अमेरिका में हुंडई के प्लांट में 475 वर्करों पर गैंगस्टरों की तरह कार्रवाई, बूढ़ा अमेरिका ने संतई का नकाब उतार फेंका

अमेरिका के जॉर्जिया राज्य में स्थित दुनिया की अग्रणी दक्षिण कोरियाई कार निर्माता कंपनी हुंडई के प्लांट पर ट्रंप की पुलिस और सेना ने धावा बोला।
यह धावा कोई आम छापा नहीं था, इसमें दक्षिण कोरियाई वर्करों को धमकाने, डराने, उन्हें अमेरिका से घसीट कर बाहर किए जाने की ज़बरदस्ती शामिल थी।
अमेरिकी इमिग्रेशन और कस्टम्स एन्फ़ोर्समेंट (आईसीई) के अधिकारियं ने बीते गुरुवार यानी चार सितम्बर को हुंडई के प्लांट से 475 वर्करों को गिरफ़्तार किया।
इनमें से 300 के क़रीब दक्षिण कोरियाई वर्कर थे, जबकि अन्य देशों के नागरिक थे।
ट्रंप के अधिकारियों का कहना है कि इनमें ज़्यादातर दक्षिण कोरिया के नागरिक थे, जो ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से काम कर रहे थे और वर्करों ने अपने विज़िटर वीज़ा की शर्तों का उल्लंघन किया था।
यह सब तब हो रहा है जब जिस टैरिफ़ के सहारे व्यापार युद्ध का डर दिखाकर डोनाल्ड ट्रंप दुनिया के सभी देशों, ख़ासकर अपने सहयोगी देशों पर टैरिफ़ लगा रहे हैं और उनसे अकल्पनीय धन अपने देश में लगाने का वादा ले रहे हैं, उसमें दक्षिण कोरिया भी एक है।
और ताज्जुब की बात है कि दक्षिण कोरिया के साथ हाल ही में ट्रंप ने व्यापार समझौता करने का दावा किया था और दक्षिण कोरियाई कंपनियों से दबाव डालकर आने वाले सालों में अरबों डॉलर के निवेश का वादा ले चुके हैं, उसी देश और उन्हीं कंपनियों में से एक पर उन्होंने दंडात्मक कार्रवाई की है।
इस बीच दक्षिण कोरिया ने जॉर्जिया में अपने राजनयिक भेजे हैं और अपने नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करने की अपील की है।
बीबीसी ने एक वर्कर से उस समय की घटना के बारे में बात की। उस वर्कर ने बताया कि जब होमलैंड सिक्युरिटी गार्ड का हमला हुआ तो ऐसा लगा कि कोई सेना ने किसी इलाक़े पर कब्ज़ा करने के लिए हमला बोला है। कई वर्कर प्लांट में छुपने के लिए इधर उधर दौड़ रहे थे। कुछ वर्करों ने तो एसी के शाफ़्ट में छुपने की कोशिश की।
कोरियाई कंपनियों का चरित्र
दक्षिण कोरिया की सरकार ने कहा है कि अमेरिका के साथ उनकी सहमति बन गई है जिसके बाद गिरफ़्तार किए गए उसके नागरिकों को रिहा किया जाएगा।
दिलचस्प बात है कि कोरियाई सरकार और हुंडई ने उन 175 वर्करों को यूं ही जबरिया निर्वासित होने के लिए फासीवादी ट्रंप के हवाले छोड़ दिया है। हुंडई कंपनी साफ़ मुकर गई है कि गिरफ़्तार किए गए वर्कर उसके प्लांट में सीधे तौर पर नौकरी करते थे। यानी वे कांट्रैक्ट वर्कर थे।
दक्षिण कोरियाई कंपनियां वर्करों पर जुल्म करने के लिए कुख्यात रही हैं, चाहे वो अमेरिका में हो या भारत में। अभी पिछले कुछ सालों से भारत के चेन्नई प्लांट में वर्करों के साथ जबरदस्ती काम लेने, काम के घंटे अधिक रखने, कम तनख्वाह देने, मैनेजमेंट की धौंसपट्टी के ख़िलाफ़ मज़दूरों का विरोध प्रदर्शन हुआ।
इस कुख्यात कंपनी का तरीक़ा रहा है जहां काम करती है वहां की सरकार के साथ साठगांठ कर मज़दूर आंदोलन को दबा देना, आवाज़ उठाने वाले वर्करों की छंटनी कर देना। चेन्नई प्लांट में भी यही हुआ है।
और गिरफ़्तार किए गए दक्षिण कोरियाई नागरिकों को उनकी सरकार विशेष चार्टर्ड विमान भेजकर वापस बुलाएगी, यानी वे रिहाई के बाद भी उस प्लांट में काम नहीं कर पाएंगे। बस इतनी इज़्ज़त बची है रही कि इन 300 दक्षिण कोरियाई वर्करों को हाथ पैर में हथकड़ी बेड़ी पहनाकर अमेरिकी सेना के विमान से नहीं भेजा गया, जैसा भारतीयों के साथ पिछले दिनों हुआ।
ऊपर से ट्रंप की सीनाजोरी ये थी कि इस गिरफ़्तारी और दक्षिण कोरिया में कूटनीतिक भूचाल आने के बाद भी उन्होंने खम ठोंककर कहा कि, “वे लोग अवैध प्रवासी थे और आईसीई तो बस अपना काम कर रहा था।”
दक्षिण कोरिया और अमेरिका के बीच के रिश्ते- 80 साल पुराने
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से 80 सालों की अमेरिकी दादागीरी को चीन की भारी चुनौती मिल रही है। अमेरिका के कई विद्वान जिनमें जैफ़्री सैक्स का नाम उल्लेखनीय है, उनके मुताबिक़ अमेरिकी साम्राज्य बूढ़ा हो गया है और उसकी दादागीरी के दिन लद गए हैं।
