मारुति में अस्थाई मज़दूरों को 1300 रुपये पकड़ा कर 700 करोड़ रुपये बचाए?

maruti workers unity

By प्रो. रवींद्र गोयल

बीते 18 सितम्बर को मारुति प्रबंधन ने अपने यहाँ कार्यरत भिन्न भिन्न किसम के अस्थाई कर्मचारियों (अस्थाई मज़दूरों, टेंपरेरी वर्कर (टीडब्ल्यू 1 और 2 ), अप्रेंटिस और कंपनी ट्रेनिंग कर्मचारी ) के वेतन में भी वृद्धि की है। परमानेंट मजदूरों का समझौता कुछ समय पूर्व ही हुआ था।

जो ख़बरें मिल रही हैं उससे पता चलता है की नए समझौते के अनुसार सुजुकी कंपनी ने अपने स्थाई कर्मचारियों की वेतन बढ़ोतरी 27,000 रुपये प्रति महिना के करीब की है (अन्य और सुविधाओं को जोड़ दिया जाये तो यह बढ़ोतरी तकरीबन 30000 रुपये प्रति महीने के करीब की बैठेगी) जबकि अस्थाई कर्मचारियों के वेतन में सिर्फ 1300 रुपये प्रति महीने की बढ़ोतरी की है।

अस्थाई कर्मचारी यह सवाल सही ही उठा रहे हैं कि जब काम में भेदभाव नहीं है, उनसे भी स्थायी मजदूरों वाला काम ही लिया जाता है, तो वेतन समझौते के तहत दी जानेवाली बढ़ोतरी में भेद भाव क्यों।

यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि वेतन समझौते की यह बढ़ोत्तरी कंपनी कोई अपने मुनाफे में से नहीं दे रही है। यह बढ़ोत्तरी अतीत में मजदूरों के बेहतर काम और भविष्य में मजदूर की उत्पादकता के आकलन पर आधारित ही होती है।

मेरी जानकारी के अनुसार, मारुति गुडगाँव में फ़िलहाल 25000 तक अस्थाई मजदूर हैं और 7000 स्थायी मजदूर हैं। इस हिसाब से मारुति के तीन प्लांटों (गुडगाँव, मानेसर और गुजरात ) में तकरीबन 20000 अस्थायी कर्मचारी तो होंगे ही।

यदि वर्तमान तीन साला समझौते में प्रत्येक स्थायी मजदूर और अस्थायी मजदूर को दी गयी मासिक बढ़ोत्तरी के फर्क को देखा जाये तो वो 28700 रुपये बैठता है (स्थायी मजदूर की 30000 की बढ़ोतरी और अस्थायी मजदूर की 1300 रुपये के बीच का फर्क)।

या दूसरे शब्दों में नए समझौते में सभी अस्थायी मजदूरों को 574000000 ( सत्तावन करोड़ चालीस लाख ) रुपये प्रतिमाह या 700 करोड़ रुपये सालाना का घाटा है।

यदि इस सवाल को फ़िलहाल छोड़ भी दिया जाये कि इतनी भारी संख्या में, विभिन्न नामों से, अस्थायी मजदूर रखना कहाँ तक वाजिब है और उनको स्थायी क्यों न किया जाना चाहिए। फिर भी यह मांग तो बनती ही है कंपनी को सभी मजदूरों के नए समझौते में बराबर अनुपात में बढ़ोत्तरी देनी चाहिए। आखिर कम्पनी की बढ़ती खुशहाली में अस्थायी मजदूरों का भी उतना ही योगदान है जितना स्थायी मजदूरों का।

आमतौर पर देखा भी जाता है वेतन सुविधा आदि में जब भी बदलाव किया जाता तो वो बराबर अनुपात में होता है। सरकारी पे कमीशन में भी वेतन बढोतरी करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है। या सरकार महंगाई भत्ता भी इसी हिसाब से देती है।

फिर भी अस्थायी मजदूरों के साथ, 700 करोड़ रुपये सालाना का, यह धोखा यदि मारुति प्रबंधन आसानी से कर पाती है तो इसका प्रमुख कारण है कि अस्थायी मजदूरों का अपना कोई प्रभावी संगठन नहीं है।

देश में सक्रिय विभिन्न मजदूर संघटनों के लिए यह कोई महत्वपूर्ण सवाल भी नहीं है तथा मारुति के स्थायी मजदूरों की यूनियन के लिए भी यह कोई बड़ा सवाल नहीं है। चेतना के आभाव में वो साथी अपने दूरगामी हितों की रक्षा के लिए अस्थायी मजदूरों के साथ एकता के महत्व को नहीं समझ पा रहे।

यूनियन को संगठित करने वाले वर्त्तमान नेता यह भूल जाते हैं कि अतीत में ठेका मजदूरों की एकता के दम पर ही उन्होने जुझारू संघर्ष लड़ा था और अपने लिए यूनियन की मान्यता और अपने वर्तमान अधिकारों को पाया था। और भविष्य में भी इसकी जरूरत पड़ेगी।

आज के दौर में दुनिया की गति, धन के लोभी बेलगाम उद्योगपति और टेक्नोलॉजी की दुनिया के विकास, निश्चित रूप से, उत्पादन प्रक्रिया में ऑटोमेशन तथा रोबोटीकरण को बढ़ावा देंगे और इसके चलते मारुति समेत सभी उत्पादन संस्थाओं में मजदूरों की छंटनी और paycut के दौर का आना अवश्यम्भावी है।

ऐसे में उत्पादन रोकना या ‘बैठकी हड़ताल’ ही मजदूरों के पास, संघर्ष का, एक मात्र प्रभावी रास्ता होगा। लेकिन वो अस्थायी मजदूरों के सक्रिय सहयोग के बिना असरदार न होंगे।

यह एक दुखद सच्चाई है कि फ़िलहाल तो यह यह एकता नहीं बन पा रही है पर आशा है भविष्य में मारुती यूनियन के नेता इस कमी को दूर करने की कोशिश करेंगे।

लेखक की ओर से स्पष्टीकरणः ये एक अनुमानित गणना है। अगर इसमें किसी को कमी दिखती है तो वो सुधार का सुझाव दे सकता है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे हैं और आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

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