों और सैकड़ों विदेश एनजीओ का एक जाल बना चुका है, जिस पर बात फिर कभी।
नेपाल में अमेरिका का ख़ुफ़िया ऑपरेशन
सोशल मीडिया पर लोग आशंका जता रहे हैं कि चीन से क़रीबी के कारण सीआईए ने केपी ओली के ख़िलाफ़ एक ऑपरेशन चला रखा था, बारबरा फाउंडेशन के ज़रिए, जो सीआईए के पैसे से नेपाल में बहुत समय से चल रहा है।
एक एक्स यूज़र ने कहा है कि तथाकथित जेन ज़ी प्रोटेस्ट को इसी बारबरा फाउंडेशन के काठमांडू आफ़िस से चलाया जा रहा है।
इस यूज़र के मुताबिक़, बारबरा एडम्स एक अमेरिकी महिला थी जो नेपाल में आकर यहीं रहने लगी, ये कहते हुए कि इस हिमालयी देश से उसे प्यार हो गया है। वहां ‘हामी नेपाल’ नाम का एक एनजीओ बना, जिसके पीछे बारबरा एडम्स का हाथ था।
एक अन्य एक्स यूज़र ने लिखा है कि बारबरा की मौत 2016 में नेपाल में हो गई लेकिन वह अपने पीछे नेपाल में सीआईए का एक लंबा चौड़ा जाल छोड़ गई थी।
आज जिस जेन ज़ी प्रोटेस्ट का वॉर रूम ‘हामी नेपाल’ एनजीओ, का कार्यालय बना हुआ है उसका सीईओ है सुडान गुरुंग। और प्रोटेस्ट का दूसरा चेहरा है काठमांडू का मेयर बालेन शाह, जो रैपर हुआ करता था। अगले प्रधानमंत्री की दौड़ में अभी से इन दोनों का नाम आगे किया जा रहा है…कौन आगे कर रहा है, इस पर आगे स्पष्ट हो जाएगा।
एक एक्स यूज़र ने बारबरा एडम्स के साथ काम करने वाले एक अन्य अमेरिकी के बारे में लिखा कि उसने खुद स्वीकार किया था कि वह अमेरिका के पीस कॉर्प्स में काम करता था, जोकि सीआईए का एक छद्म गोपनीय संगठन है और इसका काम दूसरे देशों में जासूसी करना, वहां सरकार के ख़िलाफ़ साज़िश रचने वालों के साथ साठ गांठ करना है।
पीस कॉर्प्स में आम तौर पर भाड़े के अमेरिकी लोगों को भर्ती कर दूसरे देशों में भेजा जाता है, जिसमें जासूसी करना, गोपनीय तोड़फोड़ को अंजाम देना, सरकार गिराना, सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोहियों को हथियार देना और ख़ुफिया जानकारी मुहैया कराना रहा है। इसे द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने मित्र देशों के पक्ष में और हिटलर के नाज़ियों और जापानी फासीवादियों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया था।
लेकिन उसके बाद सीआईए का दूसरा सबसे बड़ा संगठन रहा है यूएसएड, जिसे अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ओर से सीधे फ़ंड मिलता है और उसने ही 2014 में यूक्रेन में लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार के ख़िलाफ़ तख़्तापलट को अंजाम दिया था, इसे मैदान कू या मैदान तख़्तापलट कहते हैं और आज रूस और यूक्रेन के बीच जो जंग चल रही है, उसके पीछे यही मूल कारण है। यह सीधे तौर पर यूक्रेन में अमेरिकी दख़ल थी जिसे रूस कभी पचा नहीं पाया।
आज नेपाल में प्रधानमंत्री पद के लिए जिन दो नामों पर जबरदस्ती की चर्चा कराई जा रही है, वे दोनों सीआईए के कठपुतली साबित होंगे, ऐसा लोग कह रहे हैं। और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की जैसा ही हूबहू कुछ यहां दिखने वाला है, जो टीवी पर जोकर की भूमिका अदा कर यूक्रेन में लोकप्रिय हो गए थे।
पिछले कुछ महीनों से नेपाल में राजशाही समर्थक सड़कों पर थे और राजशाही को फिर से स्थापित किए जाने की मांग कर रहे थे। एक लोकतांत्रिक देश में राजशाही को फिर से स्थापित किए जाने का आंदोलन पूरी तरह अंदरूनी जनता का आंदोलन नहीं कहा जा सकता।
चीन को घेरने की कोशिश और नेपाल
एक अमेरिकी प्रोफ़ेसर रिचर्ड वोल्फ़ का कहना है कि पूंजीवाद ऐसे संकट में फंस गया है जहां उसने अपने में सुधार नहीं किया तो वह जल्द ही भारी संकट में घिर सकता है।
