नेपाल दक्षिण एशिया में अमेरिका का ऐसे बना चौथा शिकार

नेपाल दक्षिण एशिया में अमेरिका का ऐसे बना चौथा शिकार

By विजय चावला

बीते 15 सालों से देश में सुधार का इंतजार करते करते आखिर नेपाल के नौजवानों ने मौका मिलते ही विद्रोह का झंडा उठा लिया।

सरकार द्वारा विभिन्न इंटरनेट कंपनियों को यह बार बार कहने के बावजूद, जब इन कंपनियों ने अपने स्थानीय कार्यालय नेपाल में स्थापित करने की ओर कोई कदम नहीं बढ़ाया , तो सरकार ने 26 कंपनियों पर अदालत के आदेश पर प्रतिबंध लगा दिया और उन्हें बंद करने का आदेश दे दिया।

नेपाल की अर्थव्यवस्था में सर्विस सेक्टर की बहुत अहमियत है। यहाँ लगभग सभी कामों के लिए इंटरनेट बहुत ज़रूरी है। पहाड़ी देश होने के कारण आपसी संवाद भी इसके द्वारा ही अधिक होता है।

यह इतना ज़रूरी है की जब यहाँ 1996 से 2008 तक माओवादी विद्रोह चल रहा था और मुक्ति संघर्ष चल रहा था, तब भी सभी पक्ष इसी फ़ोन के ज़रिए ही अपने संचालन कर रहे थे, यह जानते हुए भी कि उनकी बातें सुनी जा सकती हैं।

बहरहाल प्रतिबंध लगने के बाद काठमांडू और अन्य शहरों में नौजवानों के गुटों ने विरोध प्रदर्शन करने शुरू कर दिए। यह बिल्कुल स्वतःस्फूर्त था। ये सभी प्रदर्शन शांतिपूर्ण थे।

कहीं भी कोइ हिंसा की बात नहीं थी, लेकिन दोपहर बाद इन प्रदर्शनकारियों पर फ़ायरिंग की गई, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी।

जानकारों का कहना है कि यह गोलीबारी जानबूझ कर की गई ताकि आंदोलन तेजी से भड़के। इसमें 19 लोगों की मौत हो गई फिर वही हुआ।

गोलीबारी के बाद से आंदोलन उग्र हो गया। अभूतपूर्व हिंसा हुई। संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट समेत कई सरकारी कार्यालय में आग लगा दी गई।

प्रधानमंत्री केपी ओली और अन्य मंत्रियों के घरों को आग के हवाले कर दिया गया। ओली ने इस्तीफा दे दिया, उनके गृह मंत्री ने भी इस्तीफा दे दिया।

अन्य नेताओं के घरों को भी आग के हवाले कर दिया गया। चार पूर्व प्रधानमंत्रियों के घरों पर हमला किया गया, कइयों को मारा गया , मंत्री लोग सड़कों पर भागते नज़र आए।

नौजवानों के ग्रुप जिसे जेन ज़ी का  नाम दिया गया है, इसमें कई प्रकार के नौजवान एक्टिविस्ट हैं, जिसमें किसी पार्टी खास के हों ऐसा नहीं ही है।

जल्दी ही फ़ौज ने आकर सत्ता संभाल ली और पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को नया अंतरिम कार्यकारी प्रधानमंत्री नियुक्त किया।

यह फ़ैसला राष्ट्रपति पौडेल, नौजवानों के दो लोकप्रिय नेताओं और फ़ौज के मुखिया ने लिया है। इसके पहले नौजवानों ने अपनी सुशीला कार्की के पक्ष में अपनी राय बना ली थी। संसद को भंग कर दिया गया है।

अब इस घटना के पीछे क्या है इसको जानना ज़रूरी है।

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सुशीला कार्की का नाम युवा आंदोलनकारियों की ओर से प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किया गया, उसे फ़ौज ने मान लिया।

