जब वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने पेशावर में पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया

veer chandra singh garhwali

By मुनीष कुमार

23 अप्रैल 1930 का दिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौर का ऐतिहासिक दिन है। पेशावर में अंग्रेजी हकूमत के खिलाफ देश की गढ़वाल रेंजीमेंट की बगावत ने अंगे्रजी हुकूमत की चूलें हिलाकर रख दीं थीं। उनकी बगावत हिन्दू-मुस्लिम एकता की अदभुत मिशाल है। अंग्रेजों ने पेशावर में गढ़वाल रेजीमेंट को यह सोचकर तैनात किया था कि हिन्दू सैनिक पेशावर के मुसलमान आंदोलनकारियों पर गोली चलाने में जरा भी नहीं हिचकेंगे, पर ऐसा हुआ नहीं।

उस दिन देश के पेशावर शहर में (जो कि अब पाकिस्तान में है) विदेशी कपड़ों व मालों के विरोध में ख़ान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में पठानों का जुलूस व सभा थी। अंग्रेज़ी हुकूमत इस आंदोलन को कुचलना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने गढ़वाल रेंजीमेंट की बटालियनें तैनात की, जिसका नेतृत्व चन्द्र सिंह गढ़वाली कर रहे थे। आंदोलनकारी पठानों के जुलूस व जोश से तिलमिलाई अंग्रेज़ी हुकूमत के कैप्टन रिकेट ने उनके आंदोलन को कुचलने के लिए गढ़वाल रेजीमेंट को आदेश दिया- गढ़वाली तीन राउन्ड फायर।

परन्तु गढ़वाल रेजीमेंट के सैनिक तो कुछ और सोचकर आए हुए थे। गढ़वाल रेजीमेंट के सेनानायक वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जो कि कैप्टन रिकेट के बगल में ही खड़े थे, अपने सैनिकों से कहा- गढ़वाली सीज़ फ़ायर। उन्होंने कहा कि हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते। गढ़वाल रेजीमेंट के बहादुर सैनिकों ने गोली चलाने से इनकार कर दिया और सभी सैनिकों ने अपनी बंदूकें नीची कर दीं। मौके पर तैनात दूसरी प्लाटूनों ने भी इसका अनुसरण किया और गोलियां नहीं चलाईं।

आनन-फानन में आंदोलन को कुचलने के लिए कैप्टन रिकेट द्वारा गोरों की फौज मौके पर बुला ली गयी। उन्होंने पठानों पर गोलियां बरसानी शुरु कर दीं। खून की नदियां बहा दीं गयीं, देखते-देखते पेशावर की सड़कें बहादुर पठानों के खून से रंग दी गयी। मार्शल ला व कर्फ्यू लगा दिया गया।

बगावत का मतलब था, मौत की सजा। इसके बावजूद भी गढ़वाल रेजीमेंट के बहादुर सैनिकों ने अपने पठान भाईयों पर गोली चलाने के मुकाबले अंग्रेजी हुकूमत का दमन झेलना स्वीकार किया। वगावत करने वाले सैनिकों के हथियार बैरक में जमा करा लिए गये गये।

67 सैनिकों का कोर्ट मार्शल कर, उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। मुकन्दी लाल व एक अंग्रेज़ ने उनके मुकदमे की पैरवी की। 7 सैनिकों के सरकारी गवाह बन जाने के कारण छोड़ दिया गया। 17 ओहदेदारों समेत 60 सैनिकों को लम्बी-लम्बी सजाएं सुनायी गयीं। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी।

चन्द्र सिंह के हाथ-पैरों में बेड़ियां डालकर डेरा इस्माईलखां जेल की काल कोठरी में डाल दिया गया। जेल में भी चन्द्र सिंह ने अपना संघर्ष जारी रखा। बगावत करने वाले सैनिकों को राजनैतिक कैदी का दर्जा दिये जाने व उन्हें बी क्लास की जेल उपलब्ध कराए जाने की मांग को लेकर 1 जुलाई, 1930 से उन्होंने अपने साथियों के साथ जेल में भूख हड़ताल की, परन्तु उनकी मांगे नहीं मानी गयीं। कांग्रेस नेताओं की अपील पर उन्होंने 1 अगस्त 1930 को अनशन समाप्त कर दिया।

