यह मेरा जलियांवाला बाग़ नहीं है

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By डॉ श्याम सुंदर दीप्ति

देश की स्वतंत्रता संग्राम में अनेकों घटनाएं कथाएं दर्ज हैं अनेकों सुर वीरों के किस्से व कुर्बानियां लोगों की जुबान पर चढ़ी हैं और बड़े गौरव से उनका इतिहास पढ़ा पढ़ाया जाता है।

इतिहास सिर्फ कुछ तारीख हूं वह कुछ विशेष पुरुषों के गौरवमई पलों तक सीमित नहीं रहता। उसमें अनेकों कुर्बानियां ऐसी होती हैं जिनको इतिहास में जगह नहीं मिलती और उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता।

ऐसी अनेकों घटनाओं में 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग कांड सभी देशवासियों के सीने में आज भी ब्रिटिश साम्राज्य की क्रूरताओं की कहानी कहता है।

दूसरी तरफ देश के लोगों के अंग्रेजों के विरुद्ध भावनाओं को भी भरता है। जो भी कोई शख्स अपनी किसी भी यात्रा के दौरान अमृतसर आता है तो जलियांवाला बाग की धरती पर नतमस्तक अवश्य होना चाहता है। इस धरती पर बहे निर्दोष लोगों के खून में अपनी आजादी को ढूंढना चाहता है।

वह इस स्थान उसके लिए चिर प्रेरणा बनता है कि कैसे संगठित रूप में किसी अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की गई।

जलियांवाला बाग कांड उस रौलट एक्ट के विरुद्ध प्रदर्शन को दबाने के लिए था जो अंग्रेज़ लेकर आए थे। इस एक्ट के विरोध में पूरे देश में ‘काले कानून वापस लो’ की आवाज़ उठ रही थी और अमृतसर इसका गढ़ था।

अंग्रेज अपनी चालों से हिंदू मुसलमानों में दरार डाल रहे थे। ‘हिंदू पानी’ ‘मुस्लिम पानी’ जैसी ओछी हरकतें कर रहे थे।

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इस कांड से पहले का घटनाक्रम कुछ यूं था कि नौ अप्रैल को रामनवमी का त्यौहार था। इसे हिंदू मुसलमानों ने मिलकर बनाया, जिसके बाद अंग्रेज़ी हुकूमत इस बात पर चिढ़ गई। इसे साम्प्रदायिक रंग देने के लिए शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया।

इस जुलूस में शामिल नेता गिरफ्तार कर लिए गए, जिन्हें छुड़ाने की लोगों ने मांग की तो एक प्रदर्शन पर गोली चलाई गई और करीब 20 लोग मारे गए।

इस घटनाक्रम के चलते 13 अप्रैल को एक जलसा रखा गया। उधर सरकार ने किसी भी तरह के इकट्ठा होने या सम्मेलन पर रोक लगा दी थी। जगह-जगह पोस्टर लगे और मुनादी हुई लेकिन लोग इधर उधर होते हुए किसी तरह इस बाग़ में पहुंच गए।

बाग में करीब 20 हज़ार लोग इकट्ठा हो गए। लेकिन बाग़ को जाने के लिए एक बहुत छोटी सी तंग गली थी। उस समय शहर की कमान जनरल डायर के हाथ में थी। उसने वह इकलौता बाहर जाने का रास्ता भी बंद कर दिया और उस रास्ते पर बंदूकें बिठी दीं थीं।

सबक सिखाने के मकसद से डायर ने बिना किसी चेतावनी के निहत्थी जनता पर अंधाधुन गोलियां चलाने का आदेश जारी कर दिया। जान बचाने के लिए लोग इधर-उधर भागे, छोटी सी दीवार से कूदने की कोशिश की और वहीं लटके रह गए। बाग़ में एक कुआं था, जान बचाने को सैकड़ों लोग उसमें कूदे और वह कुआं लाशों से पट गया।

इस घटनाक्रम का एहसास उस बाग़ से मिलता था जो इतिहास के उन पलों से रूबरू कराता था।आज मौजूदा सरकार ने इस कांड की शताब्दी के मौके पर 2019 में इसका आधुनिकीकरण व सौंदर्यीकरण करने का फैसला लिया।

लेकिन सही अर्थों में उन निशानों को मिटा दिया गया जो अंग्रेजों के बर्बर अत्याचार और अन्याय की याद दिलाते थे।

यह बाग़ जिस एहसास को जगाने के लिए इस धरोहर को संभाला जाना चाहिए था अब एक पिकनिक स्पॉट बन गया लगता है।

वह तंग सी गली जो बाग़ में लेकर जाती थी, उसमें घुसते ही वह पल सजीव हो जाता था, आज इसकी दोनों तरफ दीवारों पर मूर्तियां यह एहसास कराती हैं जैसे कोई मेले में जा रहा हो।

बाग़ के अंदर चार गैलरियां हैं जिसमें इतिहास को बताने की कोशिश है परंतु हिंदू मुसलमान एकता के प्रसंग गायब हैं।

वह जगह जहां बैठकर लोगों ने अपने नेताओं के विचार सुने जैसे हंसराज अब्दुल मजीद राम सिंह आदि। वहां हरी दूब से ढका एक टीला है। इस स्मारक के इर्द-गिर्द एक छोटा सा तालाब है जिसमें कमल के फूल खिलने लगे हैं।

जलियांवाला बाग अब एक पिकनिक स्पॉट जैसा बन गया है। आप बाग़ में दाखिल हुए, घूमे फिरे, बैठे बाहर से लेकर आए चिप्स खाए पानी पिया शौचालय इस्तेमाल किया और अलग से बने बाज़ार से निकल गए।

एहसास कहीं नहीं है कि 20,000 लोगों ने अपने सीने पर गोलियों की बौछार को झेला था और कहीं से बाहर जाने की जगह ना होने के कारण जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में कुर्बान हो रहे थे।

इसी एक गैलरी में शायर सैयुद्दीन की ये पंक्तियां गूंजनी चाहिए थी-

इक्को रूप ढिठा सारिया नूं

रहीम करतार भगवान सिंह

होए जम जम ते गंगा एक था कठे

रलिया खून हिंदू मुसलमान इत्थे।

(सभी हिंदू मुसलमानों का एक साथ खून बहता देखा। गंगा जमुना तहजीब का मिलन देखा।)

देश को नया जलियांवाला बाग़ समर्पित करते हुए अपने घर दिल्ली से बात करते हुए पीए मोदी एक बार फिर राष्ट्रवाद और लोगों को देश के प्रति कुर्बान हो जाने का सुर अलापा। लेकिन उन्होंने ये नहीं कहा कि यही एकता हमारी ताक़त है। शायद इसी ताकत से डर लगता है और यही डर ही प्रधानमंत्री को जलियांवाला बाग़ की ज़मीन तक आने से रोक रहा है।

लोग अपना इतिहास नहीं भूलते। खासकर वे लोग जिन्होंने वह इतिहास देखा हो और उसी एहसास को उसी शिद्दत से अपने बच्चों को बांटा हो।

इसलिए यह पंजाब की धरती के लोगों को अपना नहीं लग रहा और वह धीरे-धीरे संघर्ष में आ रहे हैं कि उन्हें अपना इतिहास चाहिए जो उन्हें प्रेरणा दे सके, अन्याय के ख़िलाफ़ खड़ा होने बोलने और कुर्बान होने की ताक़त दे सके।

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