घटना के पीछे के कारण

साल 1996 से 2008 तक नेपाल के क्रांतिकारी आंदोलन के बाद जो सरकारें बनीं उन्होंने अपने किए वायदों को पूरा नहीं किया। उनका ज़्यादातर समय राजनीतिक दांवपेच में ही गुजरा। जनता ठगी सी देखती रही।

नतीजा यह हुआ कि जनता का देश से पलायन जारी रहा और लोग बाहर नौकरियां पाने के लिए पहले की तरह ही जाते रहे। दूसरे, अमेरिका ने नेपाल में अपनी दख़लंदाज़ी बढ़ा दी।

अमेरिका नेपाल में कभी माओवादी शासन या गणराज्य नहीं चाहता था। उसकी पहली पसंद राजशाही थी क्रांतिकारी आंदोलनों के बाद भी वह सफल नहीं हो सका।

इसके बाद अमेरिका ने नई नीति के तहत नेपाल की फ़ौज पर अपना प्रभाव डालना शुरू किया और आज फ़ौज अमेरिका के पक्ष में है।

इसी प्रकार उसने तमाम ईसाई एनजीओ (गैर सरकारी संगठनों) को नेपाल में छोड़ दिया है, जो बड़ी तेज़ी से धर्म परिवर्तन के काम में लगे हुए हैं और काफ़ी धन खर्च भी कर रहे हैं।

इसके अलावा कुछ ऐसे नेता भी उभर कर आए हैं जो अमेरिका के बहुत क़रीब हैं और इस समय इस आंदोलन के प्रेरणा स्रोत माने जाते हैं।

इनमें एक है सूडान गुरुंग। वे पहले होटल चलाते थे, रैपर थे, लेकिन साल 2015 के भूकंप ने उनका जीवन बदल दिया और वे पीड़ितों की सहायता में लग गए, तमाम स्वयं सेवक इकट्ठा किए और लोगों को सहायता पहुंचाई।

इसका नतीजा ‘हामी नेपाल’ नामक एनजीओ के रूप में सामने आया। जब सरकार ने सोशल मीडिया को बंद कर दिया तो गुरुंग ने यह अपील जारी की थी कि “भाइयों और बहनों, 8 सितंबर कोई सामान्य दिन नहीं है, यह वह दिन है जब हम नेपाल के नौजवान खड़े हो जाएं और कहें कि ‘अब पूज्यों’ (बहुत हो गया)। बहुत समय से भ्रष्टाचार हमारा भविष्य नष्ट कर रहा है, लेकिन आज हम कहेंगे अब और नहीं।”

विरोध के दौरान, खुद पर्दे के पीछे रहते हुए आंदोलनकारियों की सुरक्षा, छिपने के स्थान आदि की व्यवस्था करते हुए छात्रों से अपील की कि वे अपनी स्कूल की ड्रेस और किताबों को हाथ में लेकर मार्च करें।

एक अन्य नेता जो उभर कर सामने आए है वे हैं बालेन शाह। ये काठमांडू के मेयर हैं, इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर रखी है। वे एक समय में राजधानी के पोशीदा रैप नृत्य के नेटवर्क का प्रमुख नाम थे।

साल 2010 में खुलकर भ्रष्टाचार और असमानता के ख़िलाफ़ प्रचार किया और साल 2022 में इन्होंने काठमांडू के नगर प्रमुख का चुनाव जीतकर सबको हैरान कर दिया।

वर्तमान आंदोलन में वे छात्रों के साथ प्रदर्शन में तो नहीं गए लेकिन खुलकर उनके आंदोलन करने के अधिकार का समर्थन किया। विद्रोह के दौरान बार बार यह अपील की गई कि “अभी नहीं तो कभी नहीं” और वे आकर सत्ता संभालें।

यह दोनों और अन्य प्रमुख नाम जो उभर कर सामने आए वे पूरे तौर पर अमेरिका के क़रीबी तत्व हैं। किसी पार्टी के नहीं हैं। ये निर्दलीय तत्व इस समय सबसे प्रभावशाली भूमिका निभा रहे हैं।

