अभूतपूर्व बेरोज़गारी-6ः देश की 20 करोड़ आबादी तनाव, निराशा, अवसाद में, ये संख्या महामारी की तरह बढ़ेगी

By एस. वी. सिंह

इस खूनी व्यवस्था ने युवाओं को प्यार-मुहब्बत भुलाकर मौत की तरफ़ धकेल दिया है। एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब आर्थिक कंगाली और अवसाद ग्रस्त होकर अंजाम दी गई कोई ह्रदय विदारक घटना सुनने को ना मिले।

घोर व्यक्तिवाद, आत्म केन्द्रीयता, उपभोक्तावाद की आंधी, लुभावने सपनों में ले जाने वाले विज्ञापनों का सतत जोरदार आक्रमण, कहीं किसी आदर्श या उम्मीद का नज़र ना आना, समाज से समग्र अलगाव, संवेदनहीनता, सघन असामाजिकता ये सब सौगातें इस मानवद्रोही पूंजीवादी संस्कृति की हैं।

इस  डूबती जा रही, आखरी सांसें गिन रही व्यवस्था के पास देने को और बचा ही क्या है? ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ ग़रीब या पढ़ने में कमज़ोर बच्चे ही अवसाद ग्रस्त हैं।

सूचना अधिकार कानून के अंतर्गत प्राप्त एक जानकारी के अनुसार जो हिन्दू में छपी थी; पिछले 5 सालों में देश के सर्वोच्च संस्थान आई आईटी में कुल 28 छात्रों ने आत्म हत्याएं कीं।

20 करोड़ अवसादग्रस्त

29 जनवरी 2020 को द हिन्दू अखबार में छपी एक जानकारी के मुताबिक हमारे देश में हर रोज़ औसत 28 छात्र आत्महत्या करते हैं।

मैंने 2011 में न्युयोर्क विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया था, उम्मीदें बुलंद थी लेकिन कुछ शिक्षा क़र्ज़ भी बकाया था। 5 साल तक भुगतान करने के बावजूद भी उस वक़्त मेरे ऊपर $68000 का बैंक शिक्षा क़र्ज़ देना शेष था। एक साल बाद मेरी उम्मीदें दम तोड़ गईं और मैं पूरी तरह अवसाद ग्रस्त हो गया। जब न्युयोर्क में कोई काम मिलने का मेरा सपना टूट गया तो मेरी जीवन लीला पोर्टलैंड, ऑरेगोन में आकर समाप्त हो गई। अपने सपनों के कॉलेज से मास्टर्स डिग्री लेने के बाद मेरी ज़िन्दगी ऐसे समाप्त हो जाएगी ऐसा मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। मुझे शर्म, ग्लानी, अवसाद और सब कुछ निगल जाने वाली चिंता महसूस हो रही थी.”

ये पूंजीवाद के स्वर्ग अमेरिका के एक प्रतिभावान छात्र का आत्महत्या पत्र है। ऐसे पत्र वहां आम हैं।

क्या आप सोच सकते हैं कि आज हमारे देश में अवसादग्रस्त लोगों की कुल तादाद 20 करोड़ है? ये हमारी कुल आबादी का 15% है।

लॉकडाउन घोषित होने के बाद रोज़गार छिनने की वज़ह से  कुल 300 विस्थापित मज़दूरों ने आत्महत्याएं कीं।

हालाँकि ये आधिकारिक आंकड़े हैं, असलियत इससे कहीं ज्यादा भयावह है। रोज़गार जाने, व्यापार डूब जाने, आर्थिक संकट से ना निकल पाने की वज़ह से अपनी जान ले ली, ऐसी ह्रदय विदारक घटनाएँ आम हो चुकी हैं।

आने वाला वक़्त और गहरे अँधेरे की ओर इशारा कर रहा है।

 ‘सबको रोज़गार दो’ का नारा देश भर में गूँजना चाहिए

अभूतपूर्व बेरोज़गारी की स्वाभाविक परिणति अभूतपूर्व जनाक्रोश में होना स्वाभाविक है भले एक के बाद एक लॉकडाउन और जानलेवा महामारी कोविड-19 की वज़ह से वो स्थिति सडकों पर आज नज़र नहीं आ रही।

बेरोज़गारों की ये विशाल फ़ौज जिसका आकार बढ़ता ही जा रहा है चुप नहीं बैठेगी।

ये उनके जीवन- मरण का सवाल है। पेट की भूख आश्वासनों से नहीं बुझती। आगे बस एक ही रास्ता नज़र आता है; देशभर में बे-रोज़गारी के खिलाफ़ जनवादी जन आन्दोलनों की लहर पैदा करना।

इन युवकों को फासीवादी प्रतिक्रियावादी शक्तियों की पैदल सेना बनने से रोकना होगा। इन दो मांगों पर जन जागरण अभियान केन्द्रित किया जाना ज़रूरी है।

15 हज़ार रु. बेरोज़गारी भत्ते की मांग तेज़ 

आज जैसे हालात देश के इतिहास में पहले कभी नहीं बने। कोरोना- उपरांत दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी, ये बात निश्चित है। ये बात शासक वर्ग भी जानता है इसीलिए युद्ध के बादल चारों ओर गहराने लगे हैं।

इसीलिए तमाम ट्रेड यूनियनें, सामाजिक संगठन, मज़दूर और किसान संगठन बेरोज़गारों को 15,000 रुपये तक बेरोज़गारी भत्ता दिए जाने की मांग कर रहे हैं।

पूंजीवाद ने अपने ज़िंदा रहने के लिए ये रास्ता कई बार आज़माया है।

समाज को अँधेरे गर्त में धकेलने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियों को परिस्थिति का लाभ उठाने  का अवसर नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसका परिणाम फासीवाद के भयंकर विस्फोट के रूप में होगा, पिछली सदी के तीसरे दशक से भी ज्यादा भयावह और विनाशकारक।

प्रतिक्रियावाद के हमले को निर्णायक रूप से और हमेशा के लिए शिकस्त देनी पड़ेगी।

अपनी प्रतिष्ठित कृति ‘इंग्लैंड में मज़दूरों की दशा’ को इंग्लैंड के मज़दूरों को समर्पित करते हुए सर्वहारा के महान नेता फ्रेडेरिक एंगेल्स लिखते हैं, “अब आगे बढो, जैसा आप आज तक करते आए हो। अभी काफ़ी मंजिल बाक़ी है, दृढ बनो, अडिग बनो, आपकी जीत निश्चित है। आगे कूच करते हुए आप जो भी क़दम बढाओगे वो आपके सबके सामूहिक हित में होगा, और वो होगा मानवता के हित में”। (समाप्त)

(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)

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