1980-90 के दशक में अमेरिकी सेना की मिलिट्री इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स द्वारा ईजाद की गई जादुई चीज़ इंटरनेट और उससे जुड़ी गूगल, माइक्रोसाफ़्ट, एप्पल, ट्विटर, फ़ेसबुक, व्हाट्सऐप जैसी विशालकार टेक कंपनियां अब उससे आगे अमेरिका में कोई नई खोज नहीं है।
अभी तक अमेरिका तीन चीज़ों से दुनिया पर दबदबा बनाए हुए था- पहला पूरी दुनिया में अत्याधुनिक मिलिटरी, डॉलर को दुनिया की एकमात्र रिज़र्व मुद्रा बनाकर और अपने औद्योगिक उत्पादन के दम पर। लेकिन इन तीनों क्षेत्रों में उसकी ताक़त छीज रही है।
उसकी मिलिटरी ताक़त को रूस, ईरान, चीन, उत्तरी कोरिया, ब्राज़ील से तगड़ी टक्कर मिल रही है। उसे अफ़्रीका और पश्चिम एशिया में अपने कई सैन्य बेस खाली करने पड़े हैं।
ब्रिक्स के उभार और सदस्य देशों का डॉलर पर निर्भरता कम करने के कारण डॉलर का प्रभुत्व धीरे धीरे घट रहा है।
और तीसरी ताक़त औद्योगिक उत्पादन- बीते तीन दशकों में अमेरिका के कर्ज लेकर घी पीने वाले अमेरिकी मध्य वर्ग ने खुद ही ख़त्म कर दिया। इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि अमेरिका इस समय दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है, जहां हर देश अपना माल बेचता है और बेचना चाहता है।
उसकी नेवी की ताक़त उसका अकल्पनीय औद्योगिक उत्पादन था लेकिन हालत ये हो गई है कि उसकी नेवी में कई युद्धपोत इतने पुराने हो गए हैं कि अगर किसी युद्ध में अमेरिका फंस जाए तो उसके पास नए
युद्धपोत बनाने की क्षमता ही नहीं है। उत्पादन में इतना आगे है कि वह दुनिया का आधे से अधिक पानी के जहाज खुद बनाता है।
ऐसी स्थिति में अमेरिकी सत्ताधारी वर्ग अपनी बची हुई ताक़त के दम पर अपनी दादागीरी के पुराने दिन फिर से लौटाना चाहता है। लेकिन इतिहास का पहिया कभी पीछे नहीं जाता है।
दक्षिण कोरिया के साथ अमेरिका का इतिहास दादागीरी, साज़िश, उकसावे और सैन्य हस्तक्षेप वाला रहा है। यह 1950 में शुरु हुए तीन साल तक चले कोरियाई युद्ध से शुरू होता है, जब अमेरिका दक्षिण कोरिया का रक्षक बनकर जंग में कूद पड़ा।
इसके बाद दक्षिण कोरिया, पूर्वी एशिया में अमेरिका की चौधराहट की अग्रिम चौकी बन गया और आजतक बना हुआ है। अमेरिकी साम्राज्यवादी लूट का उसे भी फायदा पहुंचा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के ख़त्म होने से पहले कोरिया जापान के कब्जे में था लेकिन विश्वयुद्ध के अंत में आते आते कोरिया आज़ाद हुआ तो उत्तर कोरिया में कम्युनिस्टों ने मिलकर उसे साम्यवादी देश घोषित कर दिया जबकि दक्षिण कोरिया में कम्युनिस्ट विरोधी नेतृत्व पनपा। लड़ाई की यही वजह रही।
इतिहास में दर्ज है कि इन 80 सालों में अमेरिका ने दुनिया के अलग अलग देशों पर बम बरसाये, उत्तर कोरिया और वियतनाम उनमें से चंद ऐसे उदाहरण हैं जब सोवियत संघ भी महाशक्ति हुआ करता था।
सोविय संघ के टूटने के बाद 1990 के बाद से अमेरिका ने अनगिनत देशों पर बम बरसा कर उन्हें खंडहर कर दिया, ख़ासकर अरब की खाड़ी के देशों में इराक़, लीबिया और अफ़ग़ानिस्तान इसकी नज़ीर हैं।
भारत में भी अमेरिका ने कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ जवाहर लाल नेहरू सरकार के साथ मिलकर साज़िश रची और कत्लेआम कराया।
प्रवीन स्वामी का एक ताज़ा लेख द प्रिंट में छपा है जिसमें वो बताते हैं कि अमेरिकी के साथ तनातनी वाले रिश्ते के बावजूद यहां का ख़ुफ़िया विभाग अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए और एफ़बीआई से मिलकर कम्युनिस्ट आंदोलन और कम्युनिस्ट सरकारों के ख़ात्मे के लिए छिप कर बहुत बड़ी साज़िश को अंजाम दिया था।
अब अमेरिका संकट में है और वह उस सांप की तरह बर्ताव कर रहा है जो अपने बच्चों को ही खा जाता है, जिसे उसने जन्म दिया था। अमेरिका अपने पालतू देशों का खून पीकर ही अपनी बुढ़ापे के शरीर में ऊर्जा भरना चाहता है। लेकिन नया खून चढ़ाने से जैसे बूढ़ा जवान नहीं हो जाता, अमेरिकी दादागीरी की मृत्यु अवश्यम्भावी है।
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