1931 में गांधी-इर्विन के बीच हुए समझौते के बाद जेलों में बंद कांग्रेस के नेता रिहा कर दिये गये। सेना में बगावत करने के कारण चन्द्र सिंह व उनके साथियों को रिहा नहीं किया गया। अंग्रेज़ी हुकूमत ने चन्द्र सिंह से कहा कि तुम माफी मांग लो तो तुम्हें भी रिहा कर दिया जाएगा। चन्द्र सिंह ने जबाब दिया कि आप मुझे बेकसूर समझते हैं तो छोड़ दे। माफ़ी मांगने के लिए तो मैं संसार में पैदा नहीं हुआ। कांग्रेस के नेताओं ने उनकी रिहाई को लेकर कभी भी गम्भीर प्रयास नहीं किए।

चन्द्र सिंह को बरेली, इलाहबाद लखनऊ, अल्मोड़ा समेत कई जेलों में रखा गया। 1936 में नैनी जेल में उनकी मुलाकात कम्युनिस्ट क्रांतिकारी यशपाल व शिव वर्मा आदि से हुयी। उनके सानिध्य में चन्द्र सिंह ने कम्युनिज्म के आदर्शों को ग्रहण किया। 1941 में चन्द्र सिंह को जेल से रिहा कर दिया गया परन्तु भयभीत अंग्रेजी सरकार ने उनके गढ़वाल जाने व भाषण देने पर पाबन्दी लगा दी।

कुछ समय चन्द्र सिंह अपनी पत्नी भगीरथी व बेटी माधवी के साथ गांधीजी के साथ वर्धा में रहे। 1942 में उन्होंने अंगेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन में भागीदारी की, जिस कारण उन्हें बनारस में पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। इस दौरान उनकी पत्नी व बेटी ने हल्द्वानी अनथालय की एक कोठरी में कठिन जीवन व्यतीत किया।

1945 में चन्द्र सिंह को जेल से रिहा कर दिया गया। रिहा हाने के बाद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर मजदूर-किसानों को संगठित करने के काम में भागीदारी की तथा कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की।

1946 में चन्द्र सिंह के गढ़वाल प्रवेश पर लगा प्रतिबंध हटा लिया गया। उन्होंने कुमाऊं व गढ़वाल में भुखमरी की शिकार जनता के लिए अनाज, पानी आदि को लेकर संघर्ष किया। 1947 में देश से अंग्रेज़ों के देश से जाने के बाद बाद टिहरी रियासत को भारत में विलय के लिए जारी आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व किया। इसमें उनके दो साथी नागेन्द्र सकलानी व मूल सिंह शहीद हो गये।

1948 में चन्द्र सिंह ने पौढ़ी गढ़वाल से जिला बोर्ड का चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। कांग्रेस सरकार को इसकी भनक लगते ही उन्होंने चन्द्रसिंह को गिरफ्तार कर बरेली जेल भेज दिया। इस कारण वह अपने 90 वर्षीय पिता की अंत्येष्ठिी में भी शामिल नहीं हो पाए।

उन्होंने जेल से सरकार को चतावनी दी कि यदि 10 दिनों के भीतर उन्हें गिरफ्तारी कारण नहीं बताया गया तो वे जेल के भीतर भूख हड़ताल कर देंगे।

8 अप्रैल, 1948 को सरकार का जबाब आया कि तुम कम्युनिस्ट पार्टी के जोरदार कार्यकर्ता हो, तुम 2/18 गढ़वाल राइफल पेशावर में हुयी गदर के सजायाफ्ता हो, तुमने कुमाऊं डिवीजन के एनआईए वालों को सरकार के विरुद्ध भड़काया…तुम्हारी हरकतें अमन व राज्यसत्ता के खिलाफ हैं।

कुछ दिन बाद चन्द्र सिंह को रिहा कर दिया गया। सरकार द्वारा उन पर लगाए गये आरोपों के प्रतिवाद में चन्द्र सिंह ने 10 जून 1948 को ‘चन्द्र सिंह गढ़वाली का नम्र निवेदन’ नाम से पर्चा छपवा कर बांटा।