पूंजीवाद और पश्चिमी लोकतंत्र का प्रतीक अमेरिका है जहां नस्लवाद, पूंजीवादी उत्पीड़न, दूसरे देशों में युद्ध भड़काने, हथियार उद्योग के सहारे दुनिया पर दबदबा बनाए रखने, टेक कंपनियों के मार्फ़त पूरी दुनिया ख़ासकर अपने सहयोगी देशों को अपना गुलाम समझने, फ़लस्तीन में नरसंहार को सिर्फ शह नहीं देने बल्कि खून पिपासू नेतन्याहू को बेरोकटोक हथियार और बम मुहैया कराने को लेकर भारी असंतोष है।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था अपने सबसे बुरे दौर में हैं जिसपर उसकी जीडीपी से ज़्यादा कर्ज़ है, क़रीब 35 ट्रिलियन डॉलर और उसे अपनी जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा कर्ज का ब्याज चुकाने में जाता है। उत्पादन को तीसरी दुनिया के देशों में शिफ़्ट कर देने से वहां बेरोज़गारी बड़े पैमाने पर है, बेघरों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हो रही है।
इसीलिए तो डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को फिर से महान बनाने की कसमें खा रहे हैं, लेकिन साथ ही साथ अमेरिका के लिए कोई एशियाई महाशक्ति चुनौती दे ये भी स्वीकार्य नहीं है। ट्रंप प्रशासन के एक आला अधिकारी ने तो हाल ही में चीन पर किसानी पृष्ठभूमि की फब्ती कसी थी। भारत भी तेज़ी से दुनिया की अर्थव्यवस्था में उभर रहा है। अमेरिकी दादागीरी के लिए यह बर्दाश्त के बाहर है।
ताईवान के बहाने अमेरिका चीन से युद्ध करना चाहता है और युद्ध क्यों करना चाहता है क्योंकि अगर चीन युद्ध में फंसा तो उसका आर्थिक विकास बाधित होगा। ट्रंप कई बार कह चुके हैं कि चीन को आगे नहीं निकलने देंगे।
लेकिन हकीकत है कि चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति है और जीडीपी के मामले में सिर्फ अमेरिका ही उससे आगे है।
कुछ अमेरिकी विद्वानों जैसे प्रोफ़ेसर जैफ़्री सैक्स का मानना है और 2025 के आंकड़ों में भी दिखता है कि पर्चेज़ पॉवर पैरिटी यानी पीपीपी इंडेक्स के लिहाज से चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिका से कहीं आगे है। इस हिसाब से चीन की जीडीपी तकरीबन 40 ट्रिलियन डॉलर है, जबकि अमेरिका की जीडीपी 30 ट्रिलियन डॉलर है।
चीन ये समझता है और उसे अभी कहीं और उलझना नहीं है। उसे और समय चाहिए, लेकिन अमेरिका के पास समय नहीं है। इसलिए चीन को किसी न किसी बहाने वह युद्ध में घसीटना चाहता है। रूस यूक्रेन जंग में चीन भी एक फैक्टर है।
चीन पर हमले के लिए दक्षिण एशिया में अमेरिका अपनी कठपुतली सरकारें चाहता है। नेपाल चीन से सटा हुआ है और वह रणनीतिक स्तर पर अमेरिका के लिए सबसे अहम है। वहां सत्ता में कठपुतली सरकार बिठाने का मतलब है चीन के ठीक पिछवाड़े वह अपने बॉम्बर उतार सकता है, भारत पहले ही हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन को घेरने की अमेरिकी रणनीति में शामिल हो चुका है।
कुछ महीने पहले ही मोदी सरकार ने कहा था कि अमेरिका ने पूछा था कि अगर चीन के साथ अमेरिका का युद्ध हो जाए तो भारत क्या क्या मदद दे सकता है, तो भारत ने उन सारे सैन्य हवाई अड्डों, नेवी बेस, बंदरगाहों, और अन्य रसद पहुंचाने के लॉजिस्टिक्स का पूरा ब्योरा भेजा था।
कुछ विद्वानों का कहना् है कि अगला तीसरा विश्वयुद्ध इस दशक के अंत में छिड़ सकता है। ब्रिटेन की एक ख्यात यूनिवर्सिटी के एक स्कॉलर ने आशंका ज़ाहिर की थी कि तीसरा विश्वयुद्ध पहले से छिड़ चुका है, दरअसल यह चल रहा है यूक्रेन में, फ़लस्तीन में, ईरान में, अफ़्रीका में, लातिन अमेरिका में, हिंद प्रशांत क्षेत्र में, ताईवान में।
और अलास्का में अमेरिकी राष्ट्रपित डोनाल्ड ट्रंप और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मुलाक़ात, द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले हिटलर और स्टालिन के बीच हुई संधि की याद दिलाता है, जिसमें हिटलर ने आगे न बढ़ने का वादा किया था।
एक युद्ध आने वाला है, सदिच्छा यही है कि ये भविष्यवाणियां ग़लत साबित हों, लेकिन अगर ऐसा होता है तो दुनिया की मेहनतकश जनता के लिए बहुत कष्टकारी साबित होगा।
(सभी तस्वीरें सोशल मीडिया से ली गई हैं। इस लेख के लेखक जाने माने पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं।)
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