भारत में लाकडाउन राष्ट्रीय शर्म है – नजरिया

By चंद्रशेखर जोशी

बेवजह मौतों के रिकार्ड टूट चुके। अब सांप-बिच्छू के बसेरों में लोग क्वारंटीन हैं। भूख, बेरोजगारी के बाद करीब दो महीने सबकुछ गंवा चुके लोग गांवों लौटे तो नई मुसीबतें सामने हैं। प्रवासी का ठप्पा है, हर अनहोनी की तोहमत उन्हीं के सिर होगी।

जिन भवनों में वर्षों से कोई नहीं गया, वहां लोगों को एकांतवास में रखा जा रहा है। अधिकतर पंचायत भवन और स्कूलों की हालत खराब है। वर्षों पहले बने इन भवनों पर दुबारा पुताई तक नहीं हुई।

बिजली-पानी और शौचालय का कोई इंतजाम नहीं है। ज्यादातर भवन कई सालों से खुले ही नहीं। प्राइमरी स्कूल बंद हुए तीन-चार साल हो चुके हैं। खिडक़ी-दरवाजे टूटे हैं, छत से सीमेंट के टुकड़े गिरते हैं, टपकते पानी से फर्श पर गड्ढे बने हैं।

जब महामारी कम थी तब नियम सख्त थे, बीमारी की तीव्रता बढ़ते ही नियम गायब हैं। हजारों किमी दूर महानगरों से लौट रहे लोग सफर में अकेले आए हों, ऐसा संभव नहीं। पैदल, बस-ट्रेनों से आने वाले जत्थे रास्तेभर आपसी संपर्क में रहे। न जाने कितनों में वायरस का संक्रमण है, कोई अनुमान नहीं।

घर पहुंचने के बाद उनके एकांतवास की कोई व्यवस्था नहीं है। अपनी समझ से गांव वाले जिन कमरों में उन्हें रोक रहे हैं, उनकी क्षमता बहुत कम है। 14 दिन तक एक कमरे में दर्जनभर से अधिक लोगों के ठहरने की जगह मिल रही है। लोग जैसे तैसे दो-तीन दिन काटने के बाद परेशान हैं। प्रधान से इजाजत लेकर ज्यादातर घरों को जा रहे हैं।

मीडिया से जारी हो रहे सरकारी वादे-दावे सौ फीसदी झूठे हैं। ग्राम पंचायतों को आपदा राहत के लिए कोई धनराशि नहीं दी गई है। पंचायत प्रतिनिध अपने दम पर कुछ व्यवस्था कर रहे हैं, कुछों को भविष्य में उधार चुकता करने का भरोसा है। समाजसेवा में लगे लोगों की स्थिति भी अब ऐसी नहीं कि वे ज्यादा समय तक मदद कर सकें।

गांवों में अधिकतर परिवार बेहद गरीब हैं। उनका भरण-पोषण बाहर गए सदस्यों के सहारे चल रहा था। अब सभी बेरोजगार हैं। घर से क्वारंटाइन सेंटर तक भोजन पहुंचाना भी सभी के बस का न रहा।

ऐसी हालत में भला कोई कैसे बचेगा! महामारी का भय, स्वास्थ्य की चिंता, भविष्य का अंधकार, खेती-रोजी का संकट, हताशा, नाराजगी और नाउम्मीदी में असहाय लोग अब कुदरत के भरोसे हैं।

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