जिसमें उन्होंने कहा रायल गढ़वाल राईफल को पेशावर का अभियुक्त कहकर उसे गिरफ्तारी का कारण बताना, यही बतलाता है कि जिनके विरुद्ध पेशावर का कांड हुआ था, वह चमड़े का रंग बदलकर लखनऊ में अब भी मौजूद है।

उनका यह पर्चा समाचार पत्रों की सुर्खियां बन गया तथा इसे लंदन के अखबार डेली वर्कर में भी सुर्खियों के साथ प्रकाशित किया गया। सरकार की फजीहत होने पर प्रधानमंत्री नेहरु के निजी सचिव ने चन्द्र सिंह को पत्र भेजकर अफसोस प्रकट किया।

पेशावर कांड व उसके विद्रोही सैनिकों को आजाद भारत की सरकार मान्यता देने के लिए तैयार नहीं थी। सरकार ने उन्हीं सैनिकों को पेंशन का हकदार माना जिन्होंने कम से कम 10 साल फौज में नौकरी की हो।

इस तरह चन्द्र सिंह समेत पेशावर के मात्र 3 सैनिक ही इसके लिए योग्य थे। चन्द्र सिंह ने प्रधानमंत्री नेहरु को ज्ञापन देकर मांग की कि पेशावर कांड को राष्ट्रीय पर्व समझा जाए और सैनिकों को पेंशन दी जाए, जो मर गये हैं, उनके परिवार को सहायता दी जाए।

सरकार ने उनकी मांगों को नहीं माना। नेहरु ने उन्हें बागी करार दिया। अंत में 36 सैनिकों को सरकार ने पेंशन दी, 21 को ग्रेच्युटी तथा दो को कुछ भी नहीं दिया गया। आजाद भारत के शासकों ने वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली व देश के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले शहीदों को नकार दिया।

इतिहासकार रजनी पाम दत्त अपनी किताब ‘आज के भारत’ में 20 जनवरी 1932 को गढ़वाली सिपाहियों के प्रश्न पर फ्रांसिसी पत्रकार चाल्र्स पेत्राश को गांधी के उत्तर का उल्लेख किया है-

‘‘वह सिपाही जो गोली चलाने से इनकार करता है, अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है इस प्रकार वह हुक्म उदूली का अपराध करता है। मैं अफसरों और सिपाहियों से हुक्म उदूली के लिए नहीं कह सकता। जब हाथ में ताकत होगी, तब शायद मुझे भी इन्हीं सिपाहियों और अफसरों से काम लेना पड़ेगा। अगर मैं हुक्म उदूली सिखाउंगा तो मुझे भी डर लेगेगा कि मेरे साथ में भी वे ऐसा ही न कर बैठे।’’

भारत की सरकारें पेशावर विद्रोह के बारे में जनता को बताने से हमेशा बचती रही हैं। एक तरफ देश में अटलबिहारी वाजपेयी जेसे लोग थे जो अंग्रेजों की मुखबरी करने के बाद भी देश के प्रधानमंत्री बने तो दूसरी तरफ चन्द्र सिंह जैसे बहादुर सिपाही जिनकों लेकर सरकारें आज भी डरी व सहमी हुयी हैं।

भारत की सरकार, देश के सुरक्षा बलों को अंगे्रजी हुकूमत की तरह ही जनता के दमन का एक अस्त्र बनाकर रखना चाहती है। देश में आज जिस तरह से सुरक्षा बलों के नाम पर राजनीति की जा रही है ऐसे में चन्द्र सिंह गढ़वाली और 1930 का पेशावर विद्रोह आज और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गये हैं।

भारत के आजादी के आंदोलन में उनका त्याग, समर्पण व देशप्रेम की भावना अद्भुत है। आज देश को जनता के इस वास्तविक नायक को याद करने व उनसे प्रेरणा लेने की जरुरत है।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और उत्तराखंड में समाजवादी लोक मंच के संयोजक हैं।)

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