अमेरिका इस पूरे क्षेत्र को अपने अधीन लाना चाहता है। वह यहाँ चीन के बढ़ते प्रभाव को घटाना चाहता है। इसलिए इस आंदोलन का लाभ उठाकर उसने इस विद्रोह को पूरा समर्थन देने का निर्णय लिया।

अमेरीकी परस्त सभी तत्व इस आंदोलन के साथ खड़े हो गए हैं और उनकी अगुआई में ही, नेपाल में पूर्व सत्ता के जितने भी अंग थे सभी पर हमला किया गया।

संसद और सुप्रीम कोर्ट पर हमला क्यों हुआ?

भ्रष्ट नेताओं के घरों पर हमला समझ में आता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट पर हमला क्यों? ये हमले इन बात को बताते हैं कि अलग अलग प्रकार के तत्व इसमें शामिल हैं।

हमले के अति उग्र होने के बाद फ़ौज ने मंत्रियों को वहाँ से निकालने का काम किया, बजाय विरोध प्रदर्शनों को रोकने का। उसके बाद प्रधानमंत्री ओली का इस्तीफ़ा हो जाता है और फ़ौज सत्ता संभाल लेती है।

आज हालत यह है कि सभी संस्थानों पर अमेरिका का प्रभाव है और ये अमेरिकी परस्त तत्वों के नियंत्रण में है।

भारत की नीति केवल राजशाही हो इसके पक्ष में नहीं रही है। बल्कि वह इस सोच का रहा है की संसदीय लोकतंत्र और संवैधानिक राजशाही दोनों साथ साथ होनी चाहिए जैसा ब्रिटन में है।

वैसे तो जानकारों का यह कहना है कि भारत के बिना अमेरिका वहाँ कुछ नहीं कर सकता है, लेकिन यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान संकट के समय भारत और अमेरिका का कैसा तालमेल है?

भविष्य की क्या योजना है यह सब साफ़ होना बाकी है, लेकिन हाल फिलहाल घटनाक्रम में ये स्थायित्व नहीं आया है।

राजशाही की वापसी की मांग भी कुछ समय से जोर पकड़ती जा रही है। कुछ माह पूर्व काठमांडू में एक जबरदस्त प्रदर्शन हो चुका है। इस पार्टी के लोग भी इस आंदोलन में शामिल हैं।

अखबारों की रिपोर्टों के अनुसार, इसमें उग्र वामपंथी भी शायद शामिल हैं। अभी नेपाल की स्थिति साफ़ नहीं है। किसी भी समय कोइ भी परिवर्तन हो सकता है।

लेकिन एक बात बहुत साफ़ है वह यह कि यह कोई नौजवानों की मांगों को लेकर आंदोलन नहीं है, हालांकि वो भी इसका एक हिस्सा हो सकता है, यह प्रधान रूप से “सत्ता परिवर्तन” है।

इसका मक़सद वर्तमान शासन को ख़त्म करना है और उसकी जगह अमेरिका की कठपुतली शासन को लाना है। प्रधानमंत्री ओली चीन के बहुत नजदीक थे।

वे हाल में चीन की लंबी यात्रा कर के लौटे थे और वह भारत आठ तारीख़ को आने वाले थे। भारत भी उनसे सम्बंध बेहतर करने की फिराक में था, लेकिन यह सब होने से पहले ही काठमांडू में सत्ता परिवर्तन का आंदोलन शुरू हो गया और वह सफल भी हो गया।

उसका वैकल्पिक ढांचा क्या हो, इसी का हल होना बाकी है।

नेपाल चौथा शिकार

नेपाल चौथा देश है जहां पर सत्ता परिवर्तन को सफलतापूर्वक अंजाम दिया गया। इससे पहले यह पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश में हो चुका है।

पाकिस्तान में इमरान ख़ान के प्रधानमंत्रित्व के समय अमेरिका पाकिस्तान में फ़ौजी अड्डे चाहता था, जिसका इमरान ख़ान ने जवाब दिया, “बिल्कुल नहीं।”

नतीजा हम सब के सामने है। आज इमरान ख़ान क़ैदखाने में हैं और संसद में उनकी पार्टी का बहुमत होने के बावजूद वह सरकार नहीं बना पा रहे हैं और पार्टी अपने नाम से काम नहीं कर पा रही है।

इमरान ख़ान के उत्तराधिकारी जनरल मुनीर को गत कुछ ही महीनों में दो बार अमेरिकी राष्ट्रपति ने व्हाइट हाउस बुलाया जिससे उनकी की नजदीकियाँ साफ़ ज़ाहिर होती हैं।

कुछ इसी प्रकार बांग्लादेश में भी शेख़ हसीना ने अमेरिका को सैन्ट मार्टिन द्वीप देने से इनकार कर दिया था जहां अमेरिका अपना अड्डा बनाना चाहता है। नतीजा वही हुआ है अचानक ही एक बड़ा जन आंदोलन शुरू हो गया जिसका शुरू में घोषित मुद्दा था- 1971 के जन मुक्ति के आंदोलन से प्रभावित लोगों को आरक्षण न दिया जाए।

वास्तविकता यह थी की हसीना सरकार इसे पहले ही ख़त्म कर चुकी थी और हाईकोर्ट के आदेश पर ही इसे फिर से लागू करना पड़ा था।

ठीक ऐसा ही काठमांडू में भी हुआ,जहां कोर्ट के आदेश पर ही सोशल मीडिया को बंद किया गया था।

हसीना सरकार के समय भी आंदोलन फूटने पर भयंकर दमन किया गया जिसने जनता का गुस्सा भड़का दिया।और ढाका में अभूतपूर्व हिंसा देखने में आई।

ठीक समय पर फ़ौज ने शेख़ हसीना को उनके निवास से निकाल कर भारत भेज दिया जिससे इनकी जान बच गई और बांग्लादेश में अमेरिका के चाकर यूनुस को सलाहकार बना दिया गया और उसके नीचे कई मंत्री जैसे लोगों को नियुक्त कर दिया गया है।

नेपाल और बांग्लादेश दोनों में “सत्ता परिवर्तन” का तरीक़ा मिलता जुलता है।

ठीक ऐसा ही श्रीलंका में किया गया था, जहां राष्ट्रपति को भागना पड़ा था और बाद में नए चुनाव कराए गए थे।

कुल मिलाकर समूचे दक्षिणी एशिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने अपना वर्चस्व स्थापित करने और चीन के प्रभाव को समाप्त करने और कहीं कहीं भारत पर दबाव रखने के लिए, नंगा साम्राज्यवादी तौर तरीक़े अपना लिए हैं।

इसकी तैयारी लंबे समय से की जा रही है। एनजीओ नाम के उपकरण लंबे समय से पाले पोसे जा रहे हैं। इनमें काम करने वाले लोग हमेशा उन विदेशियों के आदेश पर काम करते हैं जिनसे उन्हें पैसे मिलते हैं।

ये विदेशी संगठन इनको लंबे समय से पाल पोस रहे हैं और अब उनका इस्तेमाल सत्ता बदल के लिए बड़े प्रभावी तौर पर किया जा रहा है

इस समय ईसाई एनजीओ बड़ी तेजी से सक्रिय हैं और बेहद पैसा खर्च किया जा रहा है, धर्म परिवर्तन के लिए और ऐसी संख्या तैयार करने के लिए जो सत्ता बदल के कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले सकें।

(समाप्त )
(इसे लिखने में वरिष्ठ पत्रकार आनंदस्वरूप वर्मा के लेख और इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टों से मदद ली गई